मामल्लपुरम का सफ़र

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मैं बस पागल बना ही दी गई थी।
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मामल्लपुरम का सफ़र

ये desiamerican1117 द्वारा लिखी कहानी 'On the Road to Mamallapuram' का औपचारिक हिंदी रूपांतरण है। अंग्रेज़ी पाठकों से अनुरोध है कि कृपया इस लिंक को क्लिक करके (https://www.literotica.com/s/on-the-road-to-mamallapuram) मूल कहानी भी पढ़ें। अनुवाद करते समय पात्रों की भावनाओं, और उनके बीच के यौन तनाव को मूल कहानी जैसा बनाए रखने की पूरी कोशिश करी गई है।

लेखन में मेरी लाजवाब सहभागीदार Mercury_Hg का योगदान अमूल्य रहा है। उन्होंने मुझे मूल कहानी को देखने का एक दूसरा नज़रिया देने में अहम भूमिका निभाई।

आशा करते हैं की आपको हमारा ये सम्मिलित प्रयास पसंद आए। सभी पाठकों की प्रतिक्रिया का हमें बेसब्री से इंतज़ार है।

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आईने पे मेरी नज़र अटक गई, मेरी परछाईं ने मेरा ध्यान अपनी

तरफ़ खींच लिया।

मेरी मैक्सी इतनी पतली थी कि लग रहा था मानो मैंने कुछ और पहना ही नहीं है। मुझे उसकी सफेदी के भीतर लगभग सब दिख रहा था। उस पर बनी फूलों की आकृतियां लज्जा और अश्लीलता के बीच का एकमात्र पर्दा बन कर लहरा रही थीं।

मैं अपनी जगह पर घूमी, मैंने अपने हाथों को हर दिशा में उठाकर अंदाज़ा लगाने लगी कि मैक्सी के सरकने पर दूसरों को कितना दिखाई देगा।

मन में एक शरारत आयी।

क्या मुझे ये हिम्मत करनी चाहिए? ज़रूर करनी चाहिए।

मैंने पीठ की तरफ़ बने ज़िपर को नीचे खींचा, अपनी स्ट्रैपलेस ब्रा का हुक खोला, उसे उतार कर बाहर निकाला, ज़िप को फिर से ऊपर किया, और फिर आईने में खुद को वापस देखने लगी।

बढ़िया!

हालांकि मेरी पहली गर्भावस्था में मेरे स्तन बढ़े थे, मगर मेरी सहेलियों की तुलना में वो छोटे थे। आरुष को मेरी इस असुरक्षा का अंदाज़ा था, और वो समय-समय पर खास तौर से उनकी तारीफ़ करने का ध्यान भी रखता था।

लेकिन आज मुझे इस बात का पूरा फायदा मिल रहा था। मेरी कोई भी सहेली इस मैक्सी को नहीं पहन सकती थी।

मेरा हर संचलन मेरी कामुकता की एक हल्की सी झलक दुनिया के लिए प्रस्तुत कर रहा था, लेकिन उसके महत्वपूर्ण हिस्से केवल आरुष के लिए सुरक्षित थे।

मुझे आज भी याद है कैसे उसकी आँखें कैसी फटी की फटी रह गईं थीं जब मैं पहली बार उसे ये ड्रेस पहन के दिखाई थी। वो तो उस दिन मैंने ब्रा पहनी हुई थी वरना वो पक्का बेहोश हो जाता।

उसने मुझसे पूछा था कि मेरा इसे कब और कहाँ पहनने का इरादा है। मैंने उसे बताया कि मैं सोच रही थी कि मामल्लपुरम की यात्रा के दौरान इसको पहनूं। लेकिन जब मैंने उसके माथे पर बल आते हुए देखा, तो मैंने आगे जोड़ा, "मैं इसको होटल में स्विमिंग पूल से बाहर निकलने के बाद नहाने के सूट के ऊपर पहन सकती हूँ"।

तब जाकर उसके चेहरे पे थोड़ी राहत आयी।

मैंने आईने के सामने थोड़े और चक्कर लगाए। एक पल के लिए दिमाग में आया कि अपनी सफ़ेद कॉटन कच्छी को हटा कर देखूं की ड्रेस पर बने फूल मेरे अपने फूल को ढक पा रहे हैं या नहीं।

लेकिन मेरे पास समय बिल्कुल नहीं था, कामा किसी भी पल आता ही होगा। मुझे जल्दी से अपनी ब्रा पहन लेनी चाहिए। मगर फिर एक ख़याल आया और मैं रुक गई।

जिस दिन से आरुष ने अपने भाई से मेरा परिचय करवाया था, कामा ने मुझे तंग करने का, मुझे छेड़ने का एक मौका तक नहीं छोड़ा था। यहाँ कॉन्फ़्रेंस में भी नहीं। दो ही रात पहले, जब मैनेजरों के लिए दावत रखी गई थी, वो पूरे समय मुझसे दोहरे मतलब के शब्दों में बात करता रहा। हमेशा की तरह, उसने मुझे तब तक परेशान किया जब तक में शर्म से लाल नहीं हो गई। ये देख कर उसे इतनी ज़ोर से हंसी आई कि कमरे में सब लोग मुड़ कर हमारी तरफ़ देखने लगे।

मुझे बहुत उलझन होती है जब भी वो ऐसा कुछ करता है। इसका उसके एक अच्छे देवर होने से कोई लेना-देना नहीं था। हम दोनों को पता था कि समय आने पर वो हमारे लिए कुछ भी करेगा, और हम उसके लिए।

कामा पूरा लड़की-बाज़ है और हर महीने गर्लफ़्रेंड बदलता है। उसकी एक मॉडल जैसी लड़की से शादी भी हुई थी, लेकिन वो ज्यादा चल नहीं पाई। अब वो फिर से रणबीर कपूर बन चुका था।

आरुष कभी मुझे उसके तलाक़ की वजह नहीं बताता।

"पूरी खिचड़ी है," उसने बोला था, "तुम इसमें ना ही पड़ो तो बेहतर रहेगा।"

मैं हमेशा सोचती थी, क्या कामा ने उसे धोखा दिया होगा? या लड़की ने उसको?

ब्रा पहनते-पहनते मैं एकाएक रुक गई। आज मैं कामा पर उलटफेर कर सकती थी।

मुझे आरुष और कामा के साथ उसी सुबह किराए कि गाड़ी से मामल्लपुरम जाना था। कामा की गर्लफ़्रेंड अगले दिन से पहले नहीं आ सकती थी।

लेकिन आखिरी समय पर आरुष की एक मीटिंग आ गई, और मेरे सुबह उठने से पहले ही वो हमारे हयात रीजेंसी के कमरे से रवाना हो चुका था। क्योंकि वहाँ कामा की ज़रूरत नहीं थी, वो वहीं होटल में रुका रहा।

आरुष ने अपने लिए एक और गाड़ी का बंदोबस्त करके उसे अपने लिए होटल बुलवा लिया। कामा और मुझे पहली गाड़ी से अतिथि भवन पहुँचना था। आरुष जल्दी से जल्दी अपना काम करके दूसरी गाड़ी से आने वाला था। उसने बोला कि वो दोपहर तक हमारे पास पहुंच जाएगा।

कामा मेरे साथ चेन्नई से रास्ते भर के लिए फँस गया था। मेरी वेषभूषा देख के उसकी आँखें पक्का बाहर आने वाली थीं। मैं हमारे घंटे भर के पूरे रास्ते पर उसे अपनी ड्रेस से परेशान करने वाली थी। मैं उसकी पतलून पर नज़र रखने का भी सोच रही थी। क्या मैं कोई हादसा करवा सकती थी? नमी की एक छोटी सी बूंद भी मेरे लिए जीत होगी। आज हंसी उड़ाने की बारी मेरी थी।

मैंने जल्दी से अपना पर्स निकाला, और अपनी ब्रा को उसमें रख दिया।

समय उससे बेहतर हो ही नहीं सकता था।

दरवाज़े पर खटखटाहट हुई। मैं पीछे मुड़ी, अधिकतम प्रभाव डालने के हिसाब से खड़ी हुई, और बोली, "दरवाज़ा खुला है"।

उसकी प्रतिक्रिया मेरी कल्पना से भी बेहतर थी। उसने मुझे घबराए हुए जानवर की तरह कुछ देर देखा, और फिर अपना मुंह फेर लिया। उसका चेहरा पूरी तरह लाल हो चुका था।

"आपका सामान किधर है?" उसने पूछा। उसके गले से आवाज़ बमुश्किल निकल पा रही थी।

"यहीं, मेरे पीछे। तुम ठीक हो?"

उसने जल्दी से गले को खराशा, ऊपर मेरी तरफ़ देखा, फिर तुरंत ही मेरे पैरों की तरफ देखा, दोनो सूटकेस पकड़े और कमरे से भाग खड़ा हुआ। मेरी हंसी छूट गई।

मैंने दरवाज़े के बाहर झांका, वहाँ कोई नहीं था। में तेज़ी से लिफ्ट की तरफ़ बढ़ गई, अभी भी कोई नहीं था। मैं पार्किंग की तरफ़ भागने लगी, आसपास सन्नाटा था। फिर मैं गाड़ियों के रेले के बीच में कामा और उसकी गाड़ी को ढूंढने लगी।

जैसे ही वो मुझे डिक्की पर झुके हुए दिखा, मैं उसकी तरफ़ खिलखिलाते हुए फुदकने लगी। ऐसा लग रहा था जैसे सूरज उस अंधेरी पार्किंग में बस मेरे लिए चमक रहा था।

"मैं तुम्हारी कुछ मदद करूँ?" उसके पास जा कर मैंने पूछा।

उसने ऊपर देखा--वो पूरा चौंका हुआ था--और फिर वो तुरंत ही नीचे देखने लगा।

"आप अंदर बैठिए। यहाँ मेरा काम लगभग खत्म हो चुका है।"

ये सुनकर मैं डिज़ायर की आगे की शानदार सीट पर बैठ गई और दरवाज़ा खुला छोड़ दिया ताकि हवा आती रहे।

मैंने पीछे देखा तो डिक्की खुली ही हुई थी। वो मुझे देख नहीं सकता था।

मैंने सीट-बेल्ट को ढीला किया और अपने लिए जगह बनाने लगी। जब मैं ऐसा कर चुकी थी, बेल्ट की अवस्था मेरी सुरक्षा के लिए तो काफ़ी नहीं थी, लेकिन मैं अपना शरीर जैसे चाहे हिला सकती थी। मैं चेहरा सामने की ओर करके बैठ गई, और बेल्ट का ढीला हिस्सा अपने पैरों के नीचे दबा कर इंतज़ार करने लगी।

थोड़ी ही देर में दरवाज़ा खुला, वो अंदर बैठा, और उसने गाड़ी का इंजन शुरू किया। मैं अपना दरवाज़ा बंद करके सामने देखने लगी, और उसने गाड़ी आगे बढ़ा ली।

ट्रैफिक जाम आने तक मैं बिल्कुल वैसे ही बैठी रही। फिर मैं घात लगा कर इंतज़ार करने लगी।

उसने गाड़ी मोड़ने के लिए जब पहली बार मेरी तरफ़ देखा, उसका सर गाड़ी की छत से टकराते-टकराते बचा। मैं हंस दी। उसने मुझे नज़रअंदाज़ करते हुए मेरी खिड़की से बाहर देखने की कोशिश करी, लेकिन मेरा शरीर उसकी नज़र और खिड़की के बीच आड़े आ रहा था।

"आप थोड़ा पीछे हो जाइए," अपनी आवाज़ में संयम दिखाने की एक नाकाम कोशिश करते हुए उसने कहा।

"माफ़ करना," मैंने कहा और फिर खुद को ऐसे घुमाया कि जब मैं अपनी कुर्सी में पीछे हुई, पोशाक मेरे शरीर के पार सरक गई और मुझे उसकी एक तेज सांस सुनाई दी। मेरी दोबारा हंसी निकल गई।

"पता नहीं फूल कैसे दिखते होंगे," उसके गाड़ी मोड़ने के बाद मैंने कहा। आज उसके दोहरे मतलब वाले शब्दों का खेल मैं खेलने वाली थी। वो सामने देख रहा था। "तुम्हें लगता है कि उनकी पंखुड़ियां खुली हुई होंगी?"

सुबह का समय होने के बावजूद मुझे गाड़ी में हल्की गर्मी महसूस होने लगी। थोड़ा-थोड़ा पसीना भी आने लगा था, और मैक्सी मेरे शरीर से चिपकने लगी थी।

मैंने इसके बारे में नहीं सोचा था। उस पर बने चित्र जल्द ही मेरे शरीर पर पेंट की तरह चिपकने वाले थे। ये तो मेरी कल्पना से भी बेहतर होने वाला था।

बदकिस्मती से, जब मैं ये सोच रही थी, कामा ने ए॰सी॰ चालू कर दिया और उसकी ठंडी हवा के झोंके ने मुझे मेरी खयालों की दुनिया से जगा दिया। अब शरीर पेंट नहीं लगने वाला था। बुरा हुआ।

मैंने फूल-पौधों की बात जारी रखी, और कामा शांति से गाड़ी चलाता रहा। बात करते हुए मैं बार-बार अपनी अवस्था बदल रही थी। वो जितनी भी बार मेरी ओर देखता, उसे एक नया मंज़र देखने को मिलता। वो ना देखने की पूरी कोशिश कर रहा था, लेकिन कभी-कबार उससे रहा नहीं जा रहा था।

उसने ए॰सी॰ का तापमान और कम किया। मुझे ठंड लगने लगी तो मैंने उससे ये बोला और उसने तापमान दोबारा बढ़ा दिया। उसका पसीना निकला जा रहा था, उसकी खूबसूरत भवें एकाग्रता से चढ़ी हुई थीं।

"ये गर्मी, ये रंग, ये महक सब कितने इंद्रिय हैं," जंगली फूलों के लिए मैंने कहा। "मन करता है कि उनके समुद्र में डूब कर उनको अपने अंग-अंग पर महसूस करूँ, उनमें एक हो जाऊँ। मन करता है कि एक भंवरे से अपने रस को चुसवाने की उत्साह-पूर्वक अपेक्षा करूँ।"

वो अब अपनी कुर्सी पर खिसकने लगा था। मैंने नज़र चुरा के नीचे उसके पैरों के बीच बने तंबू को देखा। अब मुझे क्या करना चाहिए? मैंने मन ही मन फैसला लिया और उसके मेरी तरफ़ देखने का इंतज़ार करने लगी।

अगली बार जब उसने ऐसा किया, मैं तेज़ी से झुंकी और अपना सर उसके पैरों के पास ले गई ताकि उसे अंदाज़ा हो जाए कि मैं क्या देख रही थी। फिर मैं वापस ऊपर उठ कर ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी। मन तो किया कि चीखूं, "बदला पूरा हुआ!", लेकिन मैंने एक चूं तक नहीं करी।

अचानक से मुझे पीछे की ओर एक ज़ोरदार धक्का लगा। कामा ने झटके से गाड़ी को दाहिने घुमा दिया था। वो उसे एक पेट्रोल पंप में ले गया, और कस के ब्रेक लगाए। उसका दरवाज़ा खुला, फिर धड़ाके से बंद हुआ, और वो ग़ायब हो गया।

मैं अपनी जगह पर हिली-डुली। नहीं, ये सपना तो नहीं था। मैं उसका इंतज़ार करने लगी। क्या वो प्रसाधन में खुद को हल्का कर रहा था?

लगता तो नहीं था क्योंकि उसे देर नहीं लगी। मैंने उसकी पतलून तो नहीं देखी, लेकिन उसके चेहरे पर साफ़ दिख रहा था कि उसने अपना मुंह कई बार धोया था। उसका चेहरा तो सूखा था, लेकिन उसकी शर्ट की कॉलर पर छींटें थीं।

"आप ठीक हैं?" उसने पूछा।

"हाँ, ठीक हूं।"

"अचानक ऐसे रुकने के लिए माफ़ कीजिएगा, लेकिन मुझे प्रसाधन की ज़रूरत थी।"

"कोई बात नहीं," मैंने कहा, और उसने गाड़ी आगे बढ़ा दी।

हम थोड़ी देर शांति से चलते रहे।

"मैं रेडियो चलाऊं?" मैंने पूछा।

"अगर आपका मन हो तो बिल्कुल," उसने कहा, "मैं कॉलेज में हुए एक सेमिनार के बारे में सोच रहा था, लेकिन आप शायद ही उसमें दिलचस्पी लें।"

"मुझे इतनी प्रौद्योगिकी जानकारी नहीं है कि मैं उसमें अपनी दिलचस्पी का अंदाज़ा लगा पाऊं।"

"वो मनोविज्ञान पर एक व्याख्यान था जिसमें उन्होंने हमारे लोगों से अलग-अलग स्तर पर रिश्तों के बारे में बताया था।"

"लगता तो काफ़ी दिलचस्प है," मैंने कहा।

"उन्होंने बोला था कि हम अपने कर्मचारियों, अपने वरिष्ठों, अपने सहयोगियों, यहाँ तक की अपने प्रेमियों के बारे में अलग-अलग ढंग से सोचते हैं। लेकिन वास्तविकता में, हमें उन सबके साथ एक सार्थक रिश्ता बनाने के लिए काफ़ी हद तक समान चीज़ें करने की जरूरत है।"

"सही में? आगे बताओ!"

हम एक पतली दोरुखी सड़क पर थे, और घने पेड़ों की वजह से उसे गाड़ी धीमी गति से चलाने पड़ रही थी। अगर अचानक से कोई जानवर या इंसान सामने आ जाता, तो रुकना मुश्किल होता। सड़क के किसी भी तीखे मोड़ के पार एक चौड़ी ट्रक हो सकती थी।

"प्राध्यापिका ने कहा कि इससे पहले कि हम किसी से जुड़ें, हमें उन्हें सुनना चाहिए, लेकिन वैसे नहीं जैसे हम सामान्यतः करते हैं"

"तो वक्ता एक महिला थीं," मैंने कहा, "काफ़ी दिलचस्प! बोलते रहो।"

"उन्होंने कहा कि हमें शब्दों पर तो गौर करना ही चाहिए, लेकिन उनके मतलब-मात्र से ऊपर भी सोचना चाहिए। क्योंकि सबको एक ही चीज़ चाहिए, बस अलग-अलग तरीके से।"

"और वो क्या है जो सबको चाहिए?" मैंने पूछा।

"खुद का स्पर्श करवाना।"

जैसे ही कामा ने ये कहा, मुझे उसकी बायीं हथेली अपनी दायीं जांघ पर महसूस हुई। लेकिन वो वहाँ ठहरी नहीं। ऐसा लगा जैसे उसने अपनी बात पर ज़ोर देने के लिए ऐसा किया था।

मेरे शरीर ने उसकी इस हरकत पर अनायास प्रतिक्रिया दी। मैं तुरंत पीछे हुई। उसका इरादा क्या था? क्या मैं अब उसकी हंसी सुनने वाली थी?

मुझे खुद को संभालने में कुछ पल लगे। वो शांत था, मानो मेरे जवाब का इंतज़ार का रहा हो। मैंने उसकी नीयत परखने का निर्णय लिया। क्या उसका स्पर्श वाकई मासूम था? या मुझे दोबारा नीचा दिखाने का ये उसका एक पैंतरा था? मैं सतर्क हो गई, लेकिन क्योंकि वहाँ और कोई नहीं था, मुझे शर्मिंदा होने की चिंता नहीं थी। कामा आरुष जितना होशियार तो था लेकिन हाजिरजवाबी में मेरा पलड़ा उस पर भारी था।

"क्या मतलब?" मैंने पूछा। "हम सबको गले लगाते फिरें? कई लोगों को ये पसंद नहीं होता है - चाहे मर्द हों, चाहे औरत।"

"इसीलिए तो हमें सुनना चाहिए। हर इंसान को अपना स्पर्श करवाने की इच्छा होती है, मगर सही तरीके से। हमको बस वो तरीका ढूंढना होता है।"

"लेकिन कोई भी खुद पर मुक़दमा नहीं करवाना चाहेगा।"

"आप सही कह रही हैं। उन्होंने कहा था कि मर्दों के लिए ये एक मुश्किल दौर है, क्योंकि उनको सावधान रहना होता है। लेकिन औरतें चाहे कहें जो भी, उनमें से अधिकांश एक मर्द के स्पर्श पर प्रतिक्रिया देती हैं।"

उसकी हथेली एक बार फिर मेरे पैर पर आ गई, लेकिन इस बार, उसने उसे वहीं रहने दिया।

मुझे उसे धकेल देना चाहिए था, या खुद खिसक जाना चाहिए था ताकि उसका हाथ अपने आप नीचे गिर जाए, लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया।

मैं सड़क को देखती रही, उसकी तरफ रत्ती भर भी नहीं मुड़ी, मगर मैंने अपनी आंखों को दाहिने तिरछा करके उसकी ओर देखा।

वो ना तो मुझे देख रहा था, ना अपने हाथ को, बस रास्ते पर ध्यान दे रहा था। या फिर ऐसा करने का ढोंग कर रहा था।

एक खेल शुरू हो गया था। वो मुझे एक नहीं तो दूसरे ढंग से भड़काना चाहता था। और फिर वो ज़ोर से हंसता। यही करके वो मुझसे जीतना चाहता था।

मैंने भी उसे आड़े हाथों लेने की ठान ली। वो उजड्ड तो था नहीं। कभी न कभी, वो अपना हाथ हटा कर हार मान ही लेता। और मैं उसका ये टुच्चा खेल जीत जाती।

"क्या तुम्हारी ये मनोवैज्ञानिका ये कहना चाहती हैं कि महिलाओं को अपने दफ्तर में भी एक कामुक स्पर्श चाहिए?" मैक्सी को पार करते हुए मेरी जांघ पर पड़ती उसकी चौड़ी हथेली की हरारत को नज़रअंदाज़ करते हुए मैंने धीरे से पूछा।

"कभी-कबार। ये कहीं भी हो सकता है। आपको बस सुनकर सही मौका ढूंढना होता है। आप चाहे तो देख भी सकते हैं, मगर शरीर और चेहरे के हाव-भाव कभी-कबार गुमराह भी कर सकते हैं।"

"और ये औरतें जिनको तुम छू रहे हो, तुम्हे कैसे पता कि वो तुम्हे फंसा कर तुमसे पैसे ऐठेंना नहीं चाहतीं?"

उसका हाथ नीचे मेरी मैक्सी की झिल्ली के पार मेरे घुटने तक पहुंच गया। वो अब खुला बदन छू रहा था। मुझे अपना चेहरा गर्म होता महसूस हुआ।

"महोदया ने कहा कि हम सब झूठ बोलते हैं, ज्यादातर अपने आप से ही। औरत को ऐसा लग सकता है कि काबू उसके पास है। लेकिन उसको वो कामुक स्पर्श इतनी बुरी तरह चाहिए होता है कि कई बार वो अपने षडयंत्र के बारे में पूरी तरह भूल जाती है।"

जैसे ही मुझे उसका हाथ ड्रेस के अंदर मेरी जांघों के ऊपर की तरफ़ फिसलता महसूस हुआ, मैंने अपनी सांस थाम ली। वो ठहरा, और मैंने बोलने के पहले बिना आवाज़ किए सांस छोड़ने कि कोशिश करी। उसने 'कामुक' क्यों कहा? अरे हां, ये पहले मैंने ही बोला था, यानी उसको ये बोलने कि इजाज़त मैंने खुद ही दे दी थी। क्या ये इस खेल का एक नियम था? क्या मैं उसे जितनी ढील दूंगी, वो उतना आगे बढ़ता जाएगा?

"तो तुम्हारी मानसिक महोदया का कहना है कि तुम बस सुनकर एक औरत के खयाल पढ़ सकते हो।"

"इसको आप एक मर्दाना मूल-प्रवृत्ति समझिए, जो कि तबसे है जब हम आदि-मानव हुआ करते थे। पुरुष स्त्री की लय से बंधा हुआ है, जैसे जानवरों में होता है।"

मैं जवाब देने से पहले एक पल रुकी।

"तुम्हारा मतलब है कि कुत्ते को सूंघ कर पता चल जाता है कि कुतिया कब गर्म है?"

मेरे ये बोलते-बोलते उसकी हथेली थोड़ा और ऊपर खिसकी। अब वो मेरी जांघों के बीच फंसी हुई थी। ऐसा लग रहा था जैसे वहाँ शोले भड़क रहे थे, मानो मेरी दोनो जांघों पर उसकी हथेलियां छपने वाली हों। क्या मुझे अपने पैर सिकोड़ कर उसका रास्ता बंद कर देना चाहिए? इससे पहले कि मैं कुछ तय कर पाती, उसकी उंगलियां मेरी कच्छी को सहलाने लगी।

"आप मज़ाक कर रही हैं," उसने कहा, "लेकिन इंसानों के शारीरिक स्राव जानवरों की ही तरह कुछ संकेत भेजते हैं।"

मुझे एहसास हुआ कि वो अब मानसिक महोदया के व्याख्यान के बारे में बात नहीं कर रहा था, और कि ये सब अब रुकना होगा। कि मेरे दिमाग में अब खेल नहीं चल रहा था, ये उसको भी पता लग रहा था। मेरी कच्छी नम हो चुकी थी। मैंने जल्दी से नीचे झांका और उसके हाथ को अपनी ड्रेस के अंदर रखे हुए देखा। बहुत अश्लील दृश्य था वो।

मेरा चेहरा मेरी टांगों के बीच के हिस्से की तरह गर्म और भीगा हुआ महसूस हो रहा था। मैंने बोलने की कोशिश करी, लेकिन सटकने के अलावा मैं कुछ नहीं कर सकी। मैंने उसके हाथ को दूर धकेलना चाहा, लेकिन ऐसा कर नहीं पायी। मैं बस सामने ही देखती रह गई। वो भी सामने शीशे के पार देखते हुए धीरे-धीरे गाड़ी चला रहा था।

"टन!"

कोई मेरे फोन पर संदेश भेज रहा था। शायद किसी सहेली ने अपने प्यारे भांजे के साथ अपनी तस्वीर भेजी होगी।

मैं सोच रही थी कि अगर मैंने उसको पलट के अपनी और अपनी ड्रेस के अंदर घुसे कामा के हाथ की तस्वीर भेज दी, तो वो क्या सोचेगी।

"टन! टन!"

मैंने अपने पर्स में हाथ डाला, और फोन बिना देखे उसकी आवाज़ को बंद कर दिया। अब कोई बाधा नहीं आएगी। मुझे कैसे भी करके अपना पूरा ध्यान बस इस पल पर रखना था।

उसने अपनी एक उंगली मेरी कच्छी के अंदर डाल दी। क्या उसका दिमाग खराब हो चुका था? या शायद मेरा?

अचानक से, उसने अपना हाथ पीछे चीर लिया। मेरी कच्छी फटते-फटते बची। मैंने उसकी तरफ देखा, वो अपना बायां हाथ चालक-चक्र की तरफ ले गया। उसकी उंगलियां चिकनाई से सनी हुई थीं। साथ ही साथ, मुझे गाड़ी के ब्रेक लगते महसूस हुए।

मैंने ऊपर देखा, तो सामने सड़क संकरी हो कर एक गांव से गुजर रही थी। चारों तरफ ठेले, गाडियां, साइकिलें और लोग थे। कामा को गाड़ी संचालित करने के लिए अपने दोनो हाथों की ज़रूरत थी।

क्या वो मेरे ही हांफने की आवाज़ थी? हाँ।

मैंने बेतहाशा चारों ओर देखा।

क्या किसी ने गाड़ी के अंदर चल रही हरकतें देखी होंगी? शायद नहीं।

मेरा दिमाग घूम रहा था, और मेरे पूरे शरीर से पसीना बहा जा रहा था। मैं कामुकता के समुद्र में डूबी जा रही थी, और मुझे अपने पैरों के बीच हो रही सनसनी के अलावा अब किसी चीज़ की परवाह नहीं थी। एक यही वजह हो सकती है जो मेरी अगली हरकत को समझा पाए।

मैंने कामा को देखा। उसकी आंखें आगे ट्रैफिक पर गड़ी हुई थीं। मैंने सामने और दोनो तरफ़ के शीशों के पार देखा। कोई भी राहगीर गाड़ी के इतना पास नहीं था कि उसके अंदर झांक पाए।

मैं धीरे से अपने दरवाज़े कि तरफ़ खिसकी, नीचे झुकी, और अपने दोनों हाथ ड्रेस के अंदर डाल दिए।

सावधानी से, मैंने अपने कूल्हे उठाए, और कच्छी को नीचे उतार दिया। मैंने अपने पैरों को उनसे बाहर निकाला, और उसे अपने पर्स में डाल दिया। मेरा शरीर ढाल बनके मेरी हरकतों को छुपा रहा था।

मैं फिर से आराम से सीधे बैठ गई, और अपने शरीर को कामा के पास ले गई। फिर मैं सामने सड़क को घूरने लगी।

कुछ ही समय में, हम भीड़ को पार करके वापस राजमार्ग पर एक ट्रक के पीछे आ गए थे। मैंने कामा को अपनी सांस छोड़ते हुए सुना। कुछ ही पल में, उसका दाहिना हाथ फिर से मेरी जांघों के बीच रेंगने लगा। जैसे ही उसके ये एहसास हुआ कि मेरी कच्छी ग़ायब हो गई है, गाड़ी सड़क पर लहरा गई।

गाड़ी की रफ़्तार अब उतनी नहीं थी, और उसने जल्दी ही एक हाथ से नियंत्रण वापस ले लिया।

वो शुरू में मुझे हल्के हाथों से महसूस कर रहा था। मैं सोच रही थी कि वो मेरे घने जघन बालों के बारे में क्या सोच रहा होगा। लेकिन शायद वो इस मामले में अपने भाई की तरह होगा। आरुष को, उसके अपने शब्दों में, "मेरे जंगल की सैर" करने में बड़ा आनंद आता था, और उसे मेरा वहाँ छंटाई करना बिल्कुल नहीं सुहाता था।

फर्क बस ये था कि कामा की पहुंच काफ़ी सीधी थी। वो मुझे चीरते हुए आगे बढ़ रहा था। उसकी उंगलियां इतनी आक्रामक तरीके से चल रही थीं कि एक-आध बार मैं बिलबिला पड़ी। लेकिन उसका असर वही था, वो मुझे पागल बना रहा था।

मैं सामने देख रही थी, ट्रक कई बार हमको रास्ता देने के लिए दाहिने गई। लेकिन या तो कामा देख नहीं पा रहा था या तो वो देखना ही नहीं चाहता था, ताकि हम उसके पीछे आराम से चल सकें।

मैं अपनी कुर्सी पर ऐंठी जा रही थी। मुझे अपने कूल्हों के नीचे चिकनाहट महसूस होने लगी थी। मैं बहे जा रही थी।

अचानक से मैं उछल पड़ी।

उसकी एक उंगली अब मेरे अंदर थी। जैसे ही उसने मेरी घुंडी पर अपनी उंगली फेरी, में बेसुध बड़बड़ाने लगी। मुझे लगा था कि मैं बस फुसफुसा रही थी, लेकिन उस समय मुझे कोई होश नहीं था कि में क्या कर रही थी।

और फिर एक ही पल में सब ध्वस्त हो गया।

नहीं, गाड़ी नहीं। वो तो आराम से चल रही थी, लेकिन सामने चल रही ट्रक हमारे रास्ते से अलग हो गई।

"ओह!"

जैसे ही उसकी आह निकली, कामा ने कोमलता से अपनी उंगली मुझसे निकाल कर अपना बायां हाथ वापस चालन-चक्र पर रख दिया।

मन तो कर रहा था कि ज़ोर से चीखूं, लेकिन किसी तरह मैंने खुद पर संयम रखा। मैं अपनी जगह पर उठ कर वापस आयी और आसपास देखने लगी।

"हम बस पहुंचने ही वाले हैं," उसने कहा। "मैंने एक चिन्ह देखा था।"

वो सही कह रहा था। मैं अपनी स्तब्धता से बाहर आई और फिर पर्स की तरफ़ अपना हाथ बढ़ाया। मैंने अपनी ब्रा और कच्छी ठीक करी ही थी कि उसने अतिथि-भवन के बाहर गाड़ी किनारे रोक दी।

"आप यहीं रुकिए, मैं हमारे नाम दर्ज करा के आता हूं।"

वो कुछ समय में बाहर आया। मैं अपने नम बाल काढ़ रही थी। उसने मुझे एक चाबी थमाई और फिर मेरे इतना करीब आ गया कि मुझे उसकी सांस अपने चेहरे पर महसूस होने लगी।

"आप अपने कमरे में जाइए और फ्रेश हो लीजिए। मैं पंजीकरण खत्म करके सारा सामान अपने कमरे में मंगवा लूंगा। आपका सामान मैं सीधा आपके कमरे पर ले आऊंगा।"

ये कहते हुए वो पूरे समय मुझे एकटक घूर रहा था। उसके चेहरे पर हवस थी, उसकी आंखों में पागलपन। मैंने पहले कभी उसे इस अवस्था में नहीं देखा था।

मैं मानसिक महोदया के प्रसंग के बारे में सोच रही थी। मुझे यकीनन पता था कि वो मेरा सामान मेरे कमरे में लाने की बात से क्या कहना चाहता था।

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