सुधीर व मुमताज - एक नया अनुभव

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Rahul planned a night out to see transgender.
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सुधीर किसी उधेड़बुन में अपने माता-पिता के कक्ष के आसपास घूम रहा था, उसकी माताजी ने यह देखकर शंकित भाव से प्रश्न किया, "सुधीर क्या समस्या है, भीतर आकर बताओ", सुधीर ने कक्ष में प्रवेश किया और ऐसा प्रतीत हुआ की जिस प्रश्न का वह मन ही मन में अभ्यास कर रहा था उसे उसने एक श्वांस में ही अपने माता-पिता के समक्ष दोहरा दिया, "मुझे अपने मित्रो के साथ दिल्ली भ्रमण को जाना है, और हम सब मित्र तीन-चार दिवस में घूमकर लौट आएंगे, आपसे आज्ञा व कुछ धन की आवश्यकता है" जैसा की व्यवहार है, पिताजी ने स्पष्ट उसके इस आवेदन को ठुकरा दिया किन्तु माताजी के पुर्नविचार के सुझाव पर उन्होंने पूछा, "क्यों" व किन मित्रो के साथ?"

सुधीर: "आप इन मित्रो को नहीं जानते यह मेरे नए मित्र हैं अभी विश्वविद्यालय में बने है हम लोग एक विशेष आयोजन से वहां जा रहे हैं, इस आयोजन से हमें अपने भविष्य के लिए वैकल्पिक संभावनाओं का ज्ञान होगा" (सुधीर सम्भवतः हर प्रश्न के हल का अभ्यास कर के ही आया था।)

पिताजी: "ठीक है, तुम जा सकते हो, किन्तु अपना ध्यान स्वयं रखना व मैं तुम्हारे ठहरने का प्रबंध तुम्हारे मामाजी के यहाँ कर दूंगा।

सुधीर ने तुरंत पिताजी को टोकते हुए कहा, "नहीं पिताजी, यह उचित नहीं होगा, मेरे साथ और मित्र भी हैं, उन्हें बुरा लगेगा, पहले से ही हमने ठहरने की व्यवस्था कर ली है, चूँकि हम गिनती में ६ व्यक्ति है, प्रत्येक के भाग में मात्र ५०० रूपये की राशि प्रति दिन आ रही है, आने-जाने का शुल्क व खाने-पीने का व्यय मिलकर लगभग रूपये ८०० प्रति व्यक्ति होगा, कुल ४ दिवस का व्यय लगभग ३५०० रूपये होगा, आपसे निवेदन है की आप मुझे आज्ञा दें व ४००० की सहायता राशि प्रधान करें"।

पिताजी:"अच्छा हे पुत्र तुम बड़े हो गए हो, तुम्हे कुछ स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। मैं तुम्हे स्टेशन छोड़ दूंगा व तुम्हारे व्यय हेतु राशि भी दे दूंगा। अपनी माताजी का मोबाइल लेते जाना ताकि तुमसे संपर्क बना रहे व अपने किसी मित्र का भी नंबर दे देना किसी आपात स्थिति में संपर्क के काम आएगा।

सुधीर: "नहीं पिताजी, हम लोग बस से जायेंगे यह हमें अल्पव्ययी पड़ेगा। रही किसी मित्र के नंबर की बात वह अभी मेरे पास किसी का नहीं है मैं आपको यात्रा के समय सूचित कर दूंगा। हम लोग रात्रि को प्रस्थान करेंगे क्योंकि रात्रि में यात्रा सुगम व सरल होती है, व हम लोग एक रात्रि का ठहरने का व्यय भी बचा लेंगें"।

इस प्रकार सुधीर अपने माता पिता की आज्ञा से अगले दिवस की संध्या को दिल्ली के लिए प्रस्थान हेतु अपने गृह से माता-पिता का आशीर्वाद लेकर निकला। यह तो केवल सुधीर ही जानता था की उसका मंतव्य व योजना क्या है। सुधीर के किसी मित्र ने उसे इंटरनेट में कुछ कामुक कहानियाँ व चित्र दिखाए थे, इसमें उसे गुदा मैथुन ने अधिक उत्तेजित किया जिस कारण अब सुधीर हस्तमैथुन भी करने लगा था। यह सारी योजना व विचार उसके स्वयं के थे, वो यह भली भांति जानता था की किसी महिला से उसकी मित्रता इस स्तर तक नहीं पहुँच पायेगी, जहाँ वह उससे से यौन सम्बन्ध बना सके व समलिंगी सम्बन्ध में उसे संकोच व अव्यवहारिक लग रहा था।

अपनी कामुकता व इसका अनुभव करने का विचार सुधीर से वो सब करा करा है जो पहले वह कभी करने की सोच भी सकता था, वो अधिक जोखिम नहीं लेना चाहता था इसलिए उसने वैश्यालय जाने के विचार को सिरे से नकार दिया। सुधीर के स्वयं के अनुभव व मित्रगणों के साथ चर्चाओं से वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि यदि वह किसी नपुंसक (हिज़डा) से संपर्क करे तो कदापि उसे गुदा मैथुन का आनंद व अनुभव हो सके, किन्तु मन में उनको लेकर एक भय भी जो अमूमन प्रत्येक साधारण व्यक्ति के मन में होता है।

बहुत चर्चाओं के पश्चात् सुधीर इस निर्णय पर पहुंचा था अथवा वह यह भी जानता था जो पर्याय हमारे गली मोहल्लों में किसी विवाह या नवजात के जन्म पर शुभकामनाएं व आशीर्वाद देने आती / आते हैं, उनके कुछ कह पाना उसके लिए संभव नहीं था अतः उसने उनसे मिलने का प्रयास वहां जाकर करने का किया जहां वो बहुतायत में हों व उस स्थान में चहलपहल भी हो। ऐसी जगह केवल कोई बस स्टेण्ड या रेलवे स्टेशन ही हो सकते थे। सुधीर अपनी पूरी क्षमता से अपनी बुद्धिबल का प्रयोग कर रहा था। रेलवे स्टेशन में प्लेटफार्म टिकट लेना पड़ेगा व अपने साथ लाये सामान को भी किसी सुरक्षित स्थान में रखना होगा जो की समय व्यर्थ करने जैसा होगा अतः उसने बस स्टैंड का चुनाव किया।

बस स्टैंड पहुँचकर सुधीर ने सर्वप्रथम अपने पिताजी को सूचित किया कि "वो सकुशल बस स्टैंड पहुंच गया है व अभी बस आने में समय है, अब दिल्ली पहुंचकर ही दोबारा सूचित करेगा तथा आप लोग निश्चित हो कर सो जाए"। यह सुनिश्चित करने के पश्चात् कि अब कदापि उसे अपने मातापिता का कोई फोन नहीं आएगा उसने उसे बंद कर के अपने सामान में छुपा कर बस स्टैंड की एक चाय की दूकान में मात्र २० रूपये रात्रि शुल्क के साथ रखवा दिया। सुधीर ने एक चाय बनाने के लिए कहा, व चाय वाले से वार्तालाप के माध्यम से स्थिति व संभावनाओं के विषय में सूचनाएं एकत्रित करने लगा।

सुधीर: भैया, मुझे कोई सुरक्षित स्थान बताइये जहां मैं रात्रि को निडर होकर विश्राम कर सकूँ बिना किसी व्यय के, क्योंकि मेरे पास आधिक धन नहीं है व मेरी बस कल प्रातः ही प्रस्थान करेगी।

चायवाला: भैया आपका सामान मेरे पास यहाँ सुरक्षित है, तुम बाहर पार्क में जाकर सो सकते हैं वहां तुम को कोई भी तंग नहीं करेगा, यहाँ भीतर तो पुलिस व सफाईकर्मी जानबुझकर तंग करेंगे और तुमसे रूपये ऐंठेंगे। तुम उस भीतर के शौचालय का प्रयोग कीजियेगा, बाहर वाले शौचालय में आपराधिक तत्व होते है, काहे को कोई विपदा मोल लेन।

सुधीर: वहां किसी प्रकार का कोई खतरा तो नहीं है, कोई नपुंसक इत्यादि तो नहीं होंगे, मैंने सुना है यहाँ उनकी संख्या बहुतायत में है।

चायवाला: अरे, नहीं भैया वहां अगर इस प्रकार का कोई होगा भी तो वह आपकी विपदा में सहायता ही करेगा, यह लोग हृदय से बहुत अच्छे लोग होते हैं, इनमे से अथवा कोई भी जो आपराधिक या दुष्टप्रवत्ति का होगा वो आपको भीतर नहीं मिलेगा, वो तो बाहर वाले शौचालय में निश्चित ही मिलेगा, इनके ग्राहक इनसे वहीँ मिलते हैं।

सुधीर: यह किस प्रकार का व्यवसाय करते है जो इनके भी ग्राहक होते हैं (सुधीर को इस बात का आभास तो था किन्तु निश्चित नहीं था इसलिए उसने चायवाले को टटोलते हुए और सूचनाएं एकत्रित करने कि चेष्टा की)|

चायवाला: यह लोग देहव्यापार करते है, गांड मरवाते हैं, लंड चूसते है, और बहुत कुछ होता है, असमान्य है किन्तु सत्य है। यहाँ पर हर प्रकार के लोग हैं और हर प्रकार का व्यापार करते हैं, तुम निश्चित हो कर बाहर वाले पार्क मंय आराम करो यदि कोई समस्या हो तो मेरा सन्दर्भ दे देना तो वो भी समाप्त हो जायेगी।

सुधीर: धन्यवाद, अब मैं चलता हूँ इस चाय का दाम में प्रातः आपको चूका दूंग।

यह कहकर सुधीर आगे से घूमकर उसी शौचालय की और चल दिया जिसके लिए चायवाले ने उसे सचेत किया था, रात्रि के नौ बजे का समय था किन्तु शौचालय के समीप ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे की कोई छोटा सा मेला लगा हो, बड़ी चहल पहल थी, सब अव्यवस्थित था कोई भी किसी और के होने से तनिक भी चिंतित नहीं था। कुछ लोग तो खुले में ही मदिरापान कर रहे थे व कुछ लोग चिलम इत्यादि जैसे नशीले पदार्थों का सेवन कर रहे थे, कुछ लोग तो मूत्रालय के भीतर नहीं अपितु बाहर ही खुले में मूत रहे थे।

वातावरण में अनोखी सी गंध थी यह तय कर पाना कठिन था की यह मूत्र की है या मदिरा की या किसी और प्रकार के व्यसन पदार्थ की, जो भी हो निश्चित ही हर व्यक्ति सम्भवत इस गंध के प्रभाव से आसक्ति था। सुधीर भी निश्चित नहीं कर पा रहा था की वह आगे क्या करे, कुछ देर वह वहां खड़ा वहां होने वाली गतिविधियों को देखता रहा, किन्तु उसे वहां कोई दो चार नपुंसक ही दिखे, वह आपस में ही वार्तालाप कर रहे थे व एक-दो मदिरापान कर रहे थे।

सुधीर समझा नहीं पा रहा था की वह क्या करे, इसी उधेड़बुन व स्थिति की आकर्षकता में समय लगभग १० बजे से किंचित ऊपर हो गया था व धीरे-धीरे भीड़ में कमी होने लगी थी। अब जो लोग बाहर खड़े हो कर मूत रहे थे वो निर्भीक होकर अपने लिंग का प्रदर्शन कर रहे थे व लिंग को इस तरह से हिला रहे थे मानो वो कुछ कहना चाह रहे हों, कुछ एक लोग तो अपने लिंग को पकड़कर उन नपुंसकों की और देखते व हँसते।

सुधीर कुछ विचलित हो रहा था उसकी कामुकता संशय में पड़ गई, उसने निश्चय किया जब इतना सब कुछ देख लिया है तो क्यों न शौचालय के भीतर जाकर भी देख ले व स्वयं भी अपने आप को सहज कर ले। इसी उद्देश्य से सुधीर शौचालय की और बढ़ चला, गंध की त्रीवता के साथ साथ अब वह उन्मुक्त लोगो को और समीप से देख पा रहा था, उसके लिए कठिन था किन्तु फिर भी श्वांस को रोककर वह भीतर गया, भीतर का दृश्य देखकर कर वो स्तब्ध रह गया, वापिस बाहर जाने के लिए मुड़ा तो किसी ने मानो उसे निर्देश दिया हो, "मूत ले मूत ले" के स्वर से उसे कुछ साहस आया व कोई स्थान खोजने लगा जहाँ वो मूत्र त्याग कर सके।

किन्तु वहां ऐसा कोई स्थान उसे मिला ही नहीं, हर संभव स्थान पर कोई किसी का लिंग चूस रहा था, कहीं कोई आलिंगन में मुँह में मुँह डालकर चुम्बन कर रहे थे तो कोई गुदा मैथुन कर रहा था, एक दो महिलायें भी वहां थी जिन्होंने वस्त्र तो पहने हुए थे किन्तु एक ने निचे से उठाकर अपनी योनि को किसी के मुँह में लगाया हुआ था व एक महिला दीवार के साथ टिककर अपनी योनि में किसी के लिंग से मंथन करवा रही थी व अपने मुँह से कामुक स्वर निकल रही थी। एक नपुंसक किसी वृद्ध का लिंग चूस रहा था। कहीं कोई गुदा मैथुन कर रहा था, वहां समलिंगी पुरुषों व नपुंसकों को गुदा मैथुन करते देखकर सुधीर थोड़ा असहज हुआ किन्तु शीघ्र ही संतुलित हो गया, अंततः वह ये सब अनुभव करने ही तो इतने प्रायोजन कर के यहाँ आया था।

सुधीर को अपने लिंग में तनाव का आभास हुआ उसे लगा यहाँ अधिक समय रुकना उचित नहीं अतः निर्लज्जता से अपना लिंग निकाल कर शौचालय की दीवार पर ही मूत दिया, उसके सामने खड़े पुरुष ने उसे उसके लिंग की बलिष्ठता का समादर भी किया। सुधीर ने वहां से निकल जाने में ही अपना भला समझा व वो बाहर वाले उद्द्यान की और चल दिया। किन्तु वो समझ नहीं पा रहा था की क्या करे और क्या न करे उसके धैर्य व साहस के मध्य संघर्ष चल रहा था, दिल्ली जाना को केवल एक बहाना था।

उद्द्यान में कम ही लोग थे अधिकतर सोने का प्रयास कर रहे थे, उचित प्रकाश की व्यवस्था से किसी अनहोनी होने की संभावना कम थी, सुधीर ने तय किया चलो सोने का प्रयास करते हैं बाद में देखा जाएगा। वो एक उचित स्थान खोजकर वहां लेटने का प्रयास करने लगा। आसपास कुछ एक लोग थे जिन्हे चिन्हित करना कठिन था, सुधीर विश्राम करने लगा व उसकी आँख लग गयी।

मध्य रात्रि होगी जब किसी ने सुधीर की पीठ को थपथपाया। सुधीर ने नैत्र खोल कर देखा तो चकित रह गया वो एक अधिक आयु की एक नपुंसक है। सुधीर घबरा कर उठ कर बैठ गया और उसने प्रश्न किया, "कहिये?"। नपुंसक ने उत्तर दिया "उसे चायवाले से सब ज्ञात हुआ है, वह उसकी सहायता करना चाहता है क्योंकि अभी यहाँ वर्षा होने वाली है।" सुधीर ने ऊपर की और देखा वो नपुंसक की बात से सहमत हुआ ऊपर नभ में काले बादल मंडरा रहे थे।

नपुंसक ने फिर से सुधीर को ढांढस बंधाया व सुझाव दिया की वह डरे नहीं वो उसकी सहायता करने ही आयी है। उसने सुधीर को इस बात से भी अवगत कार्य की वह उसे लगभग पिछले ३ घंटे से यहाँ वहां विचरते देख रही है। उन दोनों के मध्य हुई वार्तालाप से निष्कर्ष निकला कि सुधीर नपुंसक के घर में रात्रि विश्राम करेगा क्योंकि, वर्षा की सम्भावना के कारण बस स्टैंड के भीतर बहुत भीड़ हो गई थी। चायवाले का सन्दर्भ देकर उस नपुंसक ने सुधीर के मन का भय एक सीमा तक दूर कर दिया था।

कक्ष में प्रवेश करते ही नपुंसक ने सुधीर से अपना परिचय मुमताज़ बता कर कराया। सुधीर मुमताज़ के अबतक के आचरण से सम्मोहित था व अब उसे किसी प्रकार का भय नहीं था, सामने लगी घडी रात्रि के साढ़े बारह का समय हो चूका था। मुमताज़ का कक्ष छोटा था व उसी के भीतर रसोई व मूत्रालय का प्रबंध था, कक्ष में आती गंध से यह ज्ञात हो रहा था। मुमताज़ ने सुधीर से कहा यदि वह स्नान अथवा तरोताजा होना चाहता है तो कक्ष में ही लगे उस आवरण के पीछे जा कर हो सकता है।

सुधीर ने आवरण के पीछे जा कर देखा तो वहां एक जल की हौदी थी व एक बाल्टी, मग और एक बैठने की चौकी। दीवार पर दोनों और रस्सी में वस्त्र व अंतर्वस्त्र लटके हुए थे, सुधीर को समझ नहीं आ रहा था की मूत्र कहाँ करे, उसने मुमताज़ को पुकारा, "आंटी यहाँ तो मूत्र करने का कोई स्थान ही नहीं है, मैं कहाँ करूँ?" बाहर से मुमताज़ ने उत्तर दिया, "वहीँ कोने में जो पानी निकलने के लिए जगह है, वहीँ बैठ कर पेशाब कर ले।" सुधीर के लिए ये न केवल विचित्र था अपितु उसे बैठ कर मूत्र करने का अभ्यास भी नहीं था, उसने खड़े-खड़े ही कोने में जा कर मूत्र त्याग दिया व पुनः आ कर लकड़ी के तख्त पर बैठ गया, यह तख्त बिछोने व बैठने दोनों के काम आता था।

बाहर मुमताज़ अपनी चूड़ियां व गले का हार उतार कर अपने केशों को व्यवस्थित कर रही थी। मुमताज़ ने अपनी साड़ी व चोली उतार कर आवरण के पीछे जाकर सम्भवत उसी रस्सी में टांग दी व बाहर आयी तो केवल पैंटी व पेडेड ब्रा में थी, उसका शरीर भारी था व रंग सांवले से भी गहरा किंतु श्याम नही। मुमताज़ ने एक बड़ी सी मेज जिसमे तीन चार भाग थे को बड़ी सुंदरता व चतुराई से एक व्यवस्थित रसोईघर बना रखा था। उसने चूल्हे को जला कर उसमे चाय का सामान डाला व पुनः आवरण के पीछे चली गई। अब आवरण के पीछे से आने वाले स्वर से स्पष्ट प्रतीत हो रहा था की वो क्या क्या कर रही होगी, उसके मूत्र त्यागने से लेकर शरीर पर जल गिरने तक स्वर स्पष्ट सुना जा सकता था।

कुछ पल पश्चात वह बाहर आयी व चूल्हे की आंच को कम कर पुनः परदे की पीछे चली गयी। सुधीर थोड़ा विचलित था क्योंकि मुमताज़ की पैंटी के अग्र भाग का उठाव सुप्त लिंग के आकर का लग रहा था। हालाँकि जब उसने वस्त्र पहन रखे थे तो वो एक सुडौल वक्षों वाली कोई महिला लग रही थी। जो भी हो निश्चित ही उसके शरीर में एक अद्भुत आकर्षण था जो न किसी स्त्री का था न ही किसी पुरुष का।

सुधीर सही से निर्णय नहीं कर पा रहा था की उसे आंटी कहे या अंकल, उसके अनुसार तो नपुंसक का कोई लिंग ही नहीं होता या होता भी है तो विपरीत लिंग। किन्तु सुधीर मन ही मन में प्रसन्न था की उसका प्रयोजन सफल होता दिख रहा है कुछ नहीं तो कम से कम वो एक नपुंसक से मिल तो पाया व उसे इतना समीप से देख पाया, न केवल देख पाया अपितु उस के साथ उसके कक्ष में कुछ समय भी व्यतीत कर पा रहा है। सुधीर अब प्रसन्न व मुमताज़ के सान्निध्य में आसक्त था।

मुमताज़ आवरण के पीछे से बाहर आयी तो स्फूर्त व आकर्षक लग रही थी, अब उसके चेहरे में कोई भी बनावटी पन नहीं था, उसने एक घुटनो तक की मैक्सी पहनी हुई थी व उसके केश खुले हुए थे। मुमताज़ ने चूल्हे से उतारकर दो पात्रो में चाय डाली व एक कटोरी में थोड़ी से नमकीन डाल कर सुधीर के समीप आकर उस तख्त पर बैठ गई। सुधीर को देखकर मुमताज़ ने मुस्कराकर कहा, " मेरे पास तेरे लिए कपडे तो नहीं है मेरी मैक्सी पहन ले या फिर नंगा ही सो जा मेरे साथ"। फिर दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्कराये व चाय पीने लगे, सुधीर ने दो घूँट चाय पी व आवरण के पीछे चला गया।

कुछ पल पश्चात् जब वह आवरण के पीछे से बाहर आया तो उसके शरीर में मात्र एक जांघिया था व बाकि वस्त्र उसके हाथ मे। वस्त्रो को मुमताज़ को सौंपते हुए कहा "इन्हे संभाल के रख दो कल प्रातः मुझे इन्हे दोबारा पहनना है।" उसके इस विश्वास व साहस ने किंचित मुमताज़ को भी स्तब्ध किया किन्तु उसने मुस्कराकर वस्त्रो को सुरक्षित स्थान पर रख दिया व अब दोनों बिछोने में बैठ कर चाय पीने लगे। मुमताज़ ने सुधीर से प्रश्न किया "कैसा लगा मेरा घर", सुधीर ने भी "अच्छा है" कह कर उत्तर दिया।

मुमताज़ ने सुधीर को समझाया की बाहर वर्षा हो रही है व उसे कल कहीं जाना भी है तो अब उन दोनों को विश्राम करना चाहिए, रात्रि के एक बज चुके हैं। क्योंकि बिछोना एक ही है दोनों को एक ही साथ सोना पड़ेगा, सुधीर का तो समझ आ रहा है की वो किंचित कामुक्त व आसक्त भी है परन्तु मुमताज़ के विषय में कुछ कह पाना कठिन है। दोनों ने सहमति में सर हिलाया व कक्ष के विद्युत प्रकाश को बंद कर के सोने का प्रयास करने लगे। विद्युत प्रकाश न होने पर भी मुमताज़ के कक्ष में लकड़ी के द्वार व खिड़कियों की दरारों से छन-छन कर बाहर के सरकारी खम्बे से पर्याप्त प्रकाश किसी रात्रि दीप जितना प्रवज्जलित था।

मुमताज़ व सुधीर के लिए उस बिछोने में प्रयाप्त स्थान था किन्तु इतना भी नहीं कि दोनों के मध्य एक हाथ जितनी दुरी कायम रख सके। सुधीर दीवार की और सो रहा था वो उस से अधिक दुर नहीं जा सकता था और मुमताज़ की और उसका बिछोने से गिरने का भय। सुधीर को नींद नहीं आ रही थी वो पहले ही लगभग एक घंटे विश्राम कर चूका था और मुमताज़ यद्पि थकी हुई थी किन्तु उसके लिए भी किसी अजनबी के साथ सोना थोड़ा विचलित करने वाला तो है ही। जो भी हो कुछ समय पश्चात वो दोने सो गए।

मध्यरात्रि सुधीर को आभास हुआ की मुमताज़ ने अपनी पीठ उसकी और की हुई है व उसकी श्वांस तेज चल रही है, अल्प-अल्प मुमताज़ अपना निचला भाग सुधीर के अग्र भाग की और ला रही है। सुधीर अल्प कामुकता में सरक कर थोड़ा मुमताज़ के और समीप आ गया व मुमताज़ के उभरे हुए पिछले भाग को अपने अग्र भाग से टकराने लगा। सुधीर को ऐसे प्रतीत हुआ मानो उसका उद्देश्य सफल हो जाएगा। मुमताज़ ने अपने को थोड़ा और पीछे धकेला व अपने नितम्बो को सुधीर के लिंग से चिपका दिया। मुमताज़ की चलती हुई तीव्र श्वास से सुधीर को यह समझने में परेशानी नहीं हुई की मुमताज़ सम्भवतः जगी हुई है व वह ऐसा जान बूझ कर रही है।

सुधीर को कुछ अटपटा तो लग रहा था अनजान व्यक्ति (नपुंसकता से उसे कोई परेशानी नहीं क्योंकि यह तो वह चाहता ही था), अनजान स्थान और सबसे बड़ी दुविधा यह थी की उसे यौन क्रीड़ाओं का कोई अनुभव भी नहीं था, वह तो केवल उत्सुकता व कामुकता से आसक्त होकर यह अनुभव लेने योजनबद्ध हो कर अपने घर से निकला था, बाहर मंद-मंद वर्षा हो रही थी कारणवश दोनों एक जयपुरी रजाई को ओढ़कर सोये हुए हैं। सुधीर ने साहस किया व मन में सोचा अब जो होगा देखा जाएगा जब इतनी दूर आ गए हैं तो गंत्वय के समीप पहुंचकर लौटना केवल मूर्खता है।

सुधीर ने इस तरह का अभिनय किया मानो उसे ठण्ड लग रही है, उसने अपनी टाँगे उसी प्रकार मोड़ ली जिस प्रकार से मुमताज़ ने मोड़ कर अपने नितम्बो के उभार को उसके लिंग से चिपका रखा है अतः वो मुमताज़ से चिपक कर सो रहा है। दोनों की श्वांस तीव्र थी किन्तु दोनों ही सोने का अभिनय करते रहे, मुमताज़ ने करवट बदलने का अभिनय किया व अपनी वस्त्र को इस प्रकार से समेट लिया जिस से उसके नितम्ब एकदम नग्न हो गए| सुधीर को इस बात का आभास नहीं हुआ वो पुनः मुमताज़ से चिपककर सोने का अभिनय करने लगा। अबतक मुमताज़ को आभास हो गया की सुधीर अनाड़ी है किन्तु कामोजित भी अतः यदि वो प्रयास करे तो निश्चित ही वो दोनो इस अवसर का आनंद ले सकते है, सुधीर के चिपकने से मुमताज़ आश्वस्त हो गई की कदापि सुधीर भी यौन सम्बन्ध बनाना चाहता है।

मुमताज़ ने तय किया की अब और स्वांग करने की आवश्यकता है, और घूमकर सुधीर की और पलट गई, उसकी इस हरकत से दोनों की आँखे टकराई व एक दूसरे को मुस्कुराते हुए देखा। मुमताज़ ने अपनी टाँगे सीधी की व सुधीर के और समीप आकर उसे अपने आलिंगन में ऐसे भर लिया जैसे कोई माता अपने शिशु को भरती है, मुमताज़ ने अपने हाथों से सुधीर की पीठ को सहलाना आरम्भ कर दिया व सुधीर को इस प्रकार से दबोच लिया की सुधीर का चेहरा उसके वक्षों के भीतर समा गया, हालांकि मुमताज़ के चुचुक छोटे थे किन्तु इतने भी नहीं की उनका आभास न हो (सुधीर थोड़ा सा व्याकुल हुआ की मुमताज़ के वक्ष उतने सुडोल व बड़े नहीं हैं जितने वो उसके वस्त्रो में प्रतीत हो रहे थे, उसके चुचकों का आकार किसी २०-२२ वर्ष की कन्या की भांति था, सुधीर को यह भ्रान्ति सम्भवतः मुमताज की पेडेड ब्रा के कारण हुई होगी)।

कुछ देर वो ऐसे ही एक दूसरे के शरीर से चिपके रहे मानो उनके शरीर आपस में अपना परिचय एक-दूसरे से करा रहें हों। जब दोनों की शरीरों ने एक दूसरे के आलिंगन को स्वीकार कर लिया तो यह निश्चित हो गया की अब वह कामुक्त हो कर शरीर के उन भागो का भी आनंद लेना चाहते हैं जिनका किसी और परिस्थिति में लेना संभव नहीं है।

सुधीर को श्वांस लेने में कष्ट हो रहा था अतः वो थोड़ा पीछे हुआ व अपने और मुमताज़ के चेहरे से थोड़ी दुरी बना ली किन्तु अभी भी उनके श्वांस एक दूसरे की श्वांस से टकरा रही थी। मुमताज़ ने उचित अवसर देखर रजाई के अंदर ही अपने वस्त्र उतार कर बिछोने के निचे रख दिया व निर्वस्त्र हो गई, सुधीर अभी भी जांघिये में ही था। सुधीर ने भी मुमताज़ की भांति, मुमताज़ की पीठ को सहलाना प्रारम्भ कर दिया, मुमताज़ थोड़ा से निचे की और खिसकी व सुधीर के चेहरे के निकट अपने चेहरे को ले आई। मुमताज़ ने सुधीर की पीठ से हाथ हटाकर उसके सर को सहलाने लगी व मंद मंद उसके चेहरे को चूमने लगी, सुधीर को इसमें आनंद आया। मुमताज़ की टांगों में अपनी टाँगे मिलाकर और समीप होने का प्रयास करने लगा, उसकी इस हरकत से मुमताज़ के मुँह से मंद सा कामुक आह का स्वर निकला व उसका हाथ स्वतः ही सुधीर के सर से हट सुधीर के जांघिये के मध्य जा कर उसके नितम्बो को सहलाने लगा, अब सुधीर के मुँह से कामुक आह निकली व उसने अपने अग्र भाग को मुमताज़ के अग्र भाग के साथ चिपका लिया।

सुधीर को अपनी झांघो में कुछ गिला गिला आभास हुआ मानो कोई द्रव्य रिस कर उसकी झांघो को भिगो रहा है, उसने यह जांचने के लिए की यह द्रव्य क्या है रजाई को निचे खिसकाया दो देख कर दंग रह गया की मुमताज़ निर्वस्त्र है और खिड़की व दरवाजो के दरारों से आते हुए मध्य प्रकाश से वो स्पष्ट देखरहा है की वह लिसलिसा द्रव्य मुमताज़ के लिंग से टपक रहा है। इससे पूर्व की सुधीर कुछ कहता मुमताज़ ने सुधीर का जांघिया भी उतार कर उसे पूर्ण नग्न कर दिया व रजाई खींच कर दोनों को ढक लिया। अब दोने के ही लिंग धीरे धीरे आकर लेने लगे व सुधीर का लिंग से भी लिसलिसा सा द्रव्य बह रहा है।

सुधीर और मुमताज़ के शरीर व मन ने एक दूसरे को स्वीकार कर लिया था यह उनके बहते लिंगद्रव्य से स्पष्ट हो रहा है, मुमताज़ आगे बढ़कर सुधीर के होंठो, नाक व कान को अपने जिव्हा से चाटने लगी व सुधीर मुमताज़ के निवस्त्र नितम्बो पर अपनी हथेली फैराने लगा। दोनों की श्वांस तेज हो रही थी मुख से मंद-मंद आह ओह के कामुक स्वर निकल रहे है। दोनों की जाँघे लिंगद्रव्य के लिसलिसे पन से चिपक रही हैं। तद्पश्चात मुमताज़ ने सुधीर के होठो को अपनी जिव्हा से खोला व उसके मुख के भीतर प्रविष्ट कर दी। बहुत देर तक वह अपनी जिव्हा सुधीर की मुँह के भीतर घूमती रही व बीच-बीच में उसकी जिव्हा को अपनी जिव्हा से चुस्ती।

सुधीर के लिए यह एक नया अनुभव है जबकि मुमताज़ किसी निपुण साथी की तरह उसे कामोत्तोजित कर रही थी, सुधीर किसी भी स्थिति में इस स्वर्णिम पलों को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहता है उसे आभास है की वो केवल एक कम अनुभवी सहभागी है अतः यदि उसे कामुकता के चर्म पर पहुंचना है तो न केवल सहयोग करना होगा अपितु मुमताज़ के क्रियाकलापों को दोहराना भी होगा। सुधीर ने भी अपनी जिव्हा से मुमताज़ की जिव्हा को चूसना आरम्भ कर दिया, इस मुख से मुख के चुम्बन से दोनों के शरीर अकडने लगे व उनके होठों से उनके प्रेम मंथन से रिस्ते हुए उनके लार व थूक से टपकने लगे। दोनों के हथेलियां एक दूसरे के नितम्बो का आकर, गहराई व कोमलता को आभासित करते हुए चुंबनों के त्रीवता व गहराई बढ़ाते चले गए।

जब दोनों एक दूसरे से थोड़े अलग हुए तो उनके मुख से लार टपक रही थी, मुमताज़ ने सुधीर के मुँह से निकलती लार को चाटा तो सुधीर ने भी प्रतियोत्तर में उसकी मुँह से टपकती लार को चाट लिया। सुधीर के लिए यह मदमस्त कर देने वाला एकदम नया अनुभव था। मुमताज़ थोड़ा सा ऊपर खिसकी व सुधीर के सर को पकड़ कर उसके मुँह को अपनी छाती के समीप ले गई, ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कई सदियों बात उसके मुँह से कोई स्वर निकला हो, उसने मंद स्वर में कहा, "इन्हे चुसो"। सुधीर ने बिना पल गंवाएं मुमताज़ के चुचकों को चूसना आरम्भ कर दिया, सुधीर अंदाजा लगा रहा है संभवतः मुमताज़ के चूचक का माप 32B होगा।

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