मामल्लपुरम का सफ़र

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DrHorny96
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जैसे ही मैं गाड़ी से उतरी, लू का थपेड़ा मेरे शरीर पर लगा। मैं गर्म हवा के कश लेते हुए धीरे-धीरे अपने कमरे की तरफ़ जाने लगी। वो जादा दूर नहीं था। उसका वातानुकूलक चालू था, लेकिन बिजली कम खर्च करने के लिए वो गुनगुने तापमान पर सेट था। मैंने तापमान कम किया, लेकिन कमरा ठंडा होने में अभी समय था।

मैं फूली नहीं समा रही थी। कुछ ही समय में, कामा आने वाला होगा। मुझे उसके इरादे अच्छी तरह पता थे। वो पूरी तरह एक जंगली बन चुका था। क्या यही उसकी खूबसूरत प्रेमिकाओं को उसमें आकर्षक लगता था - वहशी बर्बरता से संभोग करना, वो भी एक ऐसे इंसान के साथ जो किसी का भी सत्कार नहीं करता था, खासकर उन्हीं लड़कियों का।

मैं उसकी आंखों की मोह-माया में फस चुकी थी, मैं उसकी गुलाम बन चुकी थी। मेरा अपना देवर मुझे मेरी मर्ज़ी के विपरीत अपना बनाने वाला था। वो आरुष के साथ ऐसा कैसे कर सकता था?

बकवास! जैसा कि मानसिक महोदया ने कहा था - या वो कामा की गढ़ी हुई एक कहानी थी? - मैं बस अपने आप से झूठ बोल रही थी। मैं अपने जिस्म की ज़रूरत, उसकी उस भूख को सही ठहरा रही थी, जो वो चीख-चीख कर मांग रहा था।

मैं पसीने से तर वो कुलटा थी, जो अपने पति को धोखा देने वाली थी। मैं ये अच्छी तरह जानती थी, लेकिन अब मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था।

मैंने प्रसाधन में जाकर अपने चेहरे पर ठंडे पानी की छींटे डाली। पानी गुनगुना था, ज़रा भी आरामदायक नहीं था।

मैं दरवाज़े की ओर बढ़ी, मुझे वहाँ से निकलना था।

लेकिन मैंने हत्थे को घुमाया नहीं। बल्कि मैंने एक कदम पीछे लिया, फिर एक और, और फिर एक और।

मुझे बाहर क़दमों की आवाज़ आ रही थी। पर्दा गिरा हुआ था, लेकिन वो हल्का था, और मुझे उसके पार एक परछाईं दिखाई दी। वो गर्मी में धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए सामान ढो रही थी।

मैं एक जगह खड़ी हो कर अपेक्षा से कांपने लगी। मुझे सामान नीचे रखने की आवाज़ आई। मेरी आंखों के सामने एक दृश्य आया।

वो जानवर जो मेरे लिए आ रहा था, उसने अपनी शिष्टाचार के लबादे को दूर फेंक दिया था। उसका दरवाज़ा खटखटाना या उसका मेरे अंदर आने के मेरे न्यौते का इंतज़ार करना अब बस एक भ्रम था।

मैं दरवाज़े पर नज़र गड़ाए खड़ी थी। और फिर वो खुला, और वो अंदर आया। सूरज की चौंध में उसकी आकृति धुंधली दिख रही थी। मुझे शुरू में उसका चेहरा नहीं दिख पा रहा था। लेकिन फिर जब मुझे वो दिखा, मेरी चीख निकल पड़ी और में वहीं बेहोश हो गई।

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अपने सपने में, मैं एक अदालत में थी। वहाँ कुछ नहीं हो रहा था। कोई न्यायाधीश नहीं था, बस कागजों कि अदला-बदली करते हुए कुछ अधिकारी थे। मैं वहाँ सबसे पहले पहुंची थी, और बाकी सबका इंतज़ार कर रही थी।

पीछे कुछ शोर हुआ, तो मैं उस ओर मुड़ गई। कमरे के दूसरी तरफ़, मेरे पति और उसके वकील की जगह के पीछे, मेरे बच्चे बैठे हुए थे।

वो अपने फ़ीके, धुंधले चेहरों से मुझे दुख से घूर रहे थे। मैं पूरी तरह उनके आरपार देख पा रही थी। वो भूत थे। मैंने उनको अपने लिए मार डाला था, बिल्कुल उसी तरह जैसे मैंने अपनी शादी का गला अपने ही हाथों से घोंट दिया था। मैनें उनके पास जाकर उनसे माफ़ी मांगना चाहा। मगर मैं अपने पैरों के बीच बहते हुए चिपचिपे रस से, अपनी शर्मिंदगी के सबूत से अपनी कुर्सी पर ही चिपकी हुई थी।

मैंने झड़क कर खुद को वहाँ से छुड़ाने की कोशिश करी, लेकिन मैं टस-से-मस न हो सकी।

######################

मैं अपने कुस्वपन से जागी, और अपने पति के चेहरे को खुद से इंच भर मात्र दूर पाया। उसके मजबूत हाथ मेरे कंधों को पकड़े हुए थे। उसकी आवाज़ ने मेरे दर्द को दूर कर दिया।

"पीछे होकर लेट जाओ, जान। थोड़ा आराम कर लो।"

"मुझे क्या हुआ था?"

"कुछ नहीं। तुम्हारे शरीर में पानी की कमी हो गई थी, तुम पसीने से भीगी हुई थीं। ये सब गर्मी की वजह से हुआ। लेकिन अब तुम ठीक हो। जैसे ही तुम उठने लायक हो जाओगी, मैं तुमको पानी दूंगा।"

मैं धीरे से उठ कर अपने बिस्तर पर बैठी और अपने पैरों को नीचे ज़मीन पर रखा। मेरे पैर नंगे थे, लेकिन मेरे शरीर पर कपड़े मौजूद थे। वो मुझसे चिपके तो हुए थे, लेकिन वातानुकूलक खूब ज़ोर से हवा फेंक रहा था। वो नम ठंडक मुझे अच्छी लग रही थी। आरुष ने मुझे ग्लास में पानी दिया, और मैंने उसका एक घूंट लिया।

मैंने आसपास नज़रें दौड़ाई। दरवाज़ा अभी भी खुला हुआ था, और सामान वहीं पड़ा था जहाँ उसने रखा था। मैंने बगल में उसको बैठे हुए देखा। मेरी घबराहट फिर से उतनी ही हो गई जितनी कामा की जगह उसका चेहरा देख कर हुई थी। बस इस बार मैं बेहोश नहीं हुई। मैं ठिठुर गई, और उसने मुझे अपनी बाहों में ले लिया।

वो यहाँ आखिर कर क्या रहा था? उसको कितना पता था? क्या अब हम खत्म हो चुके थे?

उसने मेरा चेहरे का भाव पढ़ लिया, और मुझे अचनाक मानसिक महोदया की बात याद आ गई।

"मीटिंग मेरे अनुमान से जल्दी खत्म हो गई। मैंने तुम्हारे फोन पर संदेश भेजने की कोशिश भी करी, लेकिन शायद वो कल रात के खाने के बाद से ही धीमी आवाज़ पर रहा होगा। कामा की गाड़ी वैसे तो हवा से बातें करती है, लेकिन आज यहाँ आने में तुम दोनो को काफ़ी समय लग गया। कामा का सामान गाड़ी से निकल ही रहा था जब मैं यहाँ पहुंचा। सामान ले जाने वाले के पीछे-पीछे लग के मैं कामा के कमरे तक पहुंच गया, और उसने मुझे तुम्हारा ठिकाना बता दिया।"

में सोचने लगी कि क्या कामा का दिल भी थम गया होगा जब उसने आरुष को वहाँ देखा।

कमरे में कोई तो गंध थी जो मुझे तंग कर रही थी। जब मुझे ये एहसास हुआ कि वो मेरी अपनी ही थी, मैं फिर से कंपकंपा पड़ी। शायद वो बस मेरे मन का वहम था, लेकिन मुझे अपने पसीने की महक और उस दूसरी महक का फर्क अच्छी तरह से पता था।

और अब मेरी पूरी ज़िन्दगी आरुष के उस गंध को पहचानने से पहले मेरी प्रतिक्रिया पर निर्भर कर रही थी।

मैं तुरंत बिस्तर से उठी।

"मैं नहाने जा रही हूं।"

"पक्का, तुम्हें थोड़ी देर और आराम नहीं करना?"

मैंने कोई जवाब नहीं दिया। उसका वाक्य खत्म होने से पहले ही मैं गुसलखाने का दरवाज़ा बंद कर रही थी।

मैं पूरे कपड़े पहने हुए ही अंदर चली गई और पानी को अपने शरीर पर लुढ़काने लगी। मैंने खुद को और अपने कपड़ों को तब तक तरबतर होने दिया जब तक वहाँ पानी के अलावा किसी और चीज़ की गंध नहीं बची। मैंने खुद पर साबुन लगाया, फिर अपनी ड्रेस पर, कच्छी पर, और ब्रा पर। मैंने अपने शरीर को अच्छे से धोया। फिर कपड़ों को निचोड़ कर उन्हें टांग दिया।

खुद को सुखा कर मैंने अपने ऊपर एक लबादा डाला, और ढकी हुई कमोड पर बैठकर सिसक कर रोने लगी।

आरुष ने मुझे एक घनघोर अपराध करने से बचा लिया था। अगर उसकी मीटिंग जल्दी नहीं खत्म हुई होती, तो मैं अपनी ज़िन्दगी की सबसे ज़रूरी चीजें तबाह कर चुकी होतीं।

भले ही मैं उसे खुद कुछ ना बताती, लेकिन उसे समझ में आ जाता कि कुछ गड़बड़ हुआ है। इंसान अपनी शर्म को नहा कर धुल नहीं सकता है। मेरे बच्चों को भी समझ आ जाता की कुछ ग़लत हुआ है।

शायद कामा ग्लानि में अपने भाई को सच बता देता। मुझे यकीन था की कुछ भी करके हमारी घिनौनी पशुता सबके सामने आ जाती, और फिर मैं उसी कचहरी में अपने भूत-नुमा बच्चों के साथ होती।

######################

इतने दिनों बाद भी मैं ये नहीं समझ पाती हूं कि उस दिन मुझ पर क्या सवार हुआ था। मैंने ना तो उससे पहले, ना उसके बाद कभी कुछ ऐसा किया था।

मैंने उसके खयाल तक को अपने दिमाग से बेदखल करने की कोशिश करती थी, और अधिकतर मैं इसमें सफल भी होती थी।

कभी-कभी जब मेरे दोस्त स्त्री और पुरुषों के बीच के संपर्क की बातें करते हैं, वो सब कुछ आंखों के सामने आने लगता है - मानसिक महोदया, मामल्लपुरम का सफर, दरवाज़े पर आरुष का चेहरा।

चाहे मैं कहीं भी हूं, तापमान चाहे जो भी हो, उस दिन हुई अनुभूति का खयाल आते ही, उस गंध का सोचते ही मेरा पसीना बहने लगता है। मैं तुरंत जाकर अपना मुंह धुल कर उस काल्पनिक महक को दूर करने की कोशिश करने लगती हूं।

कामा और मैं बाकी छुट्टी मित्रतापूर्वक रहे। हालांकि मैं ये पूरी कोशिश करती थी उसकी प्रेमिका के साथ ज़ादा से ज़ादा देर तक रहूं ताकि दोनो भाइयों को एकांत मिल जाए। मैंने उससे या किसी और से कभी इसका ज़िक्र तक नहीं किया कि हमारे बीच क्या हुआ, और क्या होते-होते रह गया। बाद में कुछ सुनकर मुझे ये लगा की उसने कम से कम एक इंसान को तो बताया था।

उसकी प्रेमिका उस छुट्टी के बाद ज़ादा समय तक नहीं टिकी। लेकिन दो ही साल बाद, हम कामा की दूसरी शादी में गए। मानसी की मुलाक़ात पहले मेरे पति से हुई थी। आरुष ने मुझे बताया था कि वो थोड़ा-बहुत मेरे जैसी दिखती थी, लेकिन वो ग़लत था।

वो काफ़ी हद तक मेरे जैसी दिखती थी।

वो सादरपूर्वक रहने की कोशिश कर रही थी, लेकिन जैसे ही उसकी नज़र मुझ पर पड़ी, मुझे ऐसा लगा कि उसे भी वही अस्थिरता महसूस हुई होगी जो मुझे उसे देख कर हुई।

उसकी शख्सियत मन जीत लेने वाली थी। वो बेहद प्यारी और विनीत थी, ना गप करती थी, ना किसी का मज़ाक बनाती थी, और ना ही वो किसी से तेज़ आवाज़ में बात करती थी। कुल मिला के, वो स्वभाव में दूर-दूर तक मुझ जैसी नहीं थी। मुझे दिख रहा था कि कामा उस पर पूरा लट्टू था, और जहाँ तक मुझे लग रहा था, उनका दाम्पत्य जीवन भी अच्छा चल रहा था।

जब से आरुष का अमरीका स्थानान्तरण हुआ है, हम उनसे ज़ादा नहीं मिल पाए हैं।

हाल ही में, आरुष एक कॉन्फ्रेंस में सम्मिलित होने के लिए कोलकाता गया था। लौटते वक़्त, वो कुछ दिन कामा के यहाँ रुक गया।

उसने मुझे बताया कि कामा और मानसी आज भी उतने ही खुश लग रहे थे जितना वो तब थे जब हमने उन्हें पिछली बार देखा था। लेकिन शायद मानसी वैसी नहीं थी जैसा मैंने उस समय सोचा था। कामा ने आरुष को समझाया था कि वो एक कुशल अभिनेत्री है, और कि वो अधिकांश लोगों के सामने अपना असली रूप आसानी से छुपा ले जाती है। उसे ये एक अच्छा संकेत लगा कि वो आखिरकार खुद को परिवार का हिस्सा मान कर, अपना मुखौटा हटा कर, हमें असली मानसी से मिलने दे रही थी।

आरुष ने मुझे सचेत कर दिया कि अगली बार मानसी से मिलते वक़्त मैं उसके विचारों, उसकी भाषा, और उसके चाल-चलन से स्तब्ध होने के लिए तैयार रहूं। मैंने उसे मुझे एक उदाहरण देने के लिए कहा।

"एक रात, जब कामा और मैं रसोई में बातें कर रहे थे, वो वहाँ एक मैक्सी में आई। वो गाउन इतना पतला था कि मुझे लगभग सब दिख रहा था। कामा के चहरे पर एक अजीब सा भाव आया। वो बिना कुछ बोले वहाँ से उठा और उसके पास गया। मानसी ने उसका हाथ थामा, और उसे अपने साथ ले गई।"

आरुष हँसने लगा।

"क्या हुआ?"

"मैं मानसी के शब्दों के बारे में सोच रहा था, जो उसने कामा मेज़ पर से कूद खड़े होने के बाद कहे थे।"

"बताओ ना!"

"वो मेरी तरफ़ मुड़ी और मुस्कुरा कर बोली, 'कुत्ते को सूंघ कर पता चल जाता है कि कुतिया कब गर्म है।'"

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