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Click hereमैं उस वक़्त की कहानी बताने जा रहा हूँ जब मैंने पहली बार अपने आप को वांछित महसूस किया था. यूँ तो मैं वह कार्य कर चूका था जिससे कोई भी बेकाबू युवक बच नहीं पाया था, पर वह दिन अलग थे. तब मुझे सिर्फ यह जानने की उत्सुकता थी की textbooks में जिसे sex कहा जाता है वह वास्तविकता में होता क्या है. और उससे ज़्यादा ज़रूरी, कैसे होता है. क्या करते हैं लड़का और लड़की जब वह अकेले होते हैं?
एक छोटे शहर के, conservative समाज में रहने वाले, छोटे-मोटे business करने वाले के बेटे के लिए, इन सवालों का जवाब मिलना आसान नहीं था. नही मैं दिखने में कुछ ख़ास आकर्षक था. फिर भी, शहर के उन अयोग्य इलाक़ों में, जहां कोई इज़्ज़तदार इंसान पैर नहीं रखता, वहाँ वह आसानी से बिक जाता है, जिसके बारे में हम बात करना पसंद नहीं करते. इन संबंधों के लिए न भावनाएँ ज़रूरी होती हैं, न ही सौंदर्य. और कुछ चंद रुपयों के लिए अपनी ज़रुरत पूरी की जा सकती है. उस बस्ती में मेरा आना जाना खूब सालों तक चला.
कभी कभी लगता था कि शायद इन्ही गुनाहों की सज़ा काट रहा हूँ. एक दिन जब मैं यही अनैतिक काम करने के बाद घर लौटा तो आख़िरकार समझ आया कि सब कुछ बदल चुका था. पापा के चलने के बाद मैं दुकान को संभाल नहीं पाया था. घर बिखरा पड़ा होता था. माँ हार मान चुकी थीं, न कुछ बोलती थीं, न कुछ ठीक से खाती थीं. कुछ वक़्त बाद वह भी पापा के पास चलीं गईं.
इसी बीच, जब एक लड़की से प्यार किया, तो जाती से तल्लीन समाज ने वह जादू दिखाया जिससे वह ग़ायब ही हो गयी. मैं आज तक नहीं जानता वह कहाँ है और कैसी है. लेकिन अब वह बहुत पुरानी बात हो चुकी है. कोई प्यारी सी, आकर्षक लड़की तो दूर की बात, किसी भी लड़की के साथ शाम बिताए अरसा हो गया था.
इस सब के बाद लगा कि इस दुनिया को मेरी ज़रुरत नहीं है. जब मैं किसी के लिए फायदेमंद ही नहीं तो मेरे ज़िंदा रहने का क्या फ़ायदा? अगर मैं यहीं जान दे दूं, तो क़रीबी लोगों की समस्याएँ बढ़ जाएंगी. जाते जाते दूसरों की पीढ़ा क्यों बढ़ाना?
यही सोच कर मैं भाग आया देश के सबसे बड़े शहर को. जहां रोज़ कईयों आत्महत्या कर लेते हैं, जहां ट्रैन के ट्रैक्स पर रोज़ दस-बारा लोग मर जाते हैं, और कईयों की हत्या हो जाती है. किसी को फ़र्क नहीं पड़ता. उन शहर वालों की ज़िन्दगी तेज़ी से लगी रहती है.
जब मैं central station पर पहुंचा, तो यही था दिमाग़ में कि ऐसी जगह ढूंढ लूँगा जहां ज़्यादा attention न मिले. रिक्शा में घूमते घूमते, कई जगह छांटने के बाद, एक पुल दिखा जहां नीचे नदी सीधे समुद्र में जा मिल रही थी. मत पूछना क्यों, यह तो मैं भी नहीं जानता, पर मैंने उस जगह को चुना, और वापस station लौट आया.
डेढ़ बजे जब पूरी तरह से सन्नाटा छा गया, मैं निकला उस पुल की ओर. बड़ी मुश्किल से एक taxi मिली, जिसके ड्राइवर ने मुझे स्वीकार लिया.
"नए हो? कहाँ से आये हो?"
"वह मैं..."
"18 साल से यहाँ हूँ. कानपुर से आया था. तब से taxi चला रहा हूँ. वहाँ क्यों जाना है? रोज़ कोई पागल मरने आ जाता है. और गौरमिंट कुछ करती ही नहीं."
"नहीं...मैं..."
"जो भी है. देख रहे हो कितने कैमरे लगे हैं आज कल? मुझे पुलिस के चक्कर नहीं काटने हैं. रेडियो चालू करूँ?"
और इसी तरह लता जी गाने लगीं:
"शब-ए-इंतज़ार आख़िर...शब-ए-इंतज़ार आख़िर...
कभी होगी मुख़्तसर भी...कभी होगी मुख़्तसर भी..."
उस रात मैंने अपने आप से कहा: आज तुम्हारा भी चिराग़ बुझ जाएगा.
मैं पुल के सामने उतरा, और धीरे धीरे उस पर चल पड़ा. बारिश के दिन थे, और ख़ूब पानी बरसने के बाद ठंड बढ़ चुकी थी. हलकी-हलकी सी धुंध थी. उस वक़्त मेरी मानसिक स्थिति ऐसी थी, कि उस रात जो भी कुछ हुआ वह काल्पनिक था या वास्तविक, यह कहना संभव नहीं है. मुझे इतना याद है कि जब मैं पुल के बीच में पहुंचा तो मैं अकेला नहीं था.
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फ़ुटपाथ पर एक लड़की बैठी हुई थी. उसने सफ़ेद रंग का लहँगा पहन रखा था, जो अब बहुत पुराना हो चुका था. छोटे आस्तीन का ब्लाउज जिसका गला बहुत गहरा था. जिसकी नज़र वहाँ पड़ती, वह उसे देखता ही रह जाए. अगर नज़र और नीचे गयी तो उसकी कमर को छूने का मन करे.
बाल बिखरे पड़े थे. लाल रंग कि लम्बी heels रोड पर पड़ी थीं. एक काले रंग का छोटा bag उसके बाज़ू में रखा था. चेहरे से लग रहा था मानो कुछ देर पहले रो रही थी. उसकी आँखों से काजल बह चुका था, लेकिन गाल पर उसकी निशानी छोड़ गया था. उसके दाएं हाथ में जलती हुई सिगरेट का धुआं हवा में फैल रहा था.
जब मैं उस के पास पहुंचा, तो वह मेरी ओर मुड़ी, और ऊपर से नीचे तक एक लम्बी नज़र खींची. फिर अपने जूते हटाए, और उसके पास बैठने का इशारा किया. मैं उसकी सुंदरता से सम्मोहित हो कर चुप-चाप उसके बाज़ू बैठ गया. तब उसने सिगरेट को बुझा कर मुझसे कहा: "तू भी यहां मरने आया है क्या?"
"तुम्हे देख कर लगता है तुम भी वही करने आयी हो"
इतनी ज़ोर से हंसी कि जो आस-पास के आवारा कुत्ते सो रहे थे, वह जाग गए.
"मैं यहां रोज़ आती हूँ. धंदा करने के बाद यहां अच्छा लगता है. हवा अच्छी लगती है."
वह मुझे फिर से ताकने लगी.
"शेर सुनेगा? मख़दूम मोहिउद्दीन ने लिखा है...
"इश्क़ के शोले को भड़काओ कि कुछ रात कटे...
दिल के अंगारे को दहकाओ कि कुछ रात कटे..."
फिर से हंसने लगी.
"रंडी लगती हो और बात साहित्य की करती हो"
"रंडी पढ़ी लिखी नहीं हो सकती क्या? छोड़, बता, मरना क्यों चाहता है?"
"कोई वजह ही नहीं है." मैं नहीं जानता क्यों लेकिन मुझे लगा कि मैं उससे बात कर सकता हूँ.
उसकी आँखें घबरा उठीं.
वह मेरे और पास आयी, मेरे चेहरे पर हाथ रखा, और अंगूठे से होंठ को सहलाने लगी.
"जीने की वजह नहीं है? तुझे नहीं लगता, कि अगर इस दुनिया को तेरी ज़रुरत नहीं होती, तो ऊपर वाला खुद ही तुझे ख़त्म कर देता?"
मैंने इस का जवाब नहीं दिया.
"ऐसा गन्दा मुँह क्यों बना रहा है...नास्तिक है क्या?"
"मैं नहीं जानता कोई ऊपर वाला है या नहीं"
उसने कुछ नहीं कहा. धीरे धीरे उसने अपना अंगूठा मेरे मुँह में डाला और मुझे यह अच्छा लगने लगा. फिर मेरा सिर पकड़ा और मेरे कान को चाटने लगी. मैं हैरान ही रह गया जब उसने हलके हलके से कानों को कुतरना शुरू किया.
"मेरे पास इस के लिए पैसे नहीं है" मैंने कहा, जब याद आया कि शायद मुझे इसके लिए चुकाना पड़ेगा. मेरे शब्दों को नज़रअंदाज़ करते हुए, वह मेरी शर्ट के अंदर से मुझे सहलाने लगी और छाती को चूमने लगी, और ऊपर आते आते गले को पहले धीरे, फिर बाद में ज़ोर के काटने लगी.
शायद उसने ये महसूस कर लिया था कि वह मुझे पूरी तरह से उकसाने में कामयाब हो गयी थी, क्योंकि उसके हाथ तुरंत मेरे बढ़ते हुए अंग पर पहुँच गए थे. पहले तो सिर्फ़ उसने बिना कुछ किये वहाँ अपना हाथ रखा, शायद मुझे और उत्तेजित करने के लिए. उसके बाद कब पैंट कि बटन खुली और कब उसने मुझे मेरे निछले हिस्से के कपड़ों से वंचित कर दिया मुझे याद नहीं. जब मैं उस स्तब्ध से उठा, तो...
उसकी उंगलियां अंग की चारों ओर लिपटी हुई थीं. मज़बूत पकड़. धीरी चाल. ऊपर. नीचे. फिर ऊपर, फिर नीचे. धीरे धीरे अपनी चाल तेज़ करती गयी, और जब में पूरी तरह से उत्सुक हो चुका था, तो ऊपर का हिस्सा मुंह में लिया और उसे चुभलाने लगी. समाप्ति की ओर बढ़ने लगा तो दूसरे हाथ से गोटियों को हलके से मलने लगी.
मैं कराहने लगा...ज़ोर से...और ज़ोर से...फिर और ज़ोर से.
फिर शान्ति.
थक कर मैं ज़मीन पर लेट गया, लेकिन अभी भी नंगा ही था. हाफ रहा था. नीचे बहती नदी और ऊपर हलकी हवा ने मुझे शांत महसूस कराया.
जब उसकी तरफ़ देखा तो वह अपने बैग से एक दस्ती निकाल कर अपने हाथ साफ़ कर रही थी. मैंने अपनी पैंट ऊपर की, शर्ट और बाल ठीक किये. वह उठी, और अपने आप को संभाला. उसने भी बाल-वाल, कपड़े वगैरह ठीक किये. जूते पहन लिए.
मैं अभी भी लेटा हुआ ही था. वह मेरे पास आयी, घुटने टेके, सिर एक तरफ़ झुकाया और मुस्कुरायी. फिर मेरे माथे पर एक छोटा सा बोसा छोड़ गयी. फिर उठी, और जाने लगी.
"रुको. तुम्हारा नाम क्या है?" मैंने उससे पूछा.
उसने न जवाब दिया, न पीछे मुड़के देखा. मैं बस उसे अपने से दूर जाता देखता ही रह गया.
जब आँख खुली तो सुबह हो चुकी थी. किसी ने मुझे ठीक से किनारे पर स्थित कर दिया था. फुटपाथ पर बहुत सारे लोग चल रहे थे. गाड़ियां, बसें, मोटरसाइकिल, सब पुल पर जमे हुए थे. ट्रैफ़िक की धूल और हॉर्न की आवाज़ें हवा को प्रदूषित कर रहे थे. कुछ राह चलते लोग मुझे दया की नज़रों से देख कर छुट्टे गिरा कर जा रहे थे.
और इसी तरह ज़िन्दगी चलती रहती है...