केले का भोज (A Banana Feast)

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पहला प्‍यार, पहला प्रवेश, पहली पीड़ा, पहली अंतरंगता, पहली नग्‍नता... क्‍या क्‍या सोचा था। यहाँ कोई चुम्‍बन नहीं था, न प्‍यार भरी कोई सहलाहट, न आपस की अंतरंगता जो वस्‍त्रहीनता को स्‍वादिष्‍ट और शोभनीय बनाती है। सिर्फ रिलैक्‍स... रिलैक्‍स .. रिलैक्‍स का यंत्रगान.........

कैंडिल की अभ्‍यस्‍त गुदा पर वार अंतत: सफल रहा -- लिंग गिरह तक दाखिल हो गया। धीरे धीरे अंदर सरकने लगा। अब योनि में भी तड़तड़ाहट होने लगी। उसमें ठुँसा केला दर्द करने लगा।

"हाँ हाँ हाँ, लगता है निकल रहा है", नेहा मेरे नितम्‍बों के अंदर झाँक रही थी। "मुँह पर आ गया है...

"मगर कैसे खींचूं?"

लिंग अंदर घुसता जा रहा था। धीरे धीरे पूरा घुस गया और लटकते फोते ने केले को ढँक दिया।

"बड़ी मुश्‍किल है।" नेहा की आवाज में निराशा थी।

"दम धरो", सुरेश ने मेरे पेट के नीचे से तकिए निकाले और मेरे ऊपर लम्‍बा होकर लेट गया। एक हाथ से मुझे बांधकर अंदर लिंग घुसाए घुसाए वह पलटा और मुझे ऊपर करता हुआ मेरे नीचे आ गया। इस दौरान मेरे घुटने पहले की तरह मुडे रहे। मैं उसके पेट के ऊपर पीठ के बल लेटी हो गई और मेरा पेट, मेरा योनिप्रदेश सब ऊपर सामने खुल गए। नेहा उसकी इस योजना से प्रशंसा से भर गई। "यू आर सो क्‍लीवर!" उसने मेरे घुटने पकड़ लिए। मैं खिसक नहीं सकती थी। नीचे कील में ठुकी हुई थी।

मेरी योनि और केला उसके सामने परोसे हुए थे। नेहा उनपर झुक गई।

'ओह...' न चाहते हुए भी मेरी साँस निकल गई। नेहा के होठों और जीभ का मुलायम, गीला, गुलगुला... गुदगुदाता स्‍पर्श। होंठों और उनके बीच केले को चूमना चूसना... वह जीभ के अग्रभाग से उपर के दाने और खुले माँस को कुरेद कुरेदकर जगा रही थी। गुदगुदी लग रही थी और पूरे बदन में सिहरनें दौड़ रही थीं। गुदा में घुसे लिंग की तड़तड़ाहट, योनि में केले का कसाव, उपर नेहा की जीभ की रगड़... दर्द और उत्‍तेजना का गाढ़ा घोल.....

मेरा एक हाथ नेहा के सिर पर चला गया। दूसरा हाथ बिस्‍तर पर टिका था, संतुलन बनाने के लिए।

सुरेश ने लिंग को किंचित बाहर खींचा और पुन: मेरे अंदर धक्‍का दिया। नेहा को पुकारा, "अब तुम खींचो....."

नेहा के होंठ मेरी पूरी योनि को अपने घेरे में लेते हुए जमकर बैठ गए। उसने जोर से चूसा। मेरे अंदर से केला सरका.........

एक टुकड़ा उसके दाँतों से कटकर होंठों पर आ गया। पतले लिसलिसे द्रव में लिपटा। नेहा ने उसे मुँह के अंदर खीच लिया और "उमऽऽऽ, कितना स्‍वादिष्‍ट है" करती हुई चबाकर खा गई। मैं देखती रह गई। कैसी गंदी लड़की है!

मेरे सिर के नीचे सुरेश के जोर से हँसने की आवाज आई। उसने उत्‍साहित होकर गुदा में दो धक्‍के और जड़ दिये।

नेहा पुन: चूसकर एक स्‍लाइस निकाली। सुरेश पुकारा -- "मुझे दो।" पर नेहा ने उसे मेरे मुँह में डाल दिया, "लो, तुम चखो।"

वही मुसाई-सी गंध मिली केले की मिठास। बुरा नहीं लगा। अब समझ में आया क्‍यों लड़के योनि को इतना रस लेकर चाटते चूसते हैं। अबतक मुझे यह सोचकर ही कितना गंदा लगता था। पर इस समय वह स्‍वाभाविक, बल्‍कि करने लायक लगा। मैं उसे चबाकर निगल गई।

नेहा ने मेरा कंधा थपथपाया, "गुड..... स्‍वादिष्‍ट है ना? "

वह फिर मुझपर झुक गई। कम से कम आधा केला अभी अंदर ही था।

"खट खट खट" ......................................... दरवाजे पर दस्‍तक हुई।

मैं सन्‍न। वे दोनेां भी सन्‍न। ये क्‍या हुआ?

"खट खट खट" ..... "सुरेश, दरवाजा खोलो।" निर्मल उसके हॉस्‍टल से आया था। उसको मालूम था कि सुरेश यहाँ है।

किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि क्‍या करे। लड़कियों के कमरे में लड़का घुसा हुआ और दरवाजा बंद? क्‍या कर रहे हैं वे!!

"खट खट खट.... क्‍या कर रहे हो तुमलोग?"

जल्‍दी खोलना जरूरी था। नेहा बोली, "मैं देखती हूँ।" सुरेश ने रोकना चाहा पर समय नहीं था। नेहा ने अपने बिस्‍तर की बेडशीट खींचकर मेरे उपर डाली और दरवाजे की ओर बढ़ गई। निर्मल नेहा की मित्र मंडली में काफी करीब था।

किवाड़ खोलते ही "बंद क्‍यों है?" कहता निर्मल अंदर आ गया। नेहा ने उसे दरवाजे पर ही रोककर बात करने की कोशिश की मगर वह "सुरेश बता रहा था निशि को कुछ प्राव्‍लम है?" कहता हुआ भीतर घुस गया। मुझे गुस्‍सा आया कि नेहा ने किवाड़ खोल क्‍यों दिया, बंद दरवाजे के पीछे से ही बात करके उसे टालने की कोशिश क्‍यों नहीं की।

उसकी नजर चादर के अंदर मेरी बेढब ऊँची-नीची आकृति पर पड़ी। "ये क्‍या है?"उसने चादर खींच दी। सब कुछ नंगा, खुल गया..... (चादर को पकड़कर रोक भी नहीं पाई।) उसकी आँखें फैल गर्इं।

मुझे काटो तो खून नहीं। कोई कुछ नहीं बोला। न नेहा, न मेरे नीचे दबा सुरेश, न मैं।

निर्मल ढिठाई से हँसा, "तो ये प्राब्‍लम है निशि को... इसे तो मैं भी दूर कर सकता था।" वह सुरेश की तरह जेंटिलमैन नहीं था।

'नहीं, ये प्रॉब्‍लम नहीं है' नेहा आगे बढ़कर टोकी।

"तो फिर?"

"इसके अंदर केला फँस गया है। देखते नहीं?"

सुरेश मेरे नीचे दुबका था। मेरे दोनों पाँव सहारे के लिए सुरेश की जांघों के दोनों तरफ बिस्‍तर पर जमे थे। टांगें समेटते ही गिर जाती। निर्मल बिना संकोच के कुछ देर वहाँ पर देखा। फिर उसने नजर उठाकर मुझे, फिर निशा को देखा। हम दोनों के मुँह पर केला लगा हुआ था। मुझे लग गया कि वह समझ गया है। व्‍यंग्‍य भरी हँसी से बोला, "तो केले का भोज चल रहा है!!" उंगली बढ़ाकर उसने मेरे मुँह पर लगे केले को पोछा और मेरी योनि की ओर इशारा करके बोला, "इसमें पककर तो और स्‍वादिष्‍ट हो गया होगा?"

हममें से कौन भला क्‍या कहता?

"मुझे भी खिलाओ।" वह हमारे हवाइयाँ उड़ते चेहरे का मजा ले रहा था।

"नहीं खिलाना चाहते? ठीक है मैं चला जाता हूँ।"

रक्‍त शरीर से उठकर मेरे माथे में चला आया। बाहर जाकर यह बात फैला देगा। पता नही मैंने क्‍या कहा या किया कि नेहा ने निर्मल को पकड़कर रोक लिया। वह बिस्‍तर पर चढ़ी, मेरे पैरों को फैलाकर मेरी योनि में मुँह लगाकर चूसकर एक टुकड़ा काट ली। निर्मल ने उसे टोका, 'मुँह में ही रखो, मैं वहीं से खाऊंगा।' उसने नेहा का चेहरा अपनी ओर घुमा लिया।

दोनों के मुँह जुड़ गए।

यह सब क्‍या हो रहा था? मेरी आंखों के सामने दोनों एक-दूसरे के चेहरे को पकड़कर चूम चूस रहे थे। नेहा उसे खिला रही थी, वह खा रहा था।

निर्मल मुँह अलगकर बोला, "आहाहा, क्‍या स्‍वादिष्‍ट है। दिव्‍य, सोमरस में डूबा, आहाहा, आहाहा... दो दो जगहों का।" फिर मुँह जोड़ दिया।

दो दो जगहों का? हाँ, मेरी योनि और नेहा के मुख का। सोमरस। मेरी योनि की मुसाई गंध के सिवा उसमें नेहा के मुँह की ताजी गंध भी होगी। कैसा स्‍वाद होगा? छि:। मैंने अपनी बेशर्मी के लिए खुद को डाँटा।

"अब मुझे सीधे प्‍याले से ही खाने दो।"

नेहा हँट गई। निर्मल उसकी जगह आ गया। मैंने न जाने कौन सेी हिम्‍मत जुटा ली थी। जब सबकुछ हो ही गया था तो अब लजाने के लिए क्‍या बाकी रहा था। मैंने उसे अपने मन की करने दिया। अंतिम छोटा-सा ही टुकड़ा अंदर बचा था। अंतिम कौर।

"मेरे लिए भी रहने देना।" मेरे नीचे से सुरेश ने आवाज लगाई। अबतक उसमें हिम्‍मत आ गई थी।

"तुम कैसे खाओगे? तुम तो फँसे हुए हो।" निर्मल ने कहकहा लगाया, "फँसे नही, धँसे हुए....."

नेहा ने बड़े अभिभावक की तरह हस्तक्षेप किया, "निर्मल, तुम सुरेश की जगह लो। सुरेश को फ्री करो।"

क्‍या??????????????????????????????

हैरानी से मेरा मुँह इतना बड़ा खुल गया। नेहा यह क्‍या कर रही है?

निर्मल ने झुककर मेरे खुले मुँह पर चुंबन लगाया, "अब शोर मत करो।" उसने जल्‍दी से बेल्‍ट की बकल खोली, पैंट उतारी। चड़ढी सामने बुरी तरह उभरी तनी हुई थी। उभरी जगह पर गीला दाग।

वह मेरे देखने को देखता हुआ मुसकुराया, "अच्‍छी तरह देख लो।" उसने चड़ढी नीचे सरका दी। "ये रहा, कैसा है?"

इस बार डर और आश्‍चर्य से मेरा मुँह खुला रह गया।

वह बिस्‍तर पर चढ़ गया और मेरे खुले मुँह के सामने ले आया। "लो, चखो।"

मैंने मुँह घुमाना चाहा पर उसने पकड़ लिया। "मैंने तुम्‍हारावाला तो स्‍वाद लेकर खाया, तुम मेरा चखने से भी डरती हो?"

मेरी स्‍थिति विकट थी। क्‍या करूँ। लाचार मैंने नेहा की ओर देखा। वह बोली, "चिंता न करो। गो अहेड, अभी सब नहाए धोए हैं।" मुझे हिचकिचाते देखकर उसने मेरा माथा पकड़ा और उसके लिंग की ओर बढ़ा दिया।

निर्मल का लिंग सुरेश की अपेक्षा सख्‍त और मोटा था। उसके स्‍वभाव के अनुसार। मुँह में पहले स्‍पर्श में ही लिसलिसा नमकीन स्‍वाद भर गया। अधिक मात्रा में रिसा हुआ रस। मुझे वह अजीब तो नहीं लगा, क्‍योंकि सुरेश के बाद ये स्‍वाद और गंध अजनबी नहीं रह गए थे लेकिन अपनी असहायता और दुर्गति पर बेहद क्षोभ हो रहा था। मोटा लिंग मुँह में भर गया था। निर्मल उसे ढिठाई से मेरे गले के अंदर ठेल रहा था। मुझे बार बार उबकाई आती। दम घुटने लगता। पर कमजोर नहीं दिखने की कोशिश में किए जा रही थी। नेहा प्‍यार से मेरे माथे पर हाथ फेर रही थी लेकिन साथ-साथ मेरी विवशता का आनंद भी ले रही थी। जब जब निर्मल अंदर ठेलता वह मेरे सिर को पीछे से रोककर सहारा देती। दोनों के चेहरे पर खुशी थी। नेहा हँस रही थी। मैं समझ रही थी वह मुझे फँसायी है।

अंतत: निर्मल ने दया की। बाहर निकाला। आसन बदले जाने लगे। मुझे जिस तरह से तीनेां किसी गुड़िया की तरह उठा उठाकर सेट करने लगे उससे मुझे बुरा लगा। मैंने विरोध करते हुए निर्मल को गुदा के अंदर लेने से मना कर दिया। "मार ही डालोगे क्‍या?" मुझे सुरेश की ही वजह से अंदर काफी दुख रहा था। निर्मल के से तो फट ही जाती। और मैं उस ढीठ को अंदर लेकर पुरस्‍कृत भी नहीं करना चाहती थी।

केला इतनी देर में अंदर ढीला भी हो गया था। जितना बचा था वह आसानी से सुरेश के मुँह में खिंच गया। वह स्‍वाद लेकर केले को खा रहा था। उसके चेहरे पर बच्‍चे की सी प्रसन्‍नता थी। उसने नेहा की तरह मुझे फँसाया नहीं था, न ही निर्मल की तरह ढीठ बनकर मुझे भोगने की कोशिश की थी। उसने तो बल्‍कि आॅफर भी किया था कि मैं नहीं चाहती हूँ तो वह चला जाएगा। पहली बार वह मुझे तीनों में भला लगा।

योनि खाली हुई -- लेकिन सिर्फ थोड़ी के लिए। उसकी अगली परीक्षाएँ बाकी थीं। सुरेश को दिया वादा दिमाग में हथौड़े की तरह बज रहा था -- 'जो इज्‍जत केले को मिली है वह मुझे भी मिले।' समस्‍या की सिर्फ जड़ खत्‍म हुई थी --डालियाँ पत्‍ते नहीं।

काश, ये सब सिर्फ एक दु:स्‍वप्‍न निकले। मां संतोषी!

लेकिन दु:स्‍वप्‍न किसी न समाप्‍त होनेवाले हॉरर फिल्‍म की तरह चलता जा रहा था। मैं उसकी दर्शक नहीं, किरदार बनी सबकुछ भुगत रही थी। मेरी उत्‍तेजना की खुराक बढ़ाई जा रही थी। सुरेश मेरी केले से खाली हुई योनि को पागल-सा चूम, चाट, चूस रहा था। उसकी दरार में जीभ घुसा-घुसाकर ढूँढ रहा था। गुदगुदी, सनसनाहट की सीटी कानों में फिर बजनी शुरू हो गई। होश कमजोर होने लगे। क्‍या, क्‍यों, कैसे हो रहा है..... पता नहीं। नशे में मुंदती आँखों से मैंने देखा, मेरी बाई तरफ निर्मल, दार्इं तरफ नेहा लम्‍बे होकर लेट रहे हैं। उन्‍होंने मेरे दोनों हाथों को अपने शरीरों के नीचे दबा लिया है और मेरे पैरों को अपने पैरों के अंदर समेट लिया है। मेरे माथे के नीचे तकिया ठीक से सेट किया जा रहा है और ................ स्‍तनों पर उनके हाथों का खेल। वे उन्‍हें सहला, दबा, मसल रहे हैं, उन्‍हें अलग अलग आकृतियों में मिट्टी की तरह गूंध रहे हैं। चूचुकों को चुटकियों में पकड़कर मसल रहे हैं, उसकी नोकों में उंगलियाँ गड़ा रहे हैं। दर्द होता है, नहीं दर्द नहीं, उससे ठीक पहले का सुख; नहीं सुख नहीं, दर्द। दर्द और सुख दोनों ही। वे चूचुकों को ऐसे खींच रहे हैं मानों स्‍तनों से उखाड़ लेंगे। खिंचाव से दोनों स्‍तन उल्‍टे शंकु के आकर में तन जाते हैं। नीचे मेरी योनि शर्म से आंखें भींचे है। सुरेश उसकी पलकों पर प्‍यार से उपर से नीचे जीभ से काजल लगा रहा है। उसकी पलकों को खोलकर अंदर से रिसते आँसुओं को चूस चाट रहा है। पता नहीं उसे उसमें कौन-सा अद़भुत स्‍वाद मिल रहा है। मैं टांगे बंद करना चाहती हूँ लेकिन वे दोनों तरफ से दबे हैं। विवश, असहाय।

कोई रास्‍ता नहीं। इसलिए कोई दुविधा भी नहीं। जो कुछ आ रहा है उसका सीधा सीधा बिना किसी बाधा के भोग कर रही हूँ। लाचार समर्पण। और मुझे एहसास होता है -- इस निपट लाचारी, बेइज्‍जती, नंगेपन, उत्‍तेजना, जबरदस्‍ती भोग के भीतर एक गाढ़ा स्‍वाद है, जिसको पाकर ही समझ में आता है। शर्म और उत्‍तेजना के गहरे समुद्र में उतरकर ही देख पा रही हूँ -- आनंदानुभव के चमकते मोती। चारों तरफ से आनंद का दबाव। चूचुकों, योनि, भगनासा, गुदा का मुख, स्‍तनों का पूरा उभार, बगलें... सब तरफ से बाढ़ की लहरों पर लहरों की तरह उत्‍तेजना का शोर। पूरी देह ही मछली की तरह बिछल रही है। मैं आह आह कर कर रही हूँ वे उन आहों में मेरी छोड़ी जा रही सुगंधित साँस को अपनी साँस में खीच रहे हैं। मेरे खुलते बंद होते मुँह को चूम रहे हैं। निर्मल, नेहा, सुरेश.... चेहरे आँखों के सामने गड्डमड् हो रहे हैं। वे चूस रहे हैं, चूम रहे हैं, सहला रहे हैं,... नाभि, पेट,, नितंब, कमर, बांहें, गाल, सभी... एक साथ...। प्‍यार? वह तो कोई दूसरी चीज है -- दो व्‍यक्‍तियों का बंधन, प्रतिबद्धता। यह तो शुद्ध सुख है, स्‍वतंत्र, चरम, अपने आप मे पूरा। कोई खोने का डर नहीं, कोई पाने का लालच नहीं। शुद्ध शारीरिक, प्राकृतिक, इंश्‍वर के रचे शरीर का सबसे सुंदर उपहार।

ह: ह: ह: तीनों की हँसी गूंजती है। वे आनंदमग्‍न है। मेरा पेट पर्दे की तरह उपर नीचे हो रहा है। कंठ से मेरी ही अनपहचानी आवाजें निकल रही हैं। मैं आँखें खोलती हूँ। सीधी योनि पर नजर पड़ती है, और उठकर सुरेश के चेहरे पर चली जाती है, जो उसे दीवाने सा सहला, पुचकार रहा है। उससे नजर मिलती है और झुक जाती है। आश्‍चर्य है इस अवस्‍था में भी मुझे शर्म आती है। वह झुककर मेरी पलकों को चूमता है। नेहा हँसती है। निर्मल, वह बेशर्म, कठोर मेरी बांईं चुचूक में दाँत काट लेता है। दर्द से भरकर मैं उठना चाहती हूँ। पर उनके भार से दबी हूँ। नेहा मेरे होंठ चूस रही है।

सुरेश कह रहा है, "अब मैं वह इज्‍जत लेने जा रहा हूँ जो तुमने केले को दी।" मैं उसके चेहरे को देखती हूँ। एक अबोध की तरह, जैसे वह क्‍या करनेवाला है मुझे नहीं मालूम। नेहा मुझे चिकोटी काटती है, "डार्लिंग, तैयार हो जाओ, इज्‍जत देने के लिए। तुम्‍हारा पहला एकसपीरिएंस।"

प्रथम संभोग, हर लड़की का संजोया सपना। सुरेश अपना लिंग मेरी योनि पर लगाता है। होंठों के बीच धँसाकर ऊपर नीचे रगड़ता है। नेहा अधीर है, "अब और कितनी तैयारी करोगे? लाओ मुझे दो।" उठकर सुरेश के लिंग को खींचकर अपने मुँह में ले लेती है। मैं ऐसी जगह पहुँच गई हूँ जहाँ उसे यह करते देखकर गुस्‍सा भी नही आ रहा। नेहा कुछ देर तक लिंग को चूसकर पूछती है, "अब तैयार हो ना? करो!" निर्मल बेसब्र होकर होकर सुरेश को कहता है, "तुम हँटो, मैं करके दिखाता हूँ।" मैं अपनी बाँह से पकड़कर उसे रोकती हूँ। वह मुझे थोड़ा आश्‍चर्य से देखता है।

नेहा झुककर मेरे योनि के होंठों को खोलती है। निर्मल मेरा बायाँ पैर अपनी तरफ खींचकर दबा देता है, ताकि विरोध न कर सकूं। मैं विरोध करूंगी भी नहीं। अब विरोध में क्‍या रखा है। मैं अब परिणाम चाहती हूँ।

सूरेश छेद के मुँह पर लिंग टिकाता है। दबाव देता है। मैं साँस रोक लेती हूँ। मेरी नजर उसी विन्‍दु पर टिकी है। केले से दुगुना मोटा और लम्बा। छेद के मुँह पर पहली खिंचाव से दर्द होता है। मैं उसे महत्‍व नहीं देती। सुरेश फिर से ठेलता है। थोड़ा और दर्द। वह समझ जाता है मुझे तोड़ने में श्रम करना होगा। नेहा को अंदाजा हो रहा है। वह उसका चेहरा देख रही है। वह उसे हमेशा निर्मल की अपेक्षा अधिक तरजीह देती है। मुझे यह बात अच्‍छी लगती है। निर्मल जबर्दस्‍ती घुस आया है।

नेहा पूछती है, "वैसलीन लाऊँ?" पर इसकी जरूरत नहीं। चूमने चाटने से पहले से ही काफी गीली हूँ। सुरेश बोलता है, "इसको ठीक से पकड़ो।" दोनों मुझे कसकर पकड़ लेते हैं। सुरेश, वह जेंटिलमैन, एक जानवर की तरह जोर लगाता है। मेरे अंदर लकड़ी-सी फटती है। चीख निकल जाती है। मैं हँटाने के लिए जोर लगाती हूँ। बेबस। सुरेश बाहर निकालता है, लेकिन थोड़ा ही। लिंग का लाल डरावना माथा अंदर ही है। मेरा पेट जोर जोर से उपर नीचे हो रहा है। मेरी सिसकियाँ सुनकर नेहा दिलासा दे रही है "बस पहली बार ही...... "

निर्मल -- असभ्‍य, जानवर -- क्रूर खुशी से हँस रहा है। कहता है, "बस, अबकी बार इसे फाड़ दे।" नेहा उसे डाँटती है।

ललकार सुनकर सुरेश की आंखों में खून उतर आया है। मुझे मर्दों से डर लगता है। कितने भी सभ्‍य हों, कब वहशी बन जाएँ, ठिकाना नहीं। नेहा सुरेश को टोकती है, "धीरे से।" मगर सुरेश के मुँह से 'हुम्‍म' की-सी आवाज निकलती है और एक जोर का भीषण वार होता है। मेरी आँखों के आगे तारे नाच जाते हैं। निर्मल और नेहा मुँह बंद कर मेरी चीख दबा देते हैं।

कुछ देर के लिए चेतना लुप्‍त हो जाती है...

मेरी आँखें खुलती हैं। नजर सीधी वहीं पर जाती है। सुरेश का पेडूँ मेरे पेडूँ से मिला हुआ है। लिंग अदृश्य है। मेरे ताजे मुंडे हुए पेडूँ में उसके पेड़ूँ के छोटे छोटे बालों की खूंटियाँ गड़ रही हैं।

सब मेरा चेहरा देख रहे हैं। नेहा से नजर मिलने पर वह मुसकुराती है। सुरेश धीरे धीरे लिंग निकालता है। लिंग का माथा लाल खून में चमक रहा है। मुझे खून देखकर डर लगता है। आँसू निकल जाते हैं, ये मेरा क्‍या कर डाला। लेकिन नेहा प्रफुल्‍लित है। वह 'बधाई हो' कहकर मेरा गाल थपथपाती है। निर्मल ताली बजाता है, "क्‍या बात है यार, एकदम फाड़ डाला!"। सुरेश मानों सिर झुकाकर प्रशंसा स्‍वीकार करता है। सभी मुस्‍कुरा रहे हैं। मैं सिर घुमा लेती हूँ।

निर्मल बढ़ता है और मेरी योनि से रिस रहे रक्‍त को उंगली पर उठाता है और उसे चाट जाता है, "आइ लाइक ब्‍लड" (मुझे खून पसंद है।) नेहा उसे देखती रह जाती है, केसा आदमी है! निर्मल उत्‍साह में है, "तगड़ा माल तोड़ा है तूने याऽऽऽऽर...... " बार-बार बहते खून को देख रहा है।

सुरेश आवेश में है। खून और निर्मल की उकसाहटें उसे भी जानवर बना देती हैं। वह फिर से लिंग को मेरी योनि पर लगाता है और एक ही धक्‍के में पूरा अंदर भेज देता है। मैं विरोध नहीं करती, हालाँकि अब मेरे हाथ पैर छोड़ दिए गए हैं, पर अब बचाने को क्‍या बचा है?

नेहा भी उत्‍साहित है, "अब मालूम हो रहा होगा इसको असली सेक्‍स का स्‍वाद। इतने दिन से मेरे सामने सती माता बनी हुई थी। आज इसका घमंड टूटा। जब से इसे देखा था तभी से मैं इस क्षण का इंतजार कर रही थी।" निर्मल भी साथ देता है।

रक्‍त और चिकने रसों की फिसलन से ही लिंग बार बार घुस जा रहा है, नहीं तो रास्‍ता बहुत तंग है और इतना खिंचाव होता है कि दर्द करता है। केले से दुगुना लम्‍बा और मोटा होगा। मैं सह रही हूँ। योनि को ढीला छोड़ने की कोशिश कर रही हूँ ताकि दर्द कम हो। सुरेश मेरे ऊपर लेट गया है और मुझमें हाथ घुसाकर लपेट लिया है। मुझे चूम रहा है। कोंच रहा है कि उसके चुंबनों का जवाब दूं। मेरी इच्‍छा नहीं है लेकिन....। वह जितना हो सकता है मुझमें धँसे हुए ही उपर-नीचे कर रहा है। मुझे छूटने, साँस लेने, योनि को राहत देने का मौका ही नहीं मिलता। इससे अच्‍छा तो है यह जल्‍दी खत्‍म हो। मैं उसके चुम्‍बनों का जवाब देती हूँ।

मेरी जांघों पर उसकी जांघें सरक रही हैं। मेरे हाथ उसकी पीठ के पसीने पर फिसल रहे हैं। मेरी गुदा के अगल बगल नितम्‍बों पर जांघे टकरा रही हैं -- थप थप थप थप। रह-रहकर गुदा के मुँह पर फोते की गोली चोट कर जाती है। उससे गुदा में मीठी गुदगुदी होती है। निर्मल और नेहा मेरे स्‍तन चूस रहे हैं, मेरे पेट को, नितम्‍बों को सहला रहे हैं।

अचानक गति बढ़ जाती है। शायद सुरेश कगार पर है। जोर जोर की चोट पड़ने लगी है। योनि में चल रहा घर्षण मुझे कुछ सोचने ही नहीं दे रहा। हाँफ रही हूँ। हर तरफ चोट, हर तरफ से वार। दिमाग में बिजलियाँ चमक रही हैं।

"अब मेरा झड़नेवाला है।"

"देखो, यह भी पीक पर आ गई है।"

"अंदर ही कर रहा हूँ।"

"तुम केला निकालने आए हो या इसे प्रेग्‍नेंट करने?"

"याऽऽर... अंदर ही कर दे। मजा आएगा।" निर्मल उसे निकालने से रोक रहा है। "साली की मासिक रुक गई तब तो और मजा आ जाएगा।"

"आह, आह, आह" मेरे अंदर झटके पड़ रहे हैं।

"गुड, गुड, गुड, नेहा, तुम इसकी क्‍लिटोरिस सहलाओ। इसको भी साथ फॉल कराओ।"

एक हाथ मेरे अंदर रेंग जाता है। सुरेश मुझपर लम्‍बा हो गया है। मुझे कसकर जकड़ लेता है। जैसे हड़डी तोड़ देगा। भगनासा बुरी तरह कुचल रही है। ओऽऽऽह... ओऽऽऽह... ओऽऽऽह..........

गुदा के अंदर कोई चीज झटके से दाखिल हो जाती है।

मैं खत्‍म हूँ ....................................................................................... मैं खत्‍म हूँ ....................................................................................... मैं खत्‍म हूँ .......................................................................................

जिंदगी वापस लौटती है। नेहा सीधे मेरी आँखों में देख रही है, चेहरे पर विजयभरी मुस्‍कान। बड़ी ममता से मेरी ललाट का पसीना पोछती है। मुझे चुम्‍बन देती है। होंठों के एक किनारे से मेरी निकल आई लार को जीभ पर उठा लेती है। लगता है वह सचमुच वह मुझे प्‍यार करती है? बहुत तकलीफ होती है मुझे इस बात से।

वह रुमाल से मेरी योनि, मेरी गुदा पोंछ रही है। मेरा सारा लाज-शर्म लुट चुका है। फिर भी पाँव समेटना चाहती हूँ। नेहा रुमाल उठाकर दिखाती है। उसमें खून और वीर्य के भींगे धब्‍बे हैं। वह उसे सुरेश को दे देती है, "तुम्‍हारी यादगार।"

मैं उठने का उपक्रम करती हूँ। निर्मल मुझे रोकता है, "रुको, अभी मेरी बारी है।"

"तुम्‍हारी बारी क्‍यों?" नेहा आपत्‍ति करती है।

"क्‍यों? मैं इसे नहीं लूंगा?"

"तुमने क्‍या इसे वेश्‍या समझ रखा है?" नेहा की आवाज अप्रत्याशित रूप से तेज हो जाती है।

"क्‍यों? फिर सुरेश कैसे लिया?"

"उसने तो उसे समस्‍या से निकाला। तुमने क्‍या किया?"

निर्मल ढीठ है। नेहा के तर्कों कि मैं उससे कराना नहीं चाहती, 'ये मेरी दोस्‍त है, तुम क्‍या इससे जबरदस्‍ती करोगे', 'इसकी हालत नहीं देखते' आदि का उसपर असर नहीं होता। जिद करता है, "नहीं, मैं करूंगा।"

सुरेश कपड़े पहन रहा है। उसका हमदर्दी दोस्‍त के प्रति है। कमीज के बटन लगाते हुए कहता है, "करने दो ना इसे भी।"

नेहा गुस्‍से में आ जाती है, "तुमलोग लड़की को क्‍या समझते हो? खिलौना?" नेहा मुझे बिस्‍तर से खींचकर खड़ी कर देती है। "तुम कपड़े पहनो।" फिर वह उन दोनों की ओर पलटकर बोलती है, "लगता है तुमलोगों ने मेरे व्‍यवहार का गलत मतलब निकाला है। सुनो निर्मल, जितना तुम्‍हें मिल गया है वही तुम्‍हारा बहुत बड़ा भाग्‍य है, नहीं तो तुम्‍हारा कुछ भी का हक नहीं था। अब यहीं से लौट जाओ। तुम मेरे दोस्‍त हो। मैं नहीं चाहती मुझे तुम्‍हारे खिलाफ कुछ करना पड़े।

निर्मल कहता है, "ये तो अन्‍याय है। एक दोस्‍त को फेवर करती हो एक को नहीं।"

नेहा -- "तुम मुझे न्‍याय सिखा रहे हो? जबर्दस्‍ती घुस आए और ....."

निर्मल -- "सुरेश को तो बुलाकर दिलवाया, मैं खुद आया तब भी नहीं? ये क्‍या तुम्‍हारा यार लगता है?"

नेहा की तेज आवाज गूंजी -- "तम मुझे गाली दे रहे हो?"

सुरेश को भी उसके ताने से से क्रोध आ जाता है। "निर्मल, छोड़ो इसे।"

"चुप रह बे। तू क्‍या नेहा का भँड़ुआ है? एक लड़की चुदवा दी तो बड़ा पक्ष लेने लगा।"

पानी सिर से ऊपर गुजर जाता है। दोनों की एक साथ 'खबरदार' गूंज जाती है। मारने के लिए दौड़े सुरेश को नेहा रोकती है। निर्मल पर उसकी उंगली तन जाती है, "खबरदार एक लफ्ज भी आगे बोले, चुपचाप यहाँ से निकल जाओ। मत भूलो कि लड़कियों के हॉस्‍टल में एक लड़की के कमरे में खड़े हो। यहीं खड़े खड़े अरेस्‍ट हो जाओगे।"

मैं जल्‍दी जल्दी कपड़े पहन रही हूँ।

कमरे की चिल्‍लाहटें बाहर चली जाती हैं। दस्‍तक होने लगती है, क्‍या बात है नेहा, दरवाजा खोलो।