एक नौजवान के कारनामे 133

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जल क्रीड़ा
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Part 133 of the 278 part series

Updated 04/23/2024
Created 04/20/2021
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पड़ोसियों के साथ एक नौजवान के कारनामे

VOLUME II

विवाह

CHAPTER-1

PART 55

जल क्रीड़ा​

मैंने उसके चेहरे पर एक ऊँगली फिराई और फिर उसके चेहरे को हाथों में लेकर उसके होंठों पर एक गहरा चुम्बन किया।

मैंने अपने दांत तरुणी दीप्ति के दांतों पर रगड़ते हए कहा। मैं तुम्हारे साथ मैं जो चाहे सो करूँ जैसे मेरा मन होगा वैसे तेरे साथ रमण करूँ?

उसने आँखे बंद कर सहमति दी।

मैं-दीप्ति, तुम मुझे बहुत अच्छी लगी।

जवाब में दीप्ति खिलखिला कर हंस दी।

दीप्ति-झूट, मुझ से पहले कितनी लड़कियों तुम्हे अच्छी लगी? मुझमे ऐसा क्या लगा?

मैं-तुमसे सच बोलूंगा तुम्हारी बात सबसे अलग है । तुम बहुत सुंदर हो और मुझे दुनिया की सबसे सुन्दर लड़की लगती हो!

मैं दीप्ति को देखने लगा उसके होंठो पर एक बहुत हलकी-सी मुस्कान आ गयी और उसके गाल थोड़े और गुलाबी से हो गए। उसकी सरल मुस्कान, उसकी चंचल चितवन, लम्बे बाल और उसके सुन्दर चेहरे पर उन बालों की एक दो लटें, उसकी सुन्दरता को और बढ़ा रहे थे। पतली, लेकिन लम्बी और स्वस्थ बाहें। उसकी चोली से साफ़ पता लग रहा था कि उसके स्तन भी बहुत शानदार हैं । बड़े-बड़े गोल और दृढ़ लेकिन तरुण स्तन, जैसे मानो बड़े आकार के अनार हों। स्वस्थ, गोल और युवा नितम्ब। साफ़ और सुन्दर आँखें, भरे हुए होंठ-बाल-सुलभ अठखेलियाँ भरते हुए और उनके अन्दर सफ़ेद दांत!। रंग साफ़ और गोरा पहाड़ी चेहरे वाली, आँखें काली या गहरी भूरी, लाल रंग के भरे हुए होंठ और अन्दर सफ़ेद दांत की माला, एक बेहद प्यारी-सी छोटी-सी तीखी नाक और पहाड़ी लालिमा हुए गाल! उम्र अट्ठारह की पर लगती थी षोडशी जैसी भोली किन्तु तेज तरार ।

दीप्ति का मतलब होता है ज्योति वैसी ही मन को प्रकाशमान और आराम देने वाली करने वाली सुन्दरता! प्रकाश में जैसे सभी रंग विधमान होते हैं वैसे ही मेरे मन में पल-पल नए-नए रंग भरती हुई दीप्ति का व्तक्तित्व था । उसकी सुन्दरता और उसके स्वभाव के भोलेपन और जैसी वह बेबाक थी और इसमें कोई आश्चर्य नहीं था कि मैं उस पर मोहित हो गया था ।

ठंडी ठंडी हवा चल रही थी और घने पेड़ो के बीच में से दोपहर की धुप छन कर आ रही थी और उस हवा की आद्रता माहौल को मनोरम बना रही थी ।

शिरीष के वृक्ष की सघन छाया में से छनकर दोपहर की सुनहरी धूप उनके अनावृत और वस्त्रो रहित सुंदर अंगों पर पड़ रही थी। उस तालाब में-में पक्षी कलरव कर रहे थे। ऍम दोनों निश्चल, उस निर्जन वन में सुखी हुई नरम पत्तियों और शिरीष के फूलो के ढेर के ऊपर लेटे हुए आपस में चिपके हुए एक दूसरे में समाए हुए आनन्दातिरेक से लिपटे हुए पड़े थे। शिरीष के फूल उसके ऊपर गिर रहे थे ।

दीप्ति ने मेरे कान में ओंठ लगाकर कहा-" अब उठो।

मैं दीप्ति के होंठों पर होंठ रखकर उसके स्तनों पर अपने स्तनों का भार डालते हुए होंठों ही में कहा-" थोड़ा ठहरो।

दीप्ति-अभी नहीं। देखो सूर्य की किरणें तिरछी हो चलीं हैं। "

उसने मेरे को धकेलकर अपने से पृथक् किया और हंसती हुई मुझे खींचकर तालाब में ले गयी और खुद जल में उतर गई। फिर हम दोनों उस निर्जन वन के उस शांत तालाब के शुद्ध ठन्डे जल में क्रीड़ा करने लगे। हमारे जल में उतरते ही उस शांत तालाब का जल जीवंत हो उठा और जल में तरंगे उठने लगी और कलरव कर रहे पक्षी उड़ने लगे वे सभी पक्षी जल क्रीड़ा कर रहे हम दोनों साथी और साक्षी थे और हम दोनों एक दुसरे के पूरक थे ।

मैंने जल की कुछ अंजुलिया भर के दीप्ति पर डाला तो उसने भी जल की बौछार मार कर मुझे पानी से भिगो दिया। हम दोनों तालाब के जल में मछली जैसे विचरने लगे। फिर दीप्ति जल में डुबकी लगायी तो मैं उसे ढूँढ़ लाया। फिर दोनों तैरते हुए दूर तक चले गए और उसके बाद दोनों एक साथ चिपक कर बहुत देर तक तैरते रहे। एक साथ तैरते हुए कभी हमारे वक्ष परस्पर टकराये तो कभी हमारे ओंठ आपस में चिपक जाते। जब मस्ती में भर कर दीप्ति ने जल की बौछार मेरे पर मारी तो मैं उसके पीछे लपका तो वह तो हाथ नहीं आयी पर उसकी छोटी-सी चोली या अंगिया खुल कर मेरे हाथ में आ गयी। वह मेरी अंगिया दो बोलती हुई मेरे पीछे लपकी मैंने नहीं दिए तो मेरे कपडे खींच कर मेरे बदन से अलग कर दिए और मैंने भी उसकी छोटी-सी घाघरी जो उसने कमर के नीचे पहनी हुई थी वह खींची और उतार दी । अब हम दोनों तालाब के जल में बिकुल नंगे थे ।

मैंने उसके निर्वसन-अनावृत शरीर को अपनी दोनों बलिष्ठ भुजाओं में सिर से ऊंचा उठाकर ज़ोर से किलकारी मार जल में अपने साथ चिपका कर लिटा लिया। हम दोनों जल में ऐसे ही खेलते रहे और सूर्य क्षितिज पर अस्त होने जाने लगा। जलक्रीड़ा बहुत देर करने के कारण थकी हुई दीप्ति ने मेरा हाथ थाम लिए और तालाब के जल से बाहर निकली। पानी की बूंदे हम दोनों के पानी में भीगे हुए अंगों पर से फिसल-फिसल कर मोती की भांति इधर-उधर जमीन पर बिखरने लगी जिससे हम जिस मार्ग से तालाब में से निकले थे उस मार्ग में पानी की कतारे बन गयी थी।

जब वह ताल से निकली तो वह इस समय ओस में भीगी नाज़ुक पंखुड़ी वाले गुलाबी कमल के फूल के जैसे लग रही थी! मैंने पहली बार पूर्णतया नग्न, खड़ा हुआ देखा। मैंने उसके नग्न शरीर की परिपूर्णता की मन ही मन प्रशंशा की। उसके शरीर पर वसा की अनावश्यक मात्रा बिलकुल भी नहीं थी। उसके गोरी चिकनी जांघे और टाँगे दृढ़ मांस-पेशियों की बनी हुई थीं। मेरे लिंग में उत्थान आने लगा।

वह तालाब के किनारे एक शिला पर थकान और आलस के भाव से चित्त लेट गई। अपराह्न की पीली धूप उसके सम्पूर्ण निर्वस्त्र शरीर पर फैल गई। मैं भी उसके पीछे-पीछे वहीं आ खड़ा हुआ। पानी मेरे बदन से भी टपक रहा था। मैं अपनी बाहो में बहुत सारे कमल के फूल तालाब में से इकठे कर लाया था। उन्हें मैंने दीप्ति पर बिखेर दिया।

कहानी जारी रहेगी

दीपक कुमार

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