Note: You can change font size, font face, and turn on dark mode by clicking the "A" icon tab in the Story Info Box.
You can temporarily switch back to a Classic Literotica® experience during our ongoing public Beta testing. Please consider leaving feedback on issues you experience or suggest improvements.
Click hereअब मामला निर्मल के हाथ से निकल चुका है। वह कुंठा में अपने मुक्के में मुक्का मारता है। मैं सुरक्षित हूँ। मेरा खून चखनेवाले उसे राक्षस को एक लात जमाने की इच्छा होती है।
दुर्घटना से उबर चुकी हूँ। लेकिन स्थायी जख्म के साथ।
नेहा निर्देश देती है, "कोई कुछ नहीं बोलेगा। सबकोई एकदम नार्मल जैसा व्यवहार करेंगे।"
नेहा दरवाजा खोलकर साथियों से बात कर रही है, हाय अल्का, हाय प्रीति।.... कुछ नहीं हमलोग ऐसे ही सेलीब्रेट कर रहे थे। एक खास बाजी जीतने की।
मेरा कलेजा मुँह को आ जाता है, कहीं बता न दे। पर नेहा को गेंद गोल तक ले जाने फिर वहाँ से वापस लौटा लाने में मजा आता है। ऐसे सामान्य ढंग से बात कर रही है, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। बड़ी अभिनयकुशल है।
............
उस दिन नेहा ने अपने करीबी दोस्त निर्मल को खो दिया - मेरी खातिर। उस वहशी से मेरी रक्षा की। एक से बढ़कर एक आते अपमान के दौर में एक जगह मेरे छोटे से सम्मान को बचाया। उसने मुझे केले के गहरे संकट से निकाला। कितना बड़ा एहसान किया उसने मुझपर! लेकिन किस कीमत पर? मेरे मन और आत्मा में जो घाव लगा, मैं किसी तरह मान नहीं पाती कि उसके लिए नेहा जिम्मेदार नहीं थी। बल्कि उसी ने मेरी दुर्दशा कराई... । उसी के उकसावे पर मैंने केले को आजमाया था। मेरी उस छोटी सी गलती को नेहा ने पतन की हर इंतिहा से आगे पहुंचा दिया। फिर भी पहला दोष तो मेरा ही था। मैंने नेहा से दोस्ती तोड देनी चाही -- बेहद अप्रत्यक्ष तरीके से, ताकि अहसान फरामोश नहीं दिखूँ।
पर मेरा उससे पिंड कहाँ छूटा। वह मेरी तारणहार, मेरी विनाशक दोनों ही थी। अमरीका में उसने जो मेरे साथ कराया, वह क्या कम शर्मनाक था?