केले का भोज (A Banana Feast)

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फँस गई। कैसे निकलेगा? कुछ देर किंकर्तव्यविमूढ़ बैठी रही। फिर निकलना पड़ा। चलना और कठिन लग रहा था। यही केला कुछ क्षणों पहले अंदर कितना सुखद लग रहा था!

कमरे के अंदर आते ही नेहा ने सवाल किया, "निकला?"

मैंने सिर हिलाया। हमारे बीच चुप्पी छाई रही। परिस्थिति भयावह थी।

"मैं देखूँ?"

हे भगवान, यह अवस्था! मेरी दुर्दशा की शुरुआत हो चुकी थी। मैं बिस्तर पर बैठ गई।

नेहा ने मुझे पीछे तकिए पर झुकाया और मेरे पाँवो के पास बैठ गई। मेरी नाइटी उठाकर मेरे घुटनों को मोड़ी और उन्हें धीरे धीरे फैला दी। बालों की चमचमाती काली फसल.......... पहली बार उसपर बाहर की नजर पड़ रही थी। नेहा ने होंठों को फैलाकर अंदर देखा।

हे भगवान कोई रास्ता निकल आए।

उसने उंगलियों से होंठों के अंदर, अगल बगल टटोला, महसूस किया। बाएँ दाएँ, ऊपर नीचे। नाखून से खींचने की असफल कोशिश की, भगांकुर को सहलाया। ये क्यों? मन में सवाल उठा, क्या यह अभी भी तनी अवस्था में है? नेहा ने गुदा में भी उंगली कोंची, दो गाँठ अंदर भी घुसा दी। घुसाकर दाएं बाएँ घुमाया भी। मैं कुनमुनाई। ये क्या कर रही है? पलकों की झिरी से उसे देखा, उसके चेहरे पर मुस्कुराहट थी। कहीं वह मुझसे खेल तो नहीं रही है?

"ओ गॉड, ये तो भीतर घुस गया है।" उसके स्वर में वास्तविक चिंता थी। "क्या करोगी?"

"डॉक्टर को बुलाओगी? वार्डन को बोलना पड़ेगा। हॉस्टल सुपरिंटेंडेंट जानेगी, फिर अदर टीचर्स, ... नो नो नो.... बात सब जगह फैल जाएगी।"

"नो नो नो.... " मैंने उसी की बात प्रतिध्वनित की।

कुछ देर हम सोचते रहे। समय नहीं है। जल्दी करना पड़ेगा। इन्फेक्‍शन का खतरा है।

............. मैं क्‍या कहूँ।

"एक बात कहूँ, इफ यू डोंट माइंड?"

"............." मैं कुछ सोच नहीं पा रही।

"सुरेश को बुलाऊँ? एमबीबीएस कर रहा है। कोई राह निकाल सकता है। सबके जानने से तो बेहतर है एक आदमी जानेगा।"

बाप रे! एक लड़का। वह भी सीधे मेरी टांगों के बीच! नो नो..........

"निशा, और कोई रास्‍ता नहीं है। थिंक इट। यही एक संभावना है।"

कैसे हाँ बोलूँ। अबतक किसी ने मेरे शरीर को देखा भी नहीं था। यह तो उससे भी आगे....... मैं चुप रही।

"जल्दी बोलो निशा। यू आर इन डैंजर। अंदर बॉडी हीट से सड़ने लगेगा। फिर तो निकालने के बाद भी डॉक्टर के पास जाना पड़ेगा। लोगों को पता चल जाएगा।"

इतना असहाय जिंदगी में मैंने कभी नहीं महसूस किया था। "ओके ........."

"तुम चिंता न करो। ही इज ए वेरी गुड फ्रेड ऑव मी (वह मेरा बहुत ही अच्छा दोस्त है।)" उसने ऑंख मारी। "'हर तरह की मदद करता है।"

गजब है यह लड़की। इस अवस्था में भी मुझसे मजाक कर रही है।

उसने सुरेश को फोन लगाया। "सुरेश? क्या कर रहे हो..... नाश्‍ता कर लिया?... नहीं?... तुम्हारे लिए यहाँ बहुत अच्छा नाश्‍ता है। खाना चाहोगे? सोच लो... इटस ए लाइफटाइम चांस... नाश्‍ता से अधिक उसका प्लेट मजेदार ... नहीं बताउंगी.... अब मजाक छोड़ती हूँ। तुम तुरंत आ जाओ। माइ रूममेट इज इन अ बिग प्राब्लम। मुझे लगता है तुम कुछ मदद कर सकते हो... नहीं नहीं.. फोन पर नहीं कह सकती। इट्स अर्जेंट... बस तुरंत आ जाओ।"

मुझे गुस्सा आ रहा था। "ये नाश्‍ता-वाश्‍ता क्या बक रही थी?"

"गलत बोल रही थी?"

उसे कुछ ध्यान आया। उसने दुबारा फोन लगाया, "सुरेश , प्लीज अपना शेविंग सेट ले लेना। मुझे लगता है उसकी जरूरत पड़ेगी।"

शेविंग सेट! क्या बोल रही है?..... अचानक मेरे दिमाग में एकदम से साफ हो गया ... क्या वहाँ के बाल मूड़ेगी? हाय राम!!!

कुछ ही देर में दरवाजे पर दस्तक हुई।

"हाय निशा", सुरेश ने भीतर आकर मुझे विश किया। और समय में मैं बस एक ठंडी 'हाय' कर देती थी। इस वक्त मुस्कुराना पड़ा।

"क्या प्राब्लम है?"

नेहा मेरी ओर देखी। मैं कुछ नहीं बोली।

"इसने केला खाया है।"

"तो?"

"वो इसके गले में अटक गया है।"

उसके चेहरे पर उलझन के भाव उभरे। "ऐसा कैसे हो सकता है?"

"मुँह खोलो।"

नेहा हँसी रोकती हुई बोली, "उस मुँह में नहीं..... बुद्धू.... दूसरे में... उसमें।" उसने उंगली से नीचे की ओर इशारा किया।

सुरेश के चेहरे पर हैरानी, फिर हँसी , फिर गंभीरता..... (हे भगवान, धरती फट जाए, मैं समा जाऊँ।)

"ये देखो", नेहा ने उसे छिलका दिखाया, "टूटकर अंदर रह गया है।"

"ये तो सीरियस है।" सुरेश सोचता हुआ बोला।

"बहुत कोशिश की, नहीं निकल रहा। तुम कुछ उपाय कर सकते हो?"

सुरेश विचारमग्‍न था। बोला, "देखना पड़ेगा।"

मैंने स्‍वचालित-सा पैरों को आपस में दबा लिया।

"निशा...."

मैं कुछ नहीं सुन पा रही थी, कुछ नहीं समझ पा रही थी। कानों में यंत्रवत आवाज आ रही थी, "निशा... बी ब्रेव.... यह सिर्फ हम तीनों के बीच रहेगा....."

मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाया हुआ है। मुझे पीछे ठेलकर तकिए पर लिटा रही है। मेरी नाइटी ऊपर खिंच रही है.... मेरे पैर, घुटने, जांघें... पेड़ू.... कमर....प्रकट हो रहे हैं। मेरी आत्‍मा पर से भी खाल खींचकर कोई मुझे नंगा कर रहा है। पैरों को घुटनों से मोड़ा जा रहा है....... दोनों घुटनों को फैलाया जा रहा है। मेरा बेबस, असहाय, असफल विरोध.... मर्म के अंदर तक छेद करती परायी नजरें ... स्‍त्री के बेहद गोपनीय एकांत के चिथड़े चिथड़े करती....

जांघों पर, पेड़ू पर घूमते हाथ .... बीच के बालों को फरकाते हुए... होंठों को अलग करने का खिंचाव...।

"साफ से देख नहीं पा रहा। जरा उठाओ।"

मेरे सिर के नीचे से एक तकिया खींचा है। मेरे नितंबों के नीचे हाथ डालकर उठाकर तकिया लगाया जा रहा है.... मेरे पैरों को उठाकर घुटनों को छाती तक लाकर फैला दिया गया है... सबकुछ उनके सामने खुल गया है। गुदा पर ठंडी हवा का स्‍पर्श महसूस हो रहा है...

ॐ भूर्भुव: स्‍व:... तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गोदेवस्‍य धीमहि ..... पता नहीं क्‍यों गायत्री मंत्र का स्‍मरण हो रहा है। माता रक्षा करो...

केले की ऊपरी सतह दिख रही है। योनि के छेद को फैलाए हुए। काले बालों के के फ्रेम में लाल गुलाबी फाँक ... बीच में गोल सफेदी... उसमें नाखून के गड्ढे...

कुछ देर की जांच-परख के बाद मेरा पैर बिस्‍तर पर रख दिया जाता है। मैं नाइटी खींचकर ढंकना चाहती हूँ, पर....

"एक कोशिश कर सकती है।"

"क्‍या?"

"मास्‍टरबेट (हस्‍तमैथुन) करके देखे। हो सकता है ऑर्ग्‍ेज्‍म ((स्‍खलन) के झटके और रिलीज (रस छूटने) की चिकनाई से बाहर निकल जाए।"

नेहा सोचती है।

"निशा!"

मैं कुछ नहीं बोलती। उन लोगों के सामने हस्‍तमैथुन करना! स्‍खलित भी होना!!! ओ माँ!

"निशा", इस बार नेहा का स्‍वर कठोर है, "बोलो....."

क्‍या बोलूँ मैं। मेरी जुबान नहीं खुलती।

"खुद करोगी या मुझे करना पड़ेगा?"

वह मेरा हाथ खींचकर वहां पर लगा देती है, "करो।"

मेरा हाथ पड़ा रहता है।

"डू इट यार"

मैं कोई हरकत नहीं करती। मर जाना बेहतर है।

"लेट अस डू इट फॉर हर (चलो हम इसका करते हैं)।"

मैं हल्‍के से बाँह उठाकर पलकों को झिरी से देखती हूँ। सुरेश सकुचाता हुआ खड़ा है। बस मेरे उस स्‍थल को देख रहा है।

नेहा की हँसी ,"सुंदर है ना?" शर्म की एक लहर आग-सी जलाती मेरे ऊपर से नीचे निकल जाती है। बेशर्म लड़की...।

"क्‍या सोच रहे हो।"

सुरेश दुविधा में है। इजाजत के बगैर किसी लड़की का जननांग छूना! भलामानुस है।

तनाव के क्षण में नेहा का हँसी-मजाक का कीड़ा जाग जाता है, "जिस चीज की झलक भर पाने के लिए ऋषि-मुनि तरसते हैं, वह तुम्‍हें यूँ ही मिल रही है, क्‍या किस्‍मत है तुम्‍हारी!"

मैं पलकें भींच लेती हूँ। साँस रोके इंतजार कर रही हूँ - टांगें खोले।

"कम ऑन, लेट्स डू इट..."
बिस्‍तर पर मेरे दोनों तरफ वजन पड़ता है। एक कोमल और एक कठोर हाथ मेरे उभार पर आ बैठते हैं। बालों पर उंगलियाँ फेरने से गुदगुदी लग रही है। कोमल उंगलियां मेरे होंठों को खोलती हैं अंदर का जायजा लेती हैं। भगनासा का कोमल पिंड तनाव में आ जाता है, छू जाने से ही बगावत करता है। कभी कोमल, कभी कठोर उंगलियाँ उसे पीड़ित करती हैं। उसके सिर को कुचलती, मसलती हैं। गुस्‍से में वह चिनगारियाँ सी छोड़ता है। मेरी जांघें थरथराती हैं, हिलना-डुलना चाहती हैं, पर दोनों तरफ से एक एक हाथ उन्‍हें पकड़े है। न तो परिस्‍थिति, न ही शरीर मेरे वश में है।

"यस ... ऐसे ही..." नेहा मेरा हाथ थपथपाती है तब मुझे पता चलता है कि वह मेरे स्‍तनों पर घूम रहा था। शर्म से भरकर हाथ खींच लेती हूँ।

नेहा हँसती है, "अब ये भी हमीं करें? ओके..."

दो असमान हथेलियाँ मेरे स्‍तनों पर घूमने लगती हैं। नाइटी के ऊपर से। मेरी छातियाँ परेशान दाएं-बाएँ, ऊपर-नीचे लचककर हमले से बचना चाह रही हैं। उनकी कुछ नहीं चलती। जल्‍दी भी उनपर से बचाव का कुछ नहीं-सा झीना परदा भी खींच लिया जाता है। घोंसला उजाड़कर निकाल लिए गए दो सहमे कबूतर ... डरे हुए। उनका गला दबाया जाता है। उन्‍हें दबा दबाकर उनके मांस को मुलायम बनाया जा रहा है -- मजे लेकर खाए जाएंगे। उनकी चोंचें एक साथ इतनी जोर खींची जाती है कि दर्द करती है। कभी दोनों को एक साथ इतनी जोर से मसला जाता है कि कराह उठती हूँ। मैं अपनी ही तेज तेज साँसों की आवाज सुन रही हूँ। नीचे टांगों के केन्‍्द्र में लगातार घर्षण, लगातार प्रहार, कोमल उंगलियों की नाखून की चुभन... कठोर उंगलियों की ताकतवर रगड़। कोमल कली कुचलकर लुंज-पुंज हो गई है। सारे मोर्चों पर एक साथ हमला... सबकुछ एक साथ....। ओह... ओह... साँस तो लेने दो....

"हाँ... लगता है अब गर्म हो गई है।" एक उंगली मेरी गुदा की टोह ले रही है।

मैं अकबकाकर उन्‍हें अपने पर से हँटाना चाहती हूँ। दोनों मेरे हाथ पकड़ लेते हैं। उसके साथ ही मेरे दोनों चूचुकों पर दो होंठ कस जाते हैं। एक साथ उन्‍हें चूसते हैं। कबूतर बेचारे। जैसे बिल्‍ली मुँह में उनका सिर दबाए कुचल रही हो। दोनों चोंचें उठाकर उनके मुखों में घुसे जा रहे हैं।

हरकतें तेज हो जाती हैं।

...............

"यह बहुत अकड़ती थी। आज भगवान ने खुद ही इसे मुझे गिफ्ट कर दिया।" नेहा की आवाज.... मीठी... जहर बुझी....

"तुम इसके साथ?"

"मैं कब से इसका सपना देख रही थी।"

"क्‍या कहती हो?"

"सुन्‍दर है ना ये?" कहती हुई वह मेरे स्‍तनों को मसलती है, उन्‍हें चूसती है। मैं अपने हाँफते साँसों की आवाज खुद सुन रही हूँ। कोई बड़ी लहर मरोड़ती सी आ रही है.........

"निशा, जोर लगाओ, अंदर से ठेलो।" सुरेश की आवाज में पहली बार मेरा नाम... नेहा की आवाज के साथ मिली। गुदा के मुँह पर उंगली अंदर घुसने के लिए जोर लगाती है। (ये उंगली किसकी है?)

मैं कसमसा रही हूँ। दोनों ने मेरे हाथ-पैर जकड़ रखे हैं, "जोर से .... ठेलो।"

मैं जोर लगाती हूँ। कोई चीज मेरे अंदर से रह रहकर गोली की तरह छूट रही है....... रस से चिकनी उंगली सट से गुदा के अंदर दाखिल हो जाती है। मथानी की तरह दाएँ-बाएँ घूमती है।

आआआआह.......... आआआआह.......... आआआआह..........

"यस यस, डू इट......." नेहा की प्रेरित करती आवाज, सुरेश भी कह रहा है। दोनों की हरकतें तेज हो जाती हैं। गुदा के अंदर उंगली की भी। भगनासा पर आनंद उठाती मसलन दर्द की हद तक बढ़ जाती है।

ओ ओ ओ ओ ओ ह............... खुद को शर्म में भिंगोती एक बड़ी लहर, रोशनी के अनार की फुलझड़ी .................. आह..

एक चौंधभरे अंधेरे में चेतना गुम हो जाती है।

...............

"ये तो नहीं हुआ? वैसे ही अंदर है?"... मेरी चेतना लौट रही है, "अब क्‍या करोगी?"

कुछ देर की चुप्‍पी। निराशा और भयावहता से मैं रो रही हूँ।

"रोओ मत", सुरेश मुझे सहला रहा है। इतनी क्रिया के बाद वह भी थोड़ा-थोड़ा मुझपर अधिकार समझने लगा है। वह मेरे आँसू पोंछता है, "इतनी जल्‍दी निराश मत होओ।" उसकी सहानुभूति बुरी नहीं लगती।

कुछ देर सोचकर वह एक आइडिया निकालता है। उसे लगता है उससे सफलता मिल जाएगी।

"तुम मजाक तो नहीं कर रहे, आर यू सीरियस?" नेहा संदेह करती है।

"देखो, वेजीना और एनस के होल्‍स अगल बगल हैं, दोनों के बीच पतली-सी दीवार है। जब मैंने इसकी एनस में उंगली घुसाई तो वह केले के दवाब से बहुत टाइट लग रही थी।"

अब मुझे पता चला कि वह उंगली सुरेश की थी। मैं उसे नेहा की शरारत समझ रही थी।

"तुम बुद्धिमान हो।" नेहा हँसती है, "मैंने तुम्‍हें बुलाकर गलती नहीं की।"

तो यह बहाने से मेरी 'वो' मारना चाह रहा है। गंदा लड़का। मुझे एक ब्‍लू फिल्‍म में देखा गुदा मैथुन का दृश्‍य याद हो आया। वह मुझे बड़ा गंदा लेकिन रोमांचक भी लगा था -- गुदा के छेद में तनाव। कहीं सुरेश ने मेरी ये कमजोरी तो नहीं पकड़ ली? ओ गॉड।

"एक और बात है।" सुरेश नेहा की तारीफ से खुश होकर बोल रहा था, "शी इज सेंसिटिव देयर। जब मैंने उसमें उंगली की तो यह जल्‍दी ही झड़ गई।"

उफ!! मेरे बारे में इस तरह से बात कर रहे हैं जैसे कसाई मुर्गे के बारे में बात कर रहा हो।

"तो तुम्‍हें लगता है शी विल इंजॉय इट।"

"उसी से पूछ लो।"

नेहा खिलखिला पड़ी। "निशा, बोलो, तुम्‍हें मजा आएगा?" वह मेरी हँसी उड़ाने का मौका नहीं छोड़नेवाली थी। पर वही मेरी सबसे बड़ी मददगार भी थी।

चुप्‍पी के आवरण में मैं अपनी शर्म बचा रही थी। लेकिन केला मुझे विवश किए था। मुझे सहायता की जरूरत थी। मेरा हस्‍तमैथुन करके उन दोनों की हिम्‍मत बढ़ गई थी। आश्‍चर्य था मैंने उन्‍हें अपने साथ होने दिया। अब तो मेरी गाँड़ मारने की ही बात हो रही थी। मुझे तुरंत ग्‍लानि हुई। छि:। मैंने कितने गंदे शब्‍द सोचे। मैं कितनी जल्‍दी कितनी बेशर्म हो गई थी!!

"निशा, मजाक की बात नहीं। बी सीरियस।" नेहा अचानक मूड चेंज करके चेतावनी दी। उसका हाथ मेरे योनि पर आया और एक उंगली गुदा के छेद पर आकर ठहर गई। "तुम इसके लिए तैयार हो ना?"

मेरी चुप्‍पी से परेशान होकर उसने कहा, "चुप रहने से काम नहीं चलेगा, यह छोटी बात नहीं है। तुम्‍हें बताना होगा तैयार हो कि नहीं। अगर तुम्‍हें आपत्‍तिजनक लगता है तो फिर हम छोड देते हैं। बोलो।"

मेरी चुप्‍पी यथावत् थी। नेहा ने सुरेश से पूछा, "बोलो क्‍या करें। ये तो बोलती ही नहीं।

"क्‍या कहेगी बेचारी। बुरी तरह फंसी हुई है। शी इज टू मच इम्‍बैरेस्‍ड।" कुछ रुककर वह फिर बोला, "लेकिन अब जो करना है उसमें पड़े रहने से काम नहीं चलेगा। उठकर सहयोग करना होगा।"

"निशा, सुन रही हो ना। अगर मना करना है तो अभी करो।"

"निशा, तुम.... मैं नहीं चाहता, लेकिन इसमें तुमपर... कुछ जबरदस्‍ती करनी पड़ेगी, तुम्‍हें सहना भी होगा।" सुरेश की आवाज में हमदर्दी थी। या पता नहीं मतलब निकालने की चतुराई।

कुछ देर तक दोनों ने इंतजार किया। "चलो इसे सोचने देते हैं। लेकिन जिनती देर होगी, उतना ही खतरा बढ़ता जाएगा।"

सोचने को क्‍या बाकी था! मेरे सामने कोई और उपाय था क्‍या! मेरी खुली टांगों के बीच योनिप्रदेश काले बालों की समस्‍त गरिमा के साथ उनके सामने लहरा रहा था।

मैंने नेहा के हाथ के ऊपर अपना हाथ रख दिया। जो सही समझो करो।

...............

"लेकिन मुझे सही नहीं लग रहा।" सुरेश ने जैसे बम फोड़ा, "मुझे लग रहा है निशा समझ रही है कि मैं इसकी मजबूरी का नाजायज फायदा उठा रहा हूँ।"

बात तो सच थी मगर मैं इसे स्‍वीकार करने की स्‍थिति में नहीं थी। वे मेरी मजबूरी का फायदा तो उठा ही रहे थे।

"खतरा निशा को है। उसे इसके लिए रिक्‍वेस्‍ट करना चाहिए। पर यहाँ तो उल्‍टे हम उससे रिक्‍वेस्‍ट कर रहे हैं। जैसे मदद की जरूरत उसे नहीं हमें है।"

उसका पुरुष अहं जाग गया था। मैं तो समझ रही थी वह मुझे भोगने के लिए बेकरार है, मेरा सिर्फ विरोध न करना ही काफी है। मगर यह तो अब ..............

"मगर यह तो सहमति दे रही है?", नेहा ने मेरे पेड़ू पर दबे उसके हाथ को दबाए मेरे हाथ की ओर इशारा किया। उसे आश्‍चर्य हो रहा था।

"मैं क्‍यों मदद करूं? मुझे क्‍या मिलेगा?"

सुनकर नेहा एक क्षण तो अवाक रही फिर खिलखिलाकर हँस पड़ी। "वाह, क्‍या बात है!" सुरेश इतनी सुंदर लड़की को न केवल मुफ्त में ही भोगने को पा रहा था, बल्कि वह इस 'एहसान' के लिए ऊपर से कुछ मांग भी रहा था। मेरी ना-नुकुर पर यह उसका जोरदार दहला था।

"सही बात है।" नेहा ने समर्थन किया।

"देखो, मुझे नहीं लगता यह मुझसे चाहती है। इसे किसी और से ही दिखा लो।"

मैं घबराई। इतना करा लेने के बाद अब और किसके पास जाउंगी। सुरेश चला गया तो अब किसका सहारा था?

"मेरा एक डॉक्‍टर दोस्‍त है। उसको बोल देता हूँ।" "" उसने परिस्‍थिति को और अपने पक्ष में मोड़ते हुए कहा।

मैं एकदम असहाय, पंखकटी चिड़िया की तरह छटपटा उठी। कहाँ जाऊँ। अंदर रुलाई की तेज लहर उठी, मैंने उसे किसी तरह दबाया। अबतक नग्‍नता मेरी विवशता थी पर अब इससे आगे रोना-धोना अपमानजनक था। मैं उठकर बैठ गई। केले का दबाव अंदर महसूस हुआ। मैंने कहना चाहा, "तुम्‍हें क्‍या चाहिए" पर इमोशन की तीव्रता में मेरी आवाज भर्रा गई। नेहा ने मुझे थपथपाकर ढाढ़स दिया और सुरेश को डाँटा, "तुम्‍हें दया नहीं आती?" मुझे नेहा की हमदर्दी पर विश्‍वास नहीं हुआ। वह निश्‍चय ही मेरी दुर्दशा का आनंद ले रही थी।

"मुझे ज्‍यादा कुछ नहीं चाहिए।"

"क्‍या लोगे?"

सुरेश ने कुछ क्षणों की प्रतीक्षा कराई और बात को नाटकीय बनाने के लिए ठहर ठहरकर स्‍पष्‍ट उच्‍चारण में कहा, "जो इज्‍जत इन्‍होंने केले को बख्‍शी है वही मुझे भी मिले।"

मेरी आँखों के आगे अंधेरा छा गया। अब क्या रहेगा मेरे पास? योनि का कौमार्य बचे रहने की एक जो आखिरी उम्‍मीद बनी हुई थी वह जाती रही। मेरे कानों में उसके शब्‍द सुनाई पड़े, "और वह मुझे प्‍यार और सहयोग से मिले, न कि अनिच्‍छा और जबर्दस्‍ती से।"

पता नहीं क्‍यों मुझे सुरेश की अपेक्षा नेहा से घोर वितृष्‍णा हुई। इससे पहले कि वह मुझे कुछ कहती मैंने सुरेश को हामी भर दी।

...............

मुझे कुछ याद नहीं, उसके बाद क्‍या कैसे हुआ। मेरे कानों में शब्‍द असंबद्ध-से पड़ रहे थे जिनका सिलसिला जोड़ने की मुझमें ताकत नहीं थी। मैं समझने की क्षमता से दूर उनकी हरकतों को किसी विचारशून्‍य गुड़िया की तरह देख रही थी, उनमें साथ दे रही थी। अब नंगापन एक छोटी सी बात थी, जिससे मैं काफी आगे निकल गई थी। 'कैंची', 'रेजर', 'क्रीम', 'ऐसे करो', 'ऐसे पकड़ो', 'ये है', 'ये रहा', 'वहाँ बीच में', 'कितने गीले', 'सम्‍हाल के', 'लोशन', 'सपना-सा है'............... वगैरह वगैरह स्‍त्री पुरुष की मिली-जुली आवाजें, मिले-जुले स्‍पर्श। बस इतना समझ पाई थी कि वे दोनों बड़ी तालमेल और प्रसन्‍नता से काम कर रहे थे। मैं बीच बीच में मन में उठनेवाले प्रश्‍नों को 'मैंने पूर्ण सहमति दी है' के रोडरोलर के नीचे रौंदती चली गई। पूछा नहीं कि वे वैसा क्‍यों कर रहे थे, मुझे वहाँ पर मूँड़ने की क्‍या आवश्‍यकता थी। लोशन के उपरांत की जलन के बाद ही मैंने देखा वहाँ क्‍या हुआ है। शंख की पीठ-सी उभरी गोरी चिकनी सतह ऊपर ट्यूब्‍लाइट की रौशनी में चमक रही थी। नेहा ने जब एक उजला टिशू पेपर मेरे होंठों के बीच दबाकर उसका गीलापन दिखाया तब मैंने समझा कि मैं किस स्‍तर तक गिर चुकी हूँ। एक अजीब सी गंध, मेरे बदन की, मेरी उत्‍तेजना की... एक नशा, आवेश, बदन में गर्मी का एहसास... बीच बीच में होश और सजगता के आते द्वीप। जब नेहा ने मेरे सामने लहराती उस चीज की दिखाते हुए कहा, 'इसे मुँह में लो' तब मुझे एहसास हुआ कि मैं उस चीज को जीवन में पहली बार देख रही हूँ। साँवलेपन की तनी छाया, मोटी, लंबी, क्रोधित ललाट-सी नसें, सिलवटों की घुंघचनों के अंदर से आधा झाँकता मुलायम गोल गुलाबी मुख -- शर्माता, पूरे लम्‍बाई की कठोरता के प्रति विद्रोह-सा करता। मैं नेहा के चेहरे को देखती रह गई। यह मुझे क्‍या कह रही है!

"इसे गीला करो, नहीं तो अंदर कैसे जाएगा।" नेहा ने मेरा हाथ पकड़कर उसे पकड़ा दिया।

"निशा, यू हैव प्रॉमिस्‍ड।"

मेरे हाथ अपने-आप उसपर सरकने लगा। आगे-पीछे, आगे-पीछे।

"हाँ, ऐसे ही।" मैं उस चीज को देख रही थी। उसका मुझसे परिचय बढ़ रहा था।

"अब मुँह में लो।"

मुझे अजीब लग रहा था। गंदा भी........... ।

"हिचको मत। साफ है। सुबह ही नहाया है।" नेहा की मजाक करने की कोशिश........। मेरे हाथ यंत्रवत हरकत करते रहे।

"लो ना" नेहा ने पकड़कर उसे मेरे मुँह की ओर बढ़ाया। मैंने मुँह पीछे कर लिया।

"इसमें कुछ मुश्‍किल नहीं है। मैं दिखाऊँ?"

नेहा ने उसे पहले उसकी नोंक पर एक चुंबन दिया और फिर उसे मुँह के अंदर खींच लिया। सुरेश के मुँह से साँस निकली। उसका हाथ नेहा के सिर के पीछे जा लगा। वह उसे चूसने लगी। जब उसने मुँह निकाला तो वह थूक में चमक रहा था। मैं आश्‍चर्य में थी कि सदमे में, पता नहीं।

नेहा ने अपने थूक को पोंछा भी नहीं, मेरी ओर बढ़ा दिया। "ये लो।"

"लो ना.........." उसने उसे पकड़कर मेरी ओर बढ़ाया। सुरेश ने पीछे से मेरा सिर दबाकर आगे की ओर ठेला। लिंग मेरे होंठों से टकराया। मेरे होंठों पर एक मुलायम, गुदगुदा एहसास। मैं दुविधा में थी कि मुँह खोलूँ या हंटाऊँ कि "निशा, यू हैव प्रॉमिस्‍ड" की आवाज आई। मैंने मुँह खोल दिया।

मेरे मुँह में इस तरह की कोई चीज का पहला एहसास था। चिकनी, उबले अंडे जैसी गुदगुदी, पर उससे कठोर; खीरे जैसी सख्‍त, पर उससे मुलायम। केले जैसी। हाँ, मुझे याद आया। सचमुच इसके सबसे नजदीक केला ही लग रहा था। कसैलेपन के साथ। एक विचित्र-सी गंध, कह नहीं सकती कि अच्‍छी लग रही थी कि बुरी। जीभ पर सरकता हुआ जाकर गले से सट जा रहा था। नेहा मेरा सिर पीछे से ठेल रही थी। गला रुंध जा रहा था और भीतर से उबकाई का वेग उभर रहा था।

"हाँ, ऐसे ही। जल्‍दी ही सीख जाओगी।"

मेरे मुँह से लार चू रहा था, तार-सा खिंचता। मैं कितनी गंदी, घिनौनी, अपमानित, गिरी हुई लग रही हूँगी।

सुरेश आह ओह करता सिसकारियाँ भर रहा था।

फिर उसने लिंग मेरे मुँह से खींच लिया। "ओह अब छोड़ दो, नहीं तो मुँह में ही........."

मेरे मुँह से उसके निकलने की 'प्‍लॉप' की आवाज निकलने के बाद मुझे एहसास हुआ मैं उसे कितनी जोर से चूस रही थी। वह साँप-सा फन उठाए मुझे चुनौती दे रहा था।

उन दोनों ने मुझे पेट के बल लिटा दिया। पेड़ू के नीचे तकिए डाल डालकर मेरे नितम्‍बों को उठा दिया। मेरे चूतड़ों को फैलाकर उनके बीच कई लोंदे वैसलीन लगा दिया।

कुर्बानी का क्षण। गर्दन पर छूरा चलने के पहले की तैयारी।

"पहले कोई पतली चीज से।"

नेहा मोमबत्‍ती का पैकेट ले आई। हमने नया ही खरीदा था। पैकेट फाड़कर एक कैंडिल निकाला। कुछ ही क्षणों में गुदा के मुँह पर उसकी नोंक गड़ी। नेहा मेरे चूतड़ फैलाए थी। नाखून चुभ रहे थे। सुरेश कैंडिल को पेंच की तरह बाएँ दाएँ घुमाते हुए अंदर ठेल रहा था। मेरी गुदा की पेशियाँ सख्‍त होकर उसके प्रवेश का विरोध कर रही थीं। वहाँ पर अजीब सी गुदगुदी लग रही थी। जल्‍दी ही मोम और वैसलीन के चिकनेपन ने असर दिखाया और नोंक अंदर घुस गई। फिर उसे धीरे धीरे अंदर बाहर करने लगा। मुझसे कहा जा रहा था, "रिलैक्‍स... रिलैक्‍स... टाइट मत करो... ढीला छोड़ो... रिलैक्‍स... रिलैक्‍स ............. "

मैं रिलैक्‍स करने, ढीला छोड़ने की कोशिश कर रही थी।

कुछ देर के बाद उन्‍होंने मोमबत्‍ती निकाल ली। गुदा में गुदगुदी और सुरसुरी उसके बाद भी बने रहे।

कितना अजीब लग रहा था यह सब! शर्म नाम की चिड़िया उड़कर बहुत दूर जा चुकी थी।

"अब असली चीज।" उसके पहले सुरेश ने उंगली घुसाकर छेद को खीचकर फैलाने की कोशिश की। "रिलैक्‍स... रिलैक्‍स .. रिलैक्‍स ........... "

जब 'असली चीज' गड़ी तो मुझे उसके मोटेपन से मैं डर गई। कहाँ कैन्‍डिल का नुकीलापन और कहाँ ये भोथरा मुँह। दुखने लगा। सुरेश ने मेरी पीठ को चाँप दिया। नेहा ने दोनो तरफ मेरे हाथ पकड़ लिए। गुदा के मुँह पर कसकर जोर पड़ा। उन्‍होंने एक-एक करके मेरे घुटनों को मोड़कर सामने पेट के नीचे घुसा दिया गया। मेरे नितम्‍ब हवा में उठ गए। मैं आगे से दबी, पीछे से उठी। असुरक्षित। उसने हाथ घुसाकर मेरे पेट को घेरा ...

अंदर ठेलता जबर्दस्‍त दबाव...

ओ माँ.ऽ..ऽ..ऽ..ऽ..ऽ..ऽ...................................ऽ