एक नौजवान के कारनामे 132

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तुम्हारे ही लिए आया हूँ.
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Part 132 of the 278 part series

Updated 04/23/2024
Created 04/20/2021
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पड़ोसियों के साथ एक नौजवान के कारनामे

VOLUME II

विवाह

CHAPTER-1

PART 54

तुम्हारे ही लिए आया हूँ

जब मैंने उसे कहा चले वह मेरी और देखने लगी ।

नर्तकी-तुम कुछ अलग हो यहाँ पैसे देने वाले यो बहुत हैं पर दारु पिलाने वाला अकेला तू ही मिला ।

मैं-और पीयेगी मैंने फिर पुछा और पीनी है?

तो मेरी बात सुन कर वह तरुण नर्तकी हंस दी तो उसके उज्ज्वल सफ़ेद दांतो की माला से बिजली-सी कौंध उठी। उसने बोतल फेंक मेरे गले में अपनी बाहें डालकर कहा-"चलो।"

मैं-चलो ।

दोनों परस्पर आलिंगित होकर एक ओर को तेजी से चल दिए। सब भीड़ पीछे रह गयी निश्चित तौर पर मेरे पीछे आ रही मरीना, ईशा और अन्य अंगरक्षको ने भीड़ को रोक दिया होगा।

नर्तकी-तुम्हे पहले कभी नहीं देखा यहाँ?

मैं-मैं यहाँ का नहीं हूँ।

नर्तकी-तो कहाँ के हो?

मैं-मैं पंजाब में जन्म हुआ और अभी सूरत गुजरात से आया हूँ ।

नर्तकी-यहाँ हिमालय राजधानी में क्या करने आये हो?

मैं-तुम्हारे ही लिए आया हूँ! मैंने हंसकर उसे और कसकर अपनी छाती से सटा लिया।

तरुणी ने उसे मुझे थोड़ा दूर धकेलते हुए कहाः

नर्तकी--चल झूठा सच बोल।

मैं-अब तो सच यही है, मैं तुझ पर मोहित हो गया हूँ।

नर्तकी-कब से?

मैं-जब से तुझे पहली बार देख है उसी क्षण से।

नर्तकी-और पहली बार कब देखा तुमने मुझे ।

मैं-जब तुम अभी थोड़ी देर पहले चौक में नाच रही थी ।

मेरी ये बात सुनकर वह थोड़ी-सी चकित हो मुझे देखने लगी और बोली:

नर्तकी-बड़ा हिम्मती है, तू तो ।

मैं-हम्म! तेरा अध्भुत रूप देख हिम्मत आ गयी ।

मैंने उसे पुछा-तुम्हारा नाम क्या है?

नर्तकी-दीप्ति और तुम्हारा?

मैं-दीपक मैं मुस्कुराते हुए बोला ।

दीप्ति-फिर झूठ!

मैं-सच मेरा नाम दीपक है और मैंने अपना आइडेंटिटी कार्ड उसे दिखा दिया ।

दीप्ति-यहाँ क्यों आये थे?

मैं-मेरे भाई की बारात में आया हूँ ।

दीप्ति-इस समय तो यहाँ केवल महाराज कुमारी का विवाह है ।

मैं-मैं दूल्हे का चचेरा भाई हूँ ।

दीप्ति-राजकुमार! तो आप राजकुमार हो । फिर तो आप हमारे लिए पूजनीय हो गए. आप तो हमारे महाराज के जमाता के भाई हो ।

वो तू से आप पर आ गयी ।

दीप्ति-तो उधर चलो।

मैं-क्या ग्राम में या अपने घर ले जाओगी?

दीप्ति-नहीं, आप मेरे साथ पर्वत के ऊपर के उस भाग में चलो।

मैं-वहाँ क्या है?

दीप्ति-पर्वत के ऊपर बिलकुल निर्जन जंगल है, फलदार वृक्ष हैं पेड़ो की घनी छाया है, एक तालाब है, उसमें कमल खिले हैं। चलो वही रमण करेंगे,।

मैं-तो फिर चलो।

हम दोनों हाथो में हाथ डाल कर उस घने जंगल में घुस गए।

दोनों पर्वत पर चढ़ गए और पर्वत के ऊपर बड़ा-सा वह भाग निर्जन और वहाँ सघन जंगल था। वहाँ निर्मल जल का सरोवर था, सरोवर में कमल खिले थे और सरोवर के आसपास और भी बहुत से फूल खिले हुए थे और फलदार वृक्ष भी लगे हुए थे।

बड़े और लम्बे पेड़ो की छाया के बीच से दोपहर की धूप छनकर-शीतल होकर सोना--सा बिखेर रही थी। धीरे-धीरे और मीठी ठंडी हवा चल रही थी। तालाब में बत्तखे हंस और सारस, इत्यादि पक्षी तैर रहे थे और बहुत सारी मछलिया थी। तरुणी तालाब से थोड़ा दूर एक विशाल वृक्ष के नीचे सूखे पत्तों पर लेट गई। हंसते हुए उसने कहा

दीप्ति-अब तो मुझे भूख लगी है।

मैंने गर्दन ऊंची कर इधर-उधर देखा और लम्बे-लम्बे कदमो के साथ जंगल में घुस गया।

कुछ मछलिया तालाब से पकड़ी और कुछ फल वृक्षों से तोड़े, कुछ कंद मूल ढूँढें निकाले और उन्हें ले कर उसके पास जल्द ही लौट आया।

तरुणी ने फुर्ती से सूखे ईंधन की इकठा किया और मैंने लाइटर जला कर आग लगा दी।

मैंने मछली के मांस के टुकड़े किए। और फिर दोनों ने मांस और फल कंद मूल भून-भूनकर खाना आरम्भ किया। दीप्ति बहत भूखी थी, वह मजे ले-ले कर मछली का भुना हुआ मांस, फल और कंदमूल खाने लगी। कभी आधा मांस का टुकड़ा खाकर वह मेरे मुंह में ठूस देती, कभी मेरे हाथों में दे देती और कभी हाथो से छीनकर स्वयं खा जाती।

खा-पीकर तृप्त होकर वह मेरी जांघ पर सिर रखकर लेट गई। दोनों भुजाएँ ऊंची करके उसने मेरी कमर में लपेट ली। वह बोली-"बड़े होशियार हो आप, बड़ी जल्दी खाना जुटा लाये।" "मुझे ज्यादा प्रयास करना ही नहीं पड़ा। मछलिया सहज ही पकड़ी गयी और फलो की तो यहाँ भरमार है।" मैंने हंसकर कहा।

मैं-दीप्ति! ये स्थान इतना अच्छा है मछलिया, फल फूल हैं फिर भी निर्जन क्यों है?

दीप्ति-यहाँ सबको आने की आज्ञा नहीं है ।

मैं-तो तुम कैसे आ गयी ।

दीप्ति-ये हमारे परिवार का स्थान है ।

मुझे मस्ती सूझी।

मैं-दीप्ति! हमारे यहाँ तो खाने के बाद मीठा खाने का चलन है।

दीप्ति-हाँ गुजराती तो खाने में मीठे का प्रयोग कुछ ज्यादा ही करते हैं । अब यहाँ मीठा कहाँ मिलेगा?

मैं-मिलेगा, दीप्ति! मीठा मिलेगा । तुम आँखे बंद करो और एक मिनट बाद खोल देना ।

मैंने एक मीठे फल का टुकड़ा उठाया और आधा मुँह में रख कर उसे दिखाया और ऐसे ही फल मुँह में पकड़ अपना मुँह उसके मुँह के पास ले गया ।

उसने झट मुँह के साथ मुँह लगा दिया और फल खाने लगी तो मैंने फल तो नहीं छोड़ा बल्कि उसका सर पकड़ कर उसको चूमने लगा । वह गू-गू गू करने लगी पर मैंने उसे नहीं छोड़ा और फिर दोनों एक साथ मिल कर फल खाने लगे और फल को चबा कर मैंने फल की लुगदी को दीप्ति के मुँह में धकेल दिया और उसने भी थोड़ा चबाया और फल को वापिस मेरे मुँह में धकेल दिया । इस तरह एक दुसरे में मुँह में हम फल धकेलते हुए फल खाने लगे ।

फिर मैंने अपने होठं दीप्ति के होठ से लगा दिये और एक किस ले लिया। फिर दीप्ति ने भी अपने हाथ मेरी गर्दन के पीछे ले जाकर मेरा मुँह को अपनी तरफ खीचा और अपनी जीभ निकाल कर मेरे होंठो पर जीभ फिराने लगी। उसके थोडी देर इसी तरह से जीभ फिराने के बाद मैंने उसका निचला होंठ अपने होंठो के बीच पकड लिया और फिर उस पर जीभ फिराने लगा।

मैं उसके होंठो को चुसने से पहले मैं गीला कर देना चाहता था। थोडी देर तक इसी तरह उसके होंठो को गिला करने के बाद मैने उसके होंठ चुसने शुरू कर दिये। मैं बहुत जोर-जोर से उसके होंठो को चूस रहा था। इस बीच दीप्ति भी अपनी जीभ निकाल कर मेरे उपरी होंठ के उपर फिरा रही थी और साथ ही साथ अपना बहुत-सा थूक और फल की लुगदी अपने नीचले होंठ के पास जमा कर रही थी जिस से मैं ज्यादा से ज्यादा उसके स्वादिष्ट थूक को पी सकूँ। मैं भी हर थोडी देर में नीचले होंठ को छोड कर उसका थूक अपनी जीभ की मदद से उसके होंठो पर मलने लगता और अच्छी तरह से मल कर फिर से उसके होंठ को चुसने लगता करीब 5-6 मिनट तक मैं ऐसा ही उसके साथ करता रहा।

फिर उसने मेरा निचला होंठ छोड कर मेरा उपरी होंठ अपने दोनों होंठो के बीच पकड लिया और उसको भी अपने थूक से गीला कर दिया। दीप्ति ने भी मेरा नीचला होंठ अपने थूक से गिला कर दिया था। थोडी देर तक वह मेरे होंठ को गीला करती रही और-और मैं उसके ओंठ चुसता रहा फिर एक दम से मैंने अपनी जीभ को नुकीला कर के उसके दाँतों और होंठो के बीच डाल दी और उसके दाँतों पर फिराने लगा। वोह भी अपनी जीभ को नुकीली बना कर मेरे जीभ के नीचे गोल-गोल घुमाने लगी। जिससे उसकी जीभ से लार और फली को लुगदी निकल कर मेरे मुहँ में गिरने लगी और मेरी जीभ के नीचे जमा होने लगी।

थोडी देर इसी तरह से उसके दाँत और होंठ के बीच की और उसके जीभ से टपकती लार मेरे मुँह में जमा हो गयी। फिर मैंने दीप्ति के होंठ मुँह में लेकर चूसने लगा तथा साथ ही साथ मुँह के अन्दर जमी स्वादिष्ट लार में से थोड़ी-सी लार को भी मैं पी गया। । फिर थोडी देर बाद मैंने बची हुई लुगदी और लार दीप्ति के मुँह में जीभ के साथ सरका दी और उसे मजबूर कर दिया की वह उसे पी ले । उसके पीने तक-तक इसी तरह मैं उसका होंठ चुसता और लार उसके मुँह में डालता रहा। फिर दीप्ति ने आखरी बार मेरे होंठो पर अपने होठ रखे और एक गहरा चुम्बन लेकर मेरे से अलग हो गयी। फिर मैंने पूछा कैसा लेगा खाने के बाद मीठा मजा आया दीप्ति?

"अरे वाह प्रिय!" तरुणी हर्षोल्लास से चीख उठी। आनन्दातिरेक से उसने धक्का देकर मेरे को भूमि पर गिरा दिया। फिर मेरे वक्ष पर अपने यौवन के कलश सटाकर मेरे अधर चूमकर बोली ये चुंबन अध्भुत था । मजा आ गया । बड़ा अच्छा चुम्बन किया आपने । किससे से सीखा?

"उसे अपने आगोश में समेटता हुआ मैं बोला-" दीप्ति तू मेरी हो जा, जो जानता हूँ सब सीखा दूंगा । सीखा क्या दूंगा सब तेरे साथ करूँगा और मैंने दोनों भुजाओं में उसे लपेट अपने वक्ष में दबोच लिया और उसकी जांघो को-को अपनी सुपुष्ट जंघाओं में लपेटते हुए बोला-"तब तो तू मेरी ही है।" उसने अपना शरीर मेरे को अर्पण करते हुए आवेशित गर्म श्वास लेते हुए कहा-"हाँ अब मैं तेरी हूँ। आप मेरे साथ जो चाहे सो करो, जैसे चाहो स्वच्छन्द रमण करो, मुझे प्यार करो।"

कहानी जारी रहेगी

दीपक कुमार

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