जीवन-ज्योति

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जीवन और ज्योति का मिलान - नियति का निराला खेल.
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जीवन और ज्योति इन दोनों की जोड़ी कालेज में सभी की जुबान पर रहती थी. वह दोनों एक ही क्लास में थे. वो साथ-साथ पढ़ते और घूमते पर उनकी रातें अपने अपने हॉस्टल में गुजरतीं. वह दोनों एक दूसरे को अपना जीवनसाथी मान चुके थे पर साथ रातें गुजारने में अभी वक्त था.

उस दिन वैलेंटाइन डे था शायद कॉलेज में यह उनका आखिरी वैलेंटाइन डे होता. दोनों मन ही मन एक दूसरे के प्रति समर्पण को तैयार थे. उनके यौनांग भी एक दूसरे को महसूस करने के लिए तत्पर थे. आज तक जीवन और ज्योति ने एक दूसरे के अंगों को महसूस जरूर किया था पर वस्त्रों के ऊपर से. जीवन और ज्योति ने एक दूसरे को नग्न नहीं देखा था. अबतक यह उन्हें मर्यादा के खिलाफ लगता था. परंतु अब वह दोनों युवा हो चुके थे.ज्योति भी कुछ दिनों पहले मतदान योग्य हो चुकी थी. उसने भी आज मन बना लिया था कि वह अपना कौमार्य अपने प्रेमी जीवन को अर्पित कर देगी. जीवन भी यह बात जानता था पर कहां? उनके पास कोई उचित जगह नहीं थी. होटल जाना खतरनाक हो सकता था.

तभी मनीष दौड़ता हुआ आया

"यार जीवन मजा आ गया. मेरे मम्मी पापा 2 दिनों के लिए बाहर गए हैं घर पूरा खाली है तू आज ज्योति को भी वहीं बुला ले. मैने ने अपनी मनीषा को भी वही बुला लिया है. मुझे पूरी उम्मीद है ज्योति मना नहीं करेगी."

उसने मुझसे कहा

"यार राहुल, तू रश्मि को बोल ना वह उन दोनों को मना लेगी. सच बहुत मजा आएगा. कुछ ही देर में प्रोग्राम सेट हो गया. हमारी प्रेमिकाएँ सहर्ष वहां आने को तैयार हो गयीं. हम तीनों के बीच गहरी दोस्ती थी."

ज्योति को छोड़कर बाकी दोनों लड़कियां अपना कौमार्य पहले ही परित्याग कर चुकी थीं. आज जीवन और ज्योति का मिलन नियत ने सुनियोजित कर दिया था.

जीवन एक आकर्षक कद काठी का युवा था जो पढ़ने में भी उतना ही तेज था जितना खेलने में. वह कालेज का हीरो था सभी लोग उसकी तारीफ करते हुए नहीं थकते. मुझे और मनीष को उससे कभी ईर्ष्या नहीं हुई . वह हम दोनों का बहुत ख्याल रखता था. वह एक सामान्य परिवार से था उसके माता-पिता उसका ख्याल रखते पर धन की कमी अवश्य थी. एक रईसजादा ना होने के बावजूद उसके चेहरे पर चमक थी उस से जलने वाले लड़के उसके पीठ पीछे यही बात कहते हैं जरूर इसकी मां ने किसी रईसजादे के साथ अपनी रातें गुजारी होंगी.

वह कभी भी फिजूलखर्ची में नहीं पड़ता और पूरी जिम्मेदारी से अपनी पढ़ाई करता. ज्योति से उसकी मुलाकात कॉलेज के पहले साल में ही हो गई थी. वह बला की खूबसूरत थी. आप ज्योति की शारीरिक संरचना की कल्पना के लिए मनीषा कोइराला(1942 ए लव स्टोरी वाली) को याद कर सकते हैं. वह जीवन का बहुत ख्याल रखती थी उन दोनों में अद्भुत तालमेल था.

जीवन और ज्योति का मिलन नियति ने नियोजित किया था. वह दोनों स्वतः ही एक दूसरे के करीब आते गए. वह साथ साथ बैठते, साथ-साथ पढ़ते और सभी कार्यक्रमों में एक साथ ही जाते. उन दोनों दोनों में अद्भुत तारतम्य था. उनका प्रेम सभी को पता था पर उससे किसी को आपत्ति नहीं थी. मुझे ऐसा प्रतीत होता है जैसे उन्होंने अपने कॉलेज जीवन के शुरुआती 3 वर्ष एक दूसरे को समझने में ही बिता दिए. एक तरफ मैं और मनीष अपनी अपनी प्रेमिकाओं के साथ रंगरलिया मनाते और वह दोनों कभी साथ में ड्राइंग करते हैं कभी एक दूसरे से घंटों बातें. परंतु कुदरत ने शरीर की संरचना इस हिसाब से ही बनाई है कि लड़का और लड़की ज्यादा दिनों तक बिना अंतरंग हुए नहीं रह सकते. उनके यौनांग स्वयं एक दूसरे के करीब आ जाते हैं. यह बात जीवन और ज्योति पर भी लागू हुयी.

ज्योति के जन्मदिन पर जीवन ने पहली बार उसे चूमा था वह भी सीधा होंठों पर उनका यह अद्भुत चुम्बन लगभग 2 मिनट तक चलता रहा था. इस दौरान वह दोनों एक दूसरे में समा जाने के लिए तत्पर थे. इस अदभुत मिलन के गवाह और जोड़े भी थे परंतु उन्हें जैसे हमारी उपस्थिति का एहसास भी नहीं था. जब वह दोनों अलग हुए तालियां बज रही थी. जीवन ने घुटनों पर आकर ज्योति का हाथ मांग लिया ज्योति तो जैसे इसका इंतजार ही कर रही थी कुछ ही देर में दोनों फिर आलिंगन बंद हो गए. इसके पश्चात जीवन और ज्योति का शारीरिक मिलन शुरू हो गया पर उनके बीच मर्यादा कायम रही.

हम लोगों ने कई बार जीवन को उकसाया कि वह ज्योति के अंग प्रत्यंग से अपनी दोस्ती बना ले. पर उसने हमेशा बात टाल दी. हमें पूरा विश्वास था कि उन दोनों ने एक दूसरे को छुआ जरूर है पर यह बात हम भी जानते थे कि उन्होंने एक दूसरे से संभोग नहीं किया था.

(मैं ज्योति)

आज रविवार था सुबह-सुबह जीवन का मैसेज देख कर मैं मन ही मन आज उसके साथ बिताए जाने वाले पलों को सोचकर आनंदित हो रही थी. जितना ही मैं सोचती उतना ही मेरी उत्तेजना बढ़ती. मेरी मुनिया (योनि)आज अपने प्रेमी से मिलन की प्रतीक्षा में भावविभोर होकर खुशी के आंशू छोड़ रही थी. मेरी जाँघों के बीच फसा तकिया हिल रहा था उसे हिलाने वाला मेरा मस्तिष्क था या मेरी मुनिया यह कहना कठिन था पर खुश दोनो थे.

तभी मेरी मां का फोन आया

"कैसी है मेरी प्यारी बेटी?"

"ठीक हूं मां."

"और वह तेरा जीवन कैसा है?"

"वह बहुत अच्छा है मां तुम उससे मिलोगी तो खुश हो जाओगी. मैं सचमुच उससे बहुत प्यार करती हूं."

"तो क्या तुम दोनों एक दूसरे के करीब आ चुके हो?"

"हम दोनों पिछले 3 साल से करीब है पर जो आप पूछ रही हैं वैसे नहीं पर हां आज मैं वह दूरी मिटा देना चाहती हूं."

"पर आज क्या है?"

"यह मेरे कालेज जीवन का आखिरी वैलेंटाइन डे है. मैंने जीवन को अपना मान लिया है इसलिए उसके साथ इसे यादगार बनाना चाहती हूं."

"मेरी प्यारी ज्योति यदि वह तुझे पसंद है तो हमें भी पसंद है मेरी बेटी कभी गलत नहीं हो सकती. यह बात मैं जानती हूँ पर पर अपना ध्यान रखना. और हां यह भी ध्यान रखना कि तुम्हारा मिलन सुरक्षित हो"

"ठीक है माँ."

मैंने फोन काट दिया. मुझे इस बारे में और बातें करना अच्छा नहीं लग रहा था मुझे शर्म आ रही थी. उन्होंने अपनी हिदायत मुझे स्पष्ट रूप से दे दी थी. मैं स्वयं आज जीवन से एकाकार होने के लिए तत्पर थी. जब हम दोनों का मन एक हो ही चुका था तो तन एक होने में कोई दुविधा नहीं थी. मेरे यौनांगो को भी अब उसकी प्रतीक्षा थी.

मेरी मां ने भी प्रेम विवाह किया था. वह प्रेम की अहमियत जानती थीं. मेरी मां के पिता राम रतन एक हवलदार थे जो कुमाऊं जिले के पोखरिया ग्राम के रहने वाले थे मेरी मां मेरी नानी के साथ उसी गांव में रहतीं. नाना अक्सर अपनी ड्यूटी के चक्कर में कुमाऊं से बाहर ही रहते हैं साल में वह कभी कभी घर आया करते थे.

मेरे नाना एक कड़क स्वभाव के आदमी थे. पुलिसवाला होने की वजह से उनमें संवेदना पहले ही कम हो चुकी थी. घर में भी उनकी हिटलर शाही चला करती कोई उनके खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं करता था.

जब भी छुट्टियों में मैं अपनी मां के पास जाती वह मुझे नाना नानी की कहानियां सुनाया करती. मेरी मां ने मुझे पति पत्नी और प्रेम संबंधों की अहमियत समझाई थी. मेरी मां की मुलाकात मेरे पिताजी से कॉलेज फंक्शन में हुई थी मेरे पिता कुमाऊं जिले के एसडीएम थे मेरी मां की सुंदरता पर वह मोहित हो गए और कुछ ही दिनों में वह दोनों एक दूसरे से प्रेम करने लगे.

उनका प्रेम परवान चढ़ता गया और अंत में उन दोनों ने शादी कर ली मेरी मां द्वारा बताई गई है प्रेम कहानी ने मेरे मन में पुरुषों के प्रति डर को खत्म कर दिया था सच उन दोनों का प्रेम अद्भुत था. मैंने अपने बचपन में उन्हें कभी भी लड़ते हुए नहीं देखा.

मां के विवाह के कुछ वर्षों बाद नाना और नानी दोनों एक दुर्घटना में स्वर्गवासी हो गए मेरे पिता ने वहां की जमीन बेचकर कुमाऊ शहर से अपना नाता तोड़ दिया और देहरादून में एक आलीशान मकान बना लिया. उनका अब कुमाऊं से कोई नाता नहीं बचा था पर उन दोनों के मन में कुमाऊं के प्रति अद्भुत प्रेम था.

आज भी जब भी मेरे माता-पिता कुमाऊं के बारे में बातें करते हैं वह भाव विभोर हो जाते हैं. कभी-कभी उनकी आंखों में आंसू दिखाई पड़ते. वह खुशी के होते या गम के यह तो मैं नहीं जानती थी पर उन्हें भाव विह्वल देखकर मैं उन्हें उनकी यादों से खींच कर हकीकत में ले आती. मेरी चंचलता देखकर वह दोनों मुझे अपनी गोद में खींच लेते और ढेर सारा प्यार देते. मैं अपनी यादों में खोई हुई थी तभी दरवाजा खुला

रश्मि मेरे कमरे में आई और बोली

"तू आज क्या पहन कर जा रही है?"

मैंने उस समय तक कुछ भी नहीं सोचा था मैंने कहा

"तू ही बता ना क्या पहनना चाहिए."

"देख कायदे से तो आज कपड़ों की कोई जरूरत तो है नहीं."

"तो क्या नंगी चली जाऊं."

"हम दोनों हंसने लगे."

रश्मि, राहुल की गर्लफ्रेंड थी और मेरी अच्छी सहेली. मैंने अपनी अटैची खोली और एक सुंदर सा लहंगा चोली निकाल कर उसे दिखाया.

"अरे मेरी लाडो रानी इस ड्रेस में तो दुल्हन के जैसी लगेगी. जीवन तो तुझे इस ड्रेस में देखकर आज ही तेरी मांग में सिंदूर और योनि में वीर्य दोनों भर देगा"

मैं उसे मारने के लिए दौड़ी पर वह कमरे से भाग गयी पर जाते-जाते मेरी जांघों के जोड़ पर एक सिहरन छोड़ गयी.

घड़ी पर नजर पढ़ते ही मैं घबरा गई. दोपहर के 1:00 बज चुके थे. मैंने अपने जरूरी सामान बाल्टी में भरे और भागती हुई बाथरूम की तरफ चली गई. आज नहाते समय मैं अपने स्तनों को महसूस कर रही थी. आज उन्हें भी जीवन के नग्न और मजबूत हथेलियों का स्पर्श मिलना था. अपनी मुनिया के होठों पर आए प्रेम रस को साफ करते समय मुझे अपने कौमार्य का एहसास हुआ. मेरी उंगलियां आज तक जिस मुनिया के अंदर प्रवेश नहीं कर पायीं थी उसे जीवन के मजबूत राजकुमार(लिंग) को अपने आगोश में लेना था. मेरी उंगलियां हमेशा से उसके होठों पर ही अपना कमाल दिखातीं तथा उसके मुकुट को सहला कर मुनिया को स्खलित कर देतीं पर आज का दिन विशेष था. मेरी मुनिया को बहादुरी से अपना कौमार्य त्याग करना था उसके पश्चात आनंद ही आनंद था यह मैं और मेरी मुनिया दोनों जानते थे. हम दोनों ने आज अपना मन बना लिया था.

कुदरत की दी हुई अद्भुत काया में मुनिया को छोड़ कहीं पर भी बाल नहीं थे. मुझे मुनिया के बाल हटाने में थोड़ा ही वक्त लगा. मेरी जाँघे, पैर तथा कोमल हाथ भगवान ने ही वैक्सिंग करके भेजे थे. उनपर एक रोवाँ तक न था.

कमरे में आने के बाद मैंने अपनी अटैची फिर खोली मां की दी हुई पायल और अंगूठी मैंने निकाल ली. आज मैं जीवन के लिए सजना चाहती थी.. मेरे पास गले की चैन के अलावा हॉस्टल में यही दो आभूषण थे. मेरी मां ने मेरे 18 वें जन्मदिन पर अपने गले से चैन उतार कर मेरे गले में डाल दी थी. इस सोने की चैन में हाथी दांत से बना हुआ एक सुंदर लॉकेट था. यह लॉकेट अत्यंत खूबसूरत था. मुझे यह शुरू से ही पसंद था. बचपन में जब भी मैं मां के साथ बाथरूम में नहाती उनका लाकेट छीनने की कोशिश करती . वो कहतीं

"बेटी पहले बड़ी हो जा मैं यह तुझे ही दूंगी तू मेरी जान है" वह पेंडेंट आधे दिल के आकार का था. जब भी वह किसी की नजर में आता अपना ध्यान जरूर खींचता था. मैंने उन्हें पहन लिया. मुझे मां की बात याद आई वह अक्सर त्यौहार के दिन अपने पैरों में आलता लगाया करती थी. मैंने उनसे पूछा था

"मां, यह आलता क्यों लगाती हो?"

उन्होंने मुझे चूमते हुए बताया

"बेटा, यह अपने सुहाग के लिए लगाया जाता है आलता लगे हुए पैर सुहाग का प्रतीक होते हैं पति को यह अच्छा लगता है"

मेरे मन में आलता को लेकर संवेदना थी. मैं भी अपने पैरों में आज आज आलता लगाना चाहती थी. पर यहां हॉस्टल में आलता मिलना संभव नहीं था. मैंने मन ही मन कोई उपाय निकालने की कोशिश की पर विफल रही. अचानक मेरी नजर मेरे रूम पार्टनर की टेबल पर पड़ी. उसकी टेबल पर लाल स्याही देखकर मेरी नजरों में चमक आ गई. मैंने उसे ही का प्रयोग कर अपने पैर रंग लिए मैं मन ही मन अपनी रचनात्मकता पर खुश होने लगी.

हमें 4:00 बजे निकलना था. कुछ ही देर में मैं तैयार हो चुकी थी. मेरे आलता लगे हुए पैर मेरे लहंगे के नीचे छुपे हुए थे. मेरे लिए यह अच्छा ही था. रश्मि यदि मेरे पैर देखती तो 10 सवाल पूछती. मैंने रश्मि को फोन किया..

"आई एम रेडी."

"अरे मेरी जान अभी रेडी होने से कोई फायदा नहीं अभी सील टूटने में 6 घंटे बाकी हैं."

"हट पगली, मैंने वो थोड़ी कहा."

"अरे वाह, तुम्हीं ने तो कहा आई एम रेडी."

मैं हंसने लगी "अरे मेरी मां, चलने के लिए कहा, चु**ने के लिए नहीं"

"तो क्या, आज तो फिर वैसे ही वापस आ जाओगी?"

"नहीं- नहीं मेरा मतलब वह नहीं था."

"साफ-साफ बताना."

"यार मजाक मत कर अब आ भी जा." मैंने बात खत्म की.

मैंने महसूस किया कि मेरी मुनिया आज इन सब बातों पर तुरंत ही सचेत हो जा रही थी. वह ध्यान से हमारी बातें सुनती और मन ही मन कभी डरती कभी प्रसन्न होती.

हम दोनों को हास्टल के गेट पर आ चुके थे. मनीषा हमारा गेट पर ही इंतजार कर रही थी. कुछ ही देर में हम तीनों सहेलियां ओला की सेडान कार में बैठ शहर की तरफ निकल पड़ीं. वह दोनों मुझे देखकर मुस्कुरा रही थीं. मुझे अब अफसोस हो रहा था कि मैंने अपने कौमार्य भंग के लिए आज का ही दिन क्यों चुना था. वह भी अपनी दो सहेलियों की उपस्थिति में .

वैसे यह काम एकांत में ही होता. पर मेरी इन दो सहेलियों को कमरे में होने वाली गतिविधियों की विधिवत जानकारी होगी. एक तरफ यह मेरी शर्म को तो बढ़ा रहा था तो दूसरी तरफ मेरी उत्तेजना को और भी जागृत कर रहा था.

मनीष का घर बेहतरीन था. घर क्या वो एक आलीशान कोठी थी. उसने आज वैलेंटाइन डे के लिए विशेष पार्टी की व्यवस्था की थी. इस पार्टी का आनंद हम सभी उठाते पर मैं और जीवन आज के विशेष अतिथि थे. असली वैलेंटाइन डे हम दोनों का ही होना था. आज हम दोनों को एक साथ देखकर सभी मन ही मन आनंदित थे. वह सच में हमारे अच्छे दोस्त थे.

मेरी नजरें शर्म से झुकीं हुईं थीं. मैं मनीष और राहुल से नजर नहीं मिला पा रही थी. वह दोनों मेरी खूबसूरती का आनंद जरूर ले रहे थे. आखिर मनीष ने बोल ही दिया

"ज्योति आज जीवन तो गया. भाई पहले राउंड में तो यह हिट विकेट हो जाएगा . थोड़ा धीरज रखना उसे फॉलोऑन खिलाना. लड़का ठीक है और तुम्हारे लायक है. पर तुम अद्भुत हो विशेषकर आज तो कयामत लग रही हो."

मैं शर्म से पानी पानी होती जा रही थी. मेरी दोनों सहेलियां मुझे लेकर अंदर आ गयीं हम एक बड़े से हॉल में बैठे हुए थे. मेरी निगाह जीवन पर पड़ी आज वह भी सज धज कर आया हुआ था. ऐसा लग रहा था जैसे इस अवसर के लिए उसने विशेष कपड़े खरीदे थे. एक पल के लिए मुझे लगा जैसे हम दोनों का छद्म विवाह होने वाला हो.

(मैं रचना, ज्योति की माँ)

आज मैंने अपनी बेटी को यौन सुख लेने की अनुमति दे दी थी. मेरी नजरों में अपने प्रेमी के साथ किया गया यह कृत्य कभी बुरा नहीं हो सकता. नियति ने हमारे यौनांग इसीलिए बनाएं हैं. प्रेम पूर्वक उनका उपयोग करना सर्वथा उचित है. आज मेरी प्यारी ज्योति एक नारी की तरह सुख भोगने जा रही थी वह भी अपने प्रेमी के साथ. मुझे अगली सुबह का इंतजार था. ज्योति का पहला अनुभव मेरे लिए तसल्ली देता या प्रश्न चिन्ह यह तो वक्त ही बताता पर मैं भगवान से इस पावन मिलन के सुखमय होने की प्रार्थना कर रही थी.

मुझे अपने कॉलेज के दिन याद आने लगे थे. ज्योति के पिता रजनीश से कॉलेज फंक्शन में हुई मुलाकात कॉफी हाउस तक जा पहुंची थी. मेरी सुंदरता ने उन्हें मेरी ओर आकर्षित कर लिया था. मैं अभी मुश्किल से 20 वर्ष की हुई थी तभी उनके प्रेम ने मुझे अपना कौमार्य खोने पर विवश कर दिया. वह दिन मुझे अभी भी याद है जब कुमाऊं में मेला लगा हुआ था. वह मेले के प्रभारी थे. मैं अपनी सहेलियों के साथ मेला देखने पहुंची हुई थी.

कुछ ही देर में कई सारे सिपाही भव्य व्यवस्था के साथ मेरी सहेलियों को मेंला घुमाने निकल गए और मैं रजनीश के साथ उनके ऑफिस में आ गयी. उनके ऑफिस में आराम करने के लिए एक बिस्तर भी लगा हुआ था. हम दोनों में आग बराबर लगी हुई थी. हमारे पास वक्त भी कम था. जब तक मेरी सहेलियां मेले में झूला झूल रही थीं मैंने भी ज्योति के पिता के साथ प्रेमझूला झूल लिया. मेरा पहला संभोग यादगार था.

संभोग के उपरांत वह मुझे लेकर बाहर आए और मेले में लगे एक विशेष दुकान से हाथी दांत के बने 2 पेंडेंट खरीदे जो एक दूसरे के पूरक थे. उन दोनों को साथ में रखने पर वह एक दिल के आकार में दिखाई पड़ते और अलग करते ही दो टुकड़ों में बट जाते. दोनों टुकड़े अलग होने के बावजूद उतने ही खूबसूरत लगते. पर जब वह जुड़ जाते हैं उनकी खूबसूरती अद्भुत हो जाती.

रजनीश ने लॉकेट का एक भाग अपने पास रख लिया और दूसरा मुझे दिया उन्होंने कहा

"रजनी, मैंने अपने दिल का आधा टुकड़ा तुम्हें दिया है, हम दोनों जल्दी ही एक होंगे."

मैंने उनसे दो वर्ष की अनुमति मांगी ताकि मेरी पढ़ाई पूरी हो सके. वह मान गए हम दोनों का प्रेम परवान चढ़ने लगा. अगले एक महीने में मैं और रजनीश दोनों ने जी भर कर संभोग सुख लिया. हमारी अगली मुलाकात में वह दो सोने की चेन भी ले आए थे. हमने अद्भुत लॉकेट को अपने अपने गले में डाल दिया. जब भी हम संभोग करते वह लॉकेट एक दूसरे से सट जाते थे. मुझे लगता था जैसे उसमें चुंबक का भी प्रयोग किया गया था.

मैं लॉकेट की खूबसूरती में खोई हुई थी तभी दरवाजे पर घंटी बजी रजनीश आ चुके थे. मैं ज्योति के बारे में सोचती हुयी उनकी खातिरदारी में लग गयी. आज मेरा मन भी युवा हो चला था. मैं रजनी के पिता के साथ आज रात रंगीन करने के लिए उत्सुक थी.

(मनीष का घर)

(मैं जीवन)

मैंने अपने सपने में भी नहीं सोचा था की मुझे ज्योति जैसी सुंदर और सुशील प्रेमिका मिलेगी. मैं एक गरीब परिवार से आया हुआ लड़का था. मेरे माता पिता काफी गरीब थे उन्होंने मेरा लालन-पालन किया पर अपनी हैसियत के अनुसार ही.

भगवान ने मेरे लिए कुछ और ही सोच रखा था. जैसे जैसे मैं पढ़ता गया मेरी काबिलियत मुझे आगे लाती गयी. दसवीं कक्षा तक आते-आते मुझे कई स्कॉलरशिप मिलने लगी जिसकी बदौलत मैं इस सभ्रांत स्कूल में आ चुका था.

ज्योति एक अप्सरा की तरह थी. वह मुझे पूरी तरह समझती थी और मैं उसे. हम दोनों के प्यार में वासना का स्थान नहीं था. परंतु जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे ज्योति की काया अद्भुत रूप ले रही थी. समय के साथ उसमें कामुकता स्वतः ही फूट रही थी. सारे कॉलेज का ध्यान उसके स्तनों और नितंबों पर रहता मैं भी उनसे अछूता नहीं था.

उस दिन जब मैंने ज्योति को पहली बार चुंबन दिया था वह मेरे आलिंगन में आ गई थी. मेरे हाथ स्वतः उसकी पीठ पर होते हुए उसके मादक नितंबों तक पहुंच चुके थे. हम दोनों एक दूसरे से सटे हुए थे. उसके कोमल स्तनों का मेरे सीने पर स्पर्श और कठोर निप्पलों की चुभन मैं आज तक नहीं भूलता. जितना ही उस कोमलता को मैं महसूस करता मेरा राजकुमार (लिंग)उतना ही उत्तेजित होता.

आज इस वैलेंटाइन डे पर हम दोनों एक होने वाले थे. ज्योति ने आज लहंगा और चोली पहना हुआ था वह उसमें अत्यंत खूबसूरत लग रही थी. पार्टी शुरु हो चुकी थी. सामने बैठी हुई तीनों हसीनाएं एक से एक बढ़कर एक थी पर ज्योति उन सब में निराली थी. मनीष ने आज रेड वाइन मंगाई थी. हम सभी थोड़ी-थोड़ी रेड वाइन लेने लगे.

ज्योति ने भी अपने हाथों में रेड वाइन ली हुई थी. जैसे ही उसने रेड वाइन अपने मुख में लिया मुझे एक पल के लिए प्रतीत हुआ जैसे लाल रंग की रेड वाइन उसके गले से उतर रही हो और उतरते समय उसके गले से दिखाई पड़ रही थी. इतनी सुंदर और कोमल काया ज्योति की.

मैंने और ज्योति ने अपने दोस्तों का साथ देने के लिए कुछ घूंट रेड वाइन के पी लिए पर हम दोनों पर अलग ही नशा सवार था.

आज हमारा मिलन का दिन था कुछ देर की हंसी ठिठोली के पश्चात हम सभी अपने अपने कमरों में जाने लगे. मैं अपने कमरे में आ चुका था ज्योति अभी भी बाहर थी. कुछ ही देर में रश्मि और मनीषा ज्योति को लेकर मेरे कमरे में हंसते हुए आयीं और हम दोनों को ऑल द बेस्ट कहा तथा दरवाजा बंद कर दिया.

मैं ज्योति के चेहरे की तरफ देख रहा था और वह नजरें झुकाए खड़ी थी. हमारे पैर स्वतः ही आगे बढ़ते गए और कुछ ही देर में ज्योति मेरी बाहों में थी.

कमरे का बिस्तर करीने से सजा हुआ था ऐसा लगता था मैने और मनीष ने इसे सजाया था. बिस्तर पर फूल बिखरे हुए थे लाल रंग का सुनहरा तकिया उसकी खूबसूरती बढ़ा रहा था. जैसे-जैसे मैं ज्योति को छूता गया वह मेरी बाहों में पिघलती गई. अचानक ही कमरे की बत्ती गुल हो गई. बाहर से मनीष की आवाज आई. जीवन परेशान मत होना लाइट गई हुई है कुछ देर में आ जाएगी. मैं और ज्योति अब ज्यादा आरामदायक स्थिति में थे.

अंधेरा शर्म को हटा देता है हमारे कपड़े स्वतः ही मेरे शरीर से अलग होते गए. मैं ज्योति को लगातार चूमे जा रहा था. हमारे हाथ कभी ऊपर होते कभी साइड में वह सिर्फ हमारे वस्त्रों को बाहर निकालने के लिए अलग हो रहे थे. कुछ ही देर में हम दोनों पूर्णता नग्न हो चुके थे.

ज्योति के स्तन मेरे सीने से सटे हुए थे कुछ ही पलों में मैं और ज्योति संभोग की अवस्था मैं आ गए. अपने राजकुमार को उसकी मुनिया के मुख पर रखकर मैंने ज्योति के होठों का चुंबन लिया तथा अपने राजकुमार का दबाव बढ़ा दिया एक मीठी से दर्द के साथ ज्योति ने अपना कौमार्य खो दिया. उसी दौरान लाइट आ गई हम दोनों बत्ती बुझाना भूल गये थे. कमरे की चमकदार रोशनी में ज्योति का खूबसूरत चेहरा मुझे दिखाई पड़ गया. उसकी आंखों से आंसू थे.

अचानक ज्योति चौक उठी. उसके गले में पड़ी हुई चैन का पेंडेंट मेरे गले में पड़े हुए पेंडेंट से चिपक गया था. यह दोनों मिलकर एक दिल की आकृति बना रहे थे. यह पेंडेंट बचपन से मेरे गले में था जिसे मेरी मां ने काले धागे में डालकर पहनाया हुआ था. उसने मुझे यह हिदायत भी दी थी कि कभी इसे अपने शरीर से अलग मत करना.

हम दोनों पेंडेंट के मिलन से आश्चर्यचकित थे नियत ने यह कैसा संयोग बनाया था मैं और ज्योति दो अलग-अलग शहरों से आए हुए थे पर हमारे पेंडेंट एक दूसरे के पूरक थे. हकीकत तो यह भी थी कि मैं और ज्योति भी अब एक दूसरे के पूरक हो चुके थे. मेरे गले का पेंडेंट ज्योति के पेंडेंट से सटा हुआ था. हम दोनों एक दूसरे की तरफ मुस्कुराए और हमारी कमर में हलचल शुरू हो गयी.

ज्योति की आंखों का आंसू सूख चुका था और उस पर खुशी के आंसू ने अपना प्रभाव जमा लिया था कुछ ही देर में हम दोनों एक दूसरे को चूमते हुए स्खलित हो गए.

मैं इस संभोग के लिए कंडोम लेकर आया था पर पता नहीं न वह ज्योति को याद आया और ना मुझे. ज्योति की मुनिया मेरे प्रेम रस से भीग चुकी थी. मुनिया से निकला हुआ प्रथम मिलन का रक्त मेरे श्वेत धवल वीर्य से मिलकर अपनी लालिमा खो रहा था. ज्योति हांफ रही थी और मैं उसे प्यार से चूमे जा रहा था. हम दोनों के लॉकेट अभी भी सटे हुए थे.

(मैं रचना)

आज रजनीश की बाहों में आने के बाद मुझे एक बार फिर कुमायूं में हुआ हमारा पहला मिलन याद आ गया. रजनीश ने मेरे गले में पड़े मंगलसूत्र को देखा अरे तुम्हारे गले का वह लॉकेट कहां गया. मैंने उसे ज्योति को उसके जन्मदिन पर गिफ्ट कर दिया. वैसे भी वह हमें बार-बार पुराने जख्म याद दिलाता था.

"हां तुम्हारी बात तो सच है पर उस मासूम का चेहरा मेरी आंखों से आज भी नहीं भूलता. कैसे कुछ ही दिनों में सब कुछ बदल गया था."

मैंने और रजनीश ने अपने प्रथम संभोग के बाद कई दिनों तक लगातार संभोग सुख लिया था. हम दोनों ही परिवार नियोजन या इससे संबंधित किसी उपाय के बारे में नहीं जानते थे. इस लगातार संभोग से मैं गर्भवती हो गई. मेरी पढ़ाई अभी पूरी नहीं हुई थी अतः विवाह संभव नहीं था. मेरे पिता राम रतन को यदि इस बात की जानकारी होती तो घर में एक तूफान खड़ा होता. जब वो घर आने वाले होते मेरी मां मुझे मामा के घर भेज देती जो कुमाऊ से कुछ ही दूरी पर था. मेरे मामा और मामी की कोई औलाद नहीं थी. धीरे-धीरे 9 महीने बीत गए. मेरी मां को मेरे और रजनीश के संबंधों की पूरी जानकारी थी. मेरी डिलीवरी का वक्त नजदीक आ चुका था पिताजी का घर आने का संदेश आते ही उन्होंने एक बार मुझे मामा के घर भेज दिया. रजनीश पूरे समय मेरे साथ थे मैंने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया था उसका नाम हमने जगत रखा था. एक हफ्ते रहने के बाद रजनीश वहां से चले आए पर आते वक्त उन्होंने अपने गले में पड़ा हुआ लाकेट हमारे पुत्र के गले में डाल दिया.

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