एक आदिम भय का कुबूलनामा - PART - II

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वनमाला में मेरी आंखें अपार प्रतिभा देखती थीं । उसका साथ मेरे लिए प्रेरणा था और स्वप्न भी । उसके साथ मैं हमेशा चाहा करता कि काश सदैव के लिये हम साथ हों । मेरी रचनाओं में वह बसी रहे और वनमाला की रचनाएं उसके उस स्वप्न को साकार करें जो मेरी आंखें उसके लिए देखती थीं । हम दोनों इस मामले में हम-खयाल और हम-पसंद थे । तब भी वनमाला को जहां मैं प्रेरित करता कि वह निर्भय हो, खुलकर मेरे साथ आ जाए, लोगों की आलोचनाओं का जवाब दे और हमारा साथ निर्द्वन्द हो, वहां वनमाला खुद अपने को असहाय और लाचार पाती थी । उसमें आत्मविश्वास जगाने की मेरी कोशिश निष्फल हो जाती थी । वह सोचती, वैसा करने का भावुक निर्णय लेती, लेकिन घर और बाहर के दबावों से फिर टूट जाती थी ।
किस्तों पर किस्तें छपती गयीं । वनमाला मुझे देखती, लेकिन वही उदास नजरें उसमें मैं देखता । जिस लेख से उसे तारीफ और यश की उम्मीद थी, वह उसके लिए लोगों की ईर्ष्याऔर नफरत का कारण बन गया था । संदेह की आशंका को टालने उसने भय से पहले ही घर में कह दिया था कि मैं उसकी मदद कर रहा था, मैंने वह लेख उसके लिए तैयार किया था । तब भी विश्वास जीतने की उसकी आशा तब धूमिल हो जाती जब उसका पति अपनी खीझ और शिकायत से उसे प्रश्नित करता । लेखों के छपने के बाद एकाध बार कभी वनमाला के घर पर बैठा था। चर्चाओं के बीच वनमाला की तारीफ करते वक्त मैने वह सारा कुछ पढ़ लिया था, जो ऐसे मौकों पर मेरी उपस्थिति और प्रशंसा के दौरान मेरी प्रिया के पति की आंखों और उसकी भारी ऊबड़-खाबड़ आवाज में लिखा होता था ।
बाद में वनमाला ने स्पष्टत: खुलासा करते मुझसे कहा था कि- ''आप क्या समझते हैं कि मेरे मिस्टर आप से मेरी तारीफ सुनकर खुश होते हैं ? गलतफहमी छोड़ दीजिए । उस दिन जब आप मेरी तारीफ किए जा रहे थे, तब उन्हें बुरा लग रहा था और मन ही मन वे चिढ़ रहे थे । उन्हे ईर्ष्या हो रही थी। उनका बस चले तो पी-एच.डी. की बात दूर रही, नौकरी छुड़ा वे मुझे घर बिठा दें ।''


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सर्पयुग्मों की रचनात्मक रेखाकृति : मंगल-परिणय

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'जब मैं और आप हैं तो तीसरे की जरूरत क्या ?”

वनमाला जैसी भी थी मुझे कुबूल थी । फिर भी कभी-कभी मेरा मन इस बात के लिए दुःखी होता, अफसोस करता कि अपने दबावों और दूसरों के खयालों के खयाल से मुझे अनदेखा क्यों कर जाती है । मुझे बहुत बुरा लगा जब पूरा लेख तैयार कर मैने उसे सौंपा था और वह थी कि अपने लेख पर, जाने की तैयारियों पर मेरे ही सामने चहकती हुई गैरों से बातें कर रही थी और मौन मैं उसे देखता रहा था । इतनी अवसादग्रस्त और कंजूस कि निहायत तटस्थ और सूखे धन्यवाद के कुछ शब्दों को छोड़कर, जो बड़ी जल्दी में मानों भय में परोसे गए थे, उसने कोई बात न की थी । काश, वह कभी समझ पाती कि उसके ऐसे उदास व्यवहार से मेरे मन पर क्या बीतती थी, जो उससे चौबीसों घण्टे बातें करने आतुर और उसकी एक झलक पाने आंखें बिछाए रहा करता था । मेरे मन को समझ पाने उसकी पर्वाह करने की जगह मुझसे निकटता के आभास को दूर रखने की चिंता उसे अधिक सताती थी । थोड़ी भी मुसीबत का भय उसे मुझसे दूर कर देता था । मैंने अनुभव से पाया था कि दो ही स्थितियां ऐसी होती थीं जब वनमाला मेरे साथ के मामले में सहज मूड में हुआ करती थीं । एक तो उन दिनों और क्षणों में जब उसके चित्त घर पर की अप्रिय स्थितियां और समस्याओं का दबाव न हो । दूसरे तब, जब पुरुषों खास तौर पर हमारे साथ पर गौर करने वाले मेरे और उसके वर्ग के समवयस्क कुछ पुरुष साथियों की निगाहों में वह मेरे साथ दिखाई पड़े । भोलाबाबू, उसके विभाग में चुटकुलेबाज कुटिलाक्ष, विभाग को लिफ्ट देने की बजाय औरों के साथ देखकर अप्रकट ईर्ष्या से भरा विपुल, समय-असमय स्थितियों को भाँपता और चुटकियां लेता चित्रकार वगैरह सारे इसी कोटि में थे । अन्य पुरुष साथी भी थे । वनमाला स्टॉफ में अपने को सब से अलग और काबिलतर समझती थी। इसीलिए मुझे छोड़ सारे उसके लिए प्रायः फालतू और सामान्य कोटि के लोग थे । वह मुझे मानती थी और मैं उसे। वह खुश थी कि उसके लिये मेरी चाहत और सद्‌भावनाओं ने उसकी काबिलियत पर मुहर लगा दी थी । औरतों की तो उसे खास तौर पर पर्वाह न थी । उनका मेरे इर्द-गिर्द फटकना भी नापसंद था, बात करने की बात तो दूर रही ।
कॉलेज में लिखने-पढ़ने गंभीर रचनात्मक क्रियाकलापों के प्रति प्रायः लोगों का रुझान नहीं था । दिया हुआ सरकारी काम सरकारी ढंग से ही निबटा दिया यही उनके लिए काफी था । मेरी दिलचस्पी एक ऐसी पत्रिका के प्रकाशन में थी जो कॉलेज के छात्रों और स्टॉफ की रचनात्मकता को प्रेरित और उजागर करे । प्राचार्य डॉ. नलिन जी मित्रवत और हमखयाल थे । उन्होंने मुझ पर विश्वास करके यह जिम्मा दे दिया था । मुझे पूरी छूट थी कि जिसे चाहे साथ रखूं । मुझे तो वनमाला पसंद थी । वनमाला से मैंने राय ली । मेरे साथ का हर काम उसे पसंद था । दिल-दिमाग, विचारों के तार ऐसे जुड़े थे कि किसी काम के करने ढंग, उसकी कल्पना पर बढ़-चढ़कर हम एक-दूसरे की तारीफ करते थे ।
मैने सुझाया- ''हम दोनों ही साथ रहे आए तो लोगों की निगाह में चुभेंगे । किसी तीसरे को साथ लें तो ?'' उसने दो टूक शब्दों में मुझसे कहा- ''आप चाहें तो वैसा कर सकते हैं, लेकिन मेरी शर्त यह है कि भोलाबाबू को आप ने रखा तो मैं आप के साथ नहीं काम करूंगी ।''
भोला से उसे न जाने क्या नफरत थी ? और-और नामों का खयाल मुझे आता रहा । एक-दो नाम मैंने सुझाए भी, लेकिन सहमति न मिली । वनमाला ने खीझकर कहा- ''जब मैं और आप हैं तो तीसरे की जरूरत क्या ? बेकार की बाधा ही रहेगी ।'' मैं उससे सहमत हुआ ।
जब-तब बैठते, बातें करते, रूप-रेखाएं बनाते हम दोनों ही काम करते रहे । किसी को कुछ भी लगता रहा हो, हमें पर्वाह नहीं थी । जाहिर है कि पत्रिका छपी और बढ़िया छपी । ठोक-पीटकर, सुधारकर, मनाकर हमने रचनाएं एकत्रित और संपादित की थीं । भोला का लेख मुझे ठीक-ठीक लगा था । मैंने कहा- ''इन्होंने तो उम्मीद से ज्यादा ही अच्छा लेख लिखा है ।''
वनमाला का मुंह बना- ''चोरी का काम है, तो अच्छा क्यों न होगा । खुद वे तीन लाइन नहीं लिख सकते । एक रोज आए थे । 'इंडिया टुडे' पत्रिका को मेरे यहाँ आकर मांग ले गए थे । उसी की नकल मार दी है । वह उसकी हंसी उड़ाती हुई बोली- ''ऐसे ही हैं, बौड़म टाइप के । एक रोज सुबह-सुबह डिब्बा ले पेट्रोल मांगने आ गए थे, गिड़गिड़ा रहे थे पेट्रोल के लिए ।''
मेरी समझ में भोलाबाबू के प्रति वनमाला की चिढ़ समझ से परे थी । चिढ़ का कारण यह भी शायद था कि भोला की समझ और बातें तर्क से परे, झूठी और गोलमाल होती थीं । वनमाला ही नहीं, सारे लोग उसका मजाक उड़ाते थे । दूसरे यह कि कुर्सी पर चाहे जो भी हो, भोला उसका पिठ्‌ठू हुआ करता था । उसकी ख्याति इसी रूप में थी । कई लोगों की शिकायत थी कि परीक्षाओं के कुछ रुपये उन्हें दिए नहीं गए थे । पहले ही करा लिए दस्तखत के साथ हिसाब भेजकर रुपये वह हजम कर गया था । एक रोज अपने मुंहफट स्वभाव के अनुसार मैंने वनमाला के सामने ही भोला को इसी वृत्ति के लिए फटकार दिया था । उसने वनमाला को नाराजगी से देखा था और झिड़की लगाई थी । वनमाला, नीलांजना और अन्य सभी को ऐसी शिकायतें थीं, पर मुंह खोलने से लोग संकोच करते थे ।
उस दौरान सब कुछ ठीक चला सिवाय इसके कि वनमाला की संगत और चाहत में जब-तब मैं सुबह, रात, दोपहर डरता-डरता भी घर या कॉलेज उसे फोन पर बैठता । कई बार मामला ठीक-ठीक रहता, लेकिन कभी-कभी यह फोन झगड़े का कारण बन जाता । उसका सूजा हुआ मुंह और बेरुखा गूंगापन उसका मूड मुझ पर जाहिर कर जाता था ।
पत्रिका में हमारी फोटो पृष्ठ के बीच में परस्पर आलिंगित सर्प-युग्मों की रचनात्मक रेखाकृति के साथ अगल-बगल छपी थी । जान-बूझकर मैंने वैसा नहीं किया था, बल्कि मुद्रक की वह अपनी समझ या शरारत थी । मुझसे तो किसी से ने कुछ नहीं कहा था, लेकिन जरूर उसके सामने लोगों ने इस पर चुहल की होगी । उसके घर भी उस पर तीर बरसे होंगे । पत्रिका की सफलता और उस पर गर्व तो पीछे रहे, वनमाला का उखड़ा मूड और सूजा चेहरा मेरे सामने आता था । मैंने कहीं एक रोज देखा था कि शरारत से किसी मनचले ने फोटो के ऊपर मंगल-परिणय लिखकर फाड़ फेंका था । यह अजीब सिलसिला था कि मेरे साथ से उभरती उसकी प्रतिभा मेरी छाया से ही वनमाला के लिए व्यंग्य और अपमान की वजह बनती जा रही थी । इससे पहले कि उसके होठ और उसका दिल खिले, वनमाला मुरझा जाती थी ।
रुठना और मनाना, प्यार और विग्रह हमारे बीच स्थायी नियम बन गए थे । एक रोज हम साथ बैठे काम कर रहे थे । वनमाला जानती थी कि मेरा उसके साथ बैठना काम के अलावा भी एक काम था । मैं उससे चुहल करता और मेरा मन उसे भी चंचल कर जाता । मेरी प्यार की बातों से विचलित वनमाला अपनी परिचित अदा से बोली- ''प्लीज़ नइॅं ना, ऐसे में काम कैसे होगा । मैं उठ कर चली जाती हूँ । अन्यथा न आप काम कर पायेंगे, न मैं ।''
वह जानती थी कि मैं किसी भी हालत में उससे दूर जाने वाला नहीं था । अधिकार का ऐसा आत्मविश्वास कि इस तरह मुझे दुःखी कर मजा लेना उसकी आदत बन गई थी । मैंने कहा- '' ठीक है मेरा साथ पसंद नहीं तो मैं ही चला जाता हूँ।''
मुझे उठता देख वह बोली- ''रहने दीजिए, मुझे मालूम है आप नहीं जाएंगे ।'' छेड़ की मुस्कुराहट उसके चेहरे पर थी । कहा- ''और फिर आप चले जाएंगे तो ये काम कौन कराएगा ?''
वनमाला की आंखों में झांकते मैने उदासी और क्षोभ से कहा- ''जाने क्यों मुझे चोट पहुंचा कर ही तुम्हें खुशी होती है । तुम अच्छी तरह जानती हो कि तुम्हारे बगैर में रह नहीं सकता । इसीलिये तुम ऐसा कहती हो । तुम अपनी जगह बनी रहो, मैं कभी न बदलूंगा । जो जगह मैंने चुन ली है, वहीं बना रहूंगा । मुझे ऐसा लगता है कि कुसूर मेरे प्रारब्ध के पूर्वजन्मों का है । याद रखना मेरी अंतिम सांस तुम्हारे नाम को साथ लेकर जाएगी । अगले जनम में भी ।'' वह मुझे चंचल नेत्रों और होठों की हल्की मुस्कान के साथ निहारती यूं देख रही थी जैसे उसके सामने मासूम बच्चा बैठा हो । मैं कह रहा था- ''याद रखो कि एक जनम तो क्या, अगले जनम में भी, जन्मों तक मैं तुम्हारा पीछा करता रहूंगा ।''
वह मजे लेती हंस रही थी ''अरे बाप रे ! तब तो आप मेरी मुसीबत हो जाएंगे ।''
इसी दौरान अनुराधा ने कमरे में कदम रखा । हम दोनों चुप हो गए थे । वनमाला का मुझे चिढ़ाने का मूड अभी बरकरार था । उस रोज वह खुश थी । उसके सामने प्रतियोगिता में छात्रों के लिखे निबंधों का बंडल खुला हुआ था ।
अनुराधा ने बातें करते फिर चुप होते हमें गौर कर लिया था । पूछा- ''क्या चल रहा है ?'' वनमाला ने चपल आंखों से मेरी आंखों में झांका और कहा- ''बता दूं, कह दूं अनुराधा मैडम से ?''
अनुराधा ने पूछा- ''क्या बात है ? कोई खास बात है क्या ?'' वनमाला ने शरारत से बात बदल दी । बोली- ''कुछ खास नहीं रे । ये निबंध देख रही हूँ। कितनी गलतियां करते हैं ? क्या लिखते हैं कुछ समझ में नहीं आता ।''

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क्यों-क्यों छिपाऊँ ? मैं तो इसे ऐसे ही ले जाऊँगी

तुम अपनी नाप की चप्पल छोड़कर बड़ी साइज के पीछे क्यों भागते हो ?''

नाजों और नखरों के बीच रूठने और मनाने के ढेर से प्रसंगों के बावजूद भी वनमाला उन दिनों मेरे साथ थी । जब हस्तक्षेपी और खोजी निगाहें न होती, लाईन क्लीयर होती तो यूं मौज होती जैसे सरल बच्चों की तरह हम साथ बैठ बजे कर रहे हों । परीक्षा शुरू होने के दिनों में खुद प्राचार्य नलिन जी हमारे ढाल थे । उन्हें वनमाला में कोई वैसी दिलचस्पी न थी, जैसी मेरी थी । उनकी उपस्थिति में उनके बहाने बातें करते हम एक-दूसरे की नाजुक अदाओं का जायजा लिया करते थे । कभी अखबार से चेहरा छिपाती और कभी उसके बीच से मुझे झांकती थी, कभी मजाक में आमलेट और मछली का जिक्र कर मेरे टिफिन लाने वाले प्रसंग पर चिढ़ाती वह जब भी समय निकलता मेरे साथ एकांत में पत्रिका के काम के बहाने बैठती । पत्रिका तो बहाना था बैठने का । काम तो मेरा ही था ।
परीक्षाओं के उस दौर में मैं और वनमाला प्राचार्य और भोला की अनुपस्थिति में प्राचार्य कक्ष में साथ-साथ बैठ जाते और घंटों काम करते । बीच-बीच में
'काम करना' दिखाई पड़ने के लिए इसे या उसे बुला भेजते कि एन.सी.सी. की रिपोर्ट आप ने दी नहीं है, बना कर दीजिए ,या खेलकूद की रिपोर्ट अभी तक नहीं आई वगैरह । वनमाला पर लिखी गई प्रेम कविताओं के बीच अपनी आम कविताएं मिला मैंने बाकायदा एक संग्रह बना लिया था । कम्प्यूटर से पुस्तकाकार रूप में बनी प्रतियों को मैं उस रोज बाकायदा चमकीली पन्नियों में फीते से लपेट साथ ले गया । संभवतः उस साल का वह दिन वनमाला का जन्मदिन ही था । मैंने कहा- ''आज तुम्हें मेरी पुस्तक का विमोचन करना है ।''
लजाती उसने कहा- ''मैं भला कहां इतनी योग्य कि आप की पुस्तक का विमोचन करूं ।''
''प्यारी वनमाला, मेरे लिए तुमसे बढ़कर कोई नहीं । और फिर यह पुस्तक तुम्हारी ही तो है । तुमने ही तो मुझमें समा इसे रचा है ।'' वह प्रसन्नता से दोहरी हो गई । उसने फीते खोले । एक प्रति मैंने उसे सौंपकर कहा- ''नाम लिखने से शायद गड़बड़ होगी अन्यथा मैं प्यार के लब्जों के साथ तुम्हारा नाम लिख होता । कहो तो लिख दूं ।''
''घर में देखेंगे तो मुसीबत होगी ।'' उसने कहा ।
मैने छिपाकर ले जाने की बात कही तो पूछा- ''क्यों-क्यों छिपाऊँ ? मैं तो इसे ऐसे ही ले जाऊंगी।'' संभवतः वनमाला में अपना गौरव उजागर करने की भी कामना रही होगी । फिर बोली- ''अभी रहने दीजिए मैं बाद में यहीं ले लूंगी और पढूंगी ।''
उसी दरम्यान परीक्षाओं में नकल के मामले जांच रही उड़नदस्ता की टीम आ गई थी । सभी मित्र थे । अनन्त ने हमें देख लिया था । वापस घर लौट चलने के उसके आग्रह पर मैंने हिचक दिखाई थी । अनंत ने जैसे मामला भाँपते हुए कहा था- ''अरे छोड़ो आज बहुत हो गया । अब मैडम के साथ कल बैठ लेना ।''
मैंने वनमाला से बात की और सामान समेट जीप की ओर बढ़ा । वनमाला भवन के मुख्य द्वार से बाहर निकल हाथ हिलाती मुझे विदा कर रही थी । उसने पूछा- ''कल फिर बैठना होगा । आप आएंगे ना ।'' मैंने कहा- '' हां, जरूर आऊँगा ।'' उसकी ओर निहारता उसे आंखों में कैद किए मैं चल पड़ा ।
दूसरे दिन प्राचार्य नलिनजी ने चुटकी ली ''आप दोनों कल काफी देर तक जमे रहे सुना है । लोग बता रहे थे । अब तो अच्छी पट रही है आप लोगों में लगता है ।''
उन्हीं दिनों खबर मिली, शायद उसी दिन कि भोला को परीक्षा के दौरान संस्था में उपस्थिति बताकर कहीं और कापियाँ जांचने के आरोप में निलंबित करने का आदेश हो गया है । सूचना जिज्ञासा की तरह डॉ. नलिनजी के प्रश्न के रूप में ही आई थी ।

वनमाला का मूड, उसका व्यवहार मेरे लिए रहस्यमय था । वह मुझसे मेरे एकांत में कहती कुछ थी और दिखाई कुछ और पड़ता था । सामने होने के सप्ताह के छः दिनों में से अमूनन पाँच दिन ऐसे होते जब वनमाला का चेहरा अवसाद से सूजा दिखाई पड़ता, आंखें उदासी के सूनेपन से भरीं और मूड अन्तस्थ उदासी और अदृश्य लाचारी की खीझ से भरा होता । सब से विचित्र तो यह कि अपनी ऐसी मुद्रा के साथ वह मुझी से नहीं, सारी भीड़ से कटी रहती । मैं समझ लेता कि घर में वह भूचालों से गुजर रही है । नाराजगी की छोटी सी बात हुई कि उसका आदमी मुझे लक्ष्य कर प्यार, मोहब्बत, आशिकाई के आरोपों से उसे नोच डालता होगा । जैसी वनमाला की हालत होती थी उससे मुझे संदेह होता कि उसका पति उसे मारता-पीटता भी रहा होगा । उसकी छबि मूडी, अज्ञात समस्याग्रस्त, रूखी और बेकार की अकड़ में जकड़ी औरत की हुई जा रही थी । प्रकटतः मैं ही ऐसा ग्राहक था जो सारे कुछ के बावजूद उसके पीछे भागता था । सब कुछ देखते और जानते हुए भी न जाने कौन सी अज्ञात प्रेरणा थी, जो उसे रहस्यमयता से और ज्यादा मुझे बॉंधती थी । वह मेरी नियति बन गई थी और मैं उसके पीछे भागता जा रहा था । कई दफा हमारे बीच घट रहे को लक्ष्य कर, विशेषत: मेरी मायूसी को लक्ष्य कर लोग आश्चर्यपूर्वक मुझे देखते और समझाते थे कि क्यों बेकार में मैं उसके पीछे अपना समय बर्बाद कर रहा हूं ।
एक बार स्टॉफ-रुम छोड़कर जाती मुंह फुलाई वनमाला को मैंने रोकना चाहा था- ''रुको, तुमसे कुछ बात करनी है ।'' वनमाला मुझे अनसुना कर बगैर रुके चली गई थी। तब वहां अनुराधा मौजूद थी। स्टाफ केऔर अनेक लोग भी साथ बैठे हुए थे। वनमाला का बेरुखा रवैया देख भोलाबाबू ने उन सब के बीच मजाक में टिप्पणी की थी- ''छोड़ो यार उसको । जब वो तुमसे बात नहीं करती, तो बेकार क्यों तुम पीछे पड़े हो उसके । तुम अपने साइज की ढूंढो न ?'' अनुराधा की ओर इंगित करते उसने कहा था- ''जो तुम्हारे लायक है, उससे तुम क्यों नहीं संबंध रखते । ये ठीक है तुम्हारे लिए।''
मुझे नहीं मालूम कि भोला का का आशय क्या रहा होगा ? उसकी बातों में कुछ-कुछ तो आपसी वृत्तियों और योग्यता की तालमेल की बात दिखाई पड़ती थी फिर कुछ-कुछ ऐसी भी, जिसमें कद-काठी और स्त्री-पुरुष जननांगों के तालमेल का संकेत था । उसने कहा था- ''तुम अपनी नाप की चप्पल छोड़कर बड़ी साइज के पीछे क्यों भागते हो ?''
कभी-कभी बहुत गंभीर और विवादजनक बातें भी भीड़ के वातावरण को अनछुई छोड़ जाती हैं । उस दिन वैसा ही हुआ अन्यथा बहुत बड़ा बवाल उठ खड़ा होता । मैंने अनुराधा पर गौर किया था । निश्चय तो उसने उसे सुना और समझा था, पर कहा कुछ नहीं । भोलाबाबू प्रायः विवादों से दूर रहता था, लेकिन दोस्ती में इस तरह की संबंधित टिप्पणी यदा-कदा फेंक दिया करता था । वनमाला से सभी की खुन्नस थी, इसलिए जाहिर है कि वह टिप्पणी मेरे पक्ष में और सद्‌भावनापूर्वक थी । उसमें यथार्थ का निश्चित संकेत तो था ही, जो बहुत समय के गोपन, गहरे निरीक्षण के बाद अचानक यूं व्यक्त हो उठा था ।

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न जाने किसी को इमोशनली एक्सप्लाइट करके उन्हें क्या मिलता है ?


''आजकल मैं देखती हूं कि कुछ औरतें आदमियों से भी आगे निकली जा रही हैं ।
न जाने किसी को इमोशनली एक्सप्लाइट करके उन्हें क्या मिलता है ? मुझे तो ये बिलकुल अच्छी नहीं लगता ।'' अनुराधा

मेरी आंखों के सामने दो छबियां थीं। कहां जीनत थी और कहां यह कहां वनमाला ? एक इतनी साफ और सरल कि जिसे समझने की उलझन ही न थी। दूसरी यह जिसे उलझनों के बीच से गुजरकर भी समझना मुश्किल है। अनुराधा मेरे करीब बाद में आई थी। उसको पहली बार मैंने वर्षों पूर्व तब देखा था, जब वह कहीं और हुआ करती थी । यूनिवर्सिटी के कला भवन के दरवाजे पर आंखों को चुंधियाती पहली झलक मेरी आंखों में अब भी बसी है । फिर ऊपर उस हाल के बाहर उसे मैंने पाया, जहां कापियां जांची जा रही थी । चुस्त एन.सी.सी. आफिसर की वेशभूषा में उसकी जवानी का सौंदर्य समाया न पड़ रहा था । जैसे मेरी निगाहों के सामने सुंदरता की देवी आ खड़ी हो । जिसकी ओर भोलाबाबू संकेत किया था, वह अनुराधा बहुत अधिक सुंदर थी । नैन, नक्श जैसे यत्नपूर्वक तराशे हुए, ललचाते गुलाबी होंठ और उनके बीच लहराते, मोती की आभा को मात देते दॉंतों की चमक । उसका पूरा बदन गुलाबी आभा से चमक रहा था । चेहरे पर ऐसी ताजगी जो निगाहों को तरोताजा कर दे । उभरे हुए नशीले उरोजों के साथ चपल मुद्रा और चंचलता की ऐसी तरंग जो मानों सारे वातावरण को अपनी सम्मोहता से भरता, उससे बचने की चुनौती दे रहा था । काया छरहरी, कद मुझसे दो इंच छोटा, पर्मिंग किये यत्न से संवारे सुंदर उसके सुनहरे कत्थई बाल जो देख-रेख की नियमित साज-संभाल से हमेशा आकर्षित करते थे ।
भाषा, साहित्यक और रचनात्मक कलाओं के प्रति उसकी बारीक रुझान, स्वभावजन्य सौजन्य और विनम्रता-सारा कुछ ऐसा कि अनुराधा सभी के लिए आकांक्षा और आकर्षण का केंद्र थी । ऐसा भी नहीं कि वह मेरे प्रशंसकों में नहीं थी । वनमाला की तरह उसमें भी यह अहसास था कि वह विशिष्ट थी । आलतू-फालतू आम स्टॉफ के लोग उसे नापसंद थे, जिन्हें तनखवाह के काम की खानापूरी और चालू पाठ्‌य-पुस्तकों के अलावा कुछ सरोकार न था । अनुराधा मुझसे यह बात कहा करती थी और मेरी बातें मेरा गहन अनुभव, बारीक बातें उसे लुभाती भी थीं । मैंने अनेक प्रसंगों में यह अनुभव किया था कि वनमाला पर मेरा झुकाव उसे अजीब और नापसंद लगता था । विस्मय और खीझ उसकी आंखों से झांकते थे । एक बार तो वनमाला के रवैये से मुझे किंचित परेशान देख वनमाला के सामने ही उसने व्यंग्य में एक जुमला फेंक दिया था -
''आजकल मैं देखती हूं कि कुछ औरतें आदमियों से भी आगे निकली जा रही हैं । न जाने किसी को इमोशनली एक्सप्लाइट करके उन्हें क्या मिलता है ? मुझे तो ये बिलकुल अच्छी नहीं लगता ।''
उसे सुनती मुंह भुलाए गंभीर वनमाला यह सुनती बाहर निकल गई थी । फिर वैसा क्यों न हुआ जैसा भोला कह गया था ? शायद इसलिए कि चित्त और भावना से अपार सुंदरता और कोमलता के बावजूद भव्य लोगों का साथ मुझमें कहीं निराशा पैदा करता था । शायद वह हीन भावना थी, जो यह अहसास पैदा करती थी कि भौतिक सुविधा-संपन्नता से भरी भव्य, नाजुक आकृतियां भला मुझ जैसे गंभीर किताबी कीड़े , भदेस रहन-सहन और वस्त्रों वाले मुझ गरीब को क्या घास डालेगी । शायद यही रहा होगा जो मेरे सारे प्रभावों व अनुकूल वातावरण देती परिस्थितियों और इस वर्ग की कामिनियों की मुझमें रुचि के बावजूद उनके ज्यादा अंदर पैठने की मेरी आकांक्षा को दबा देता था । जीनत के मामले में मेरे साथ ऐसा ही हुआ था ।

मुझे याद आता है जीनत के साथ एकांत में उठना-बैठना, कविताओं का पढ़ना-सुनना, कविताओं सी ही स्वप्नलोकीय बातें और परम आत्मीयता का अहसास, एक-दूसरे के अभावों को महसूसने की हाय, ठंड की गुनगुनी धूप में साथ बाहर बैठ जाने और समय को पंख लगा देने वाली निजी बातों का दौर, रूठना-मनाना और चुलबुली यदा-कदा की छेड़छाड़ । जैसे अभी-अभी घटा हो सब कुछ मेरी स्मृतियों में है। कॉलेज की पिकनिक पर लड़के-लड़कियों और जीनत, नीलांजना वगैरह के साथ टीम एक आरामदेह मिनी-बस में निकली थी । मेरी अपनी कोई योजना न थी, लेकिन मुझे वहां अनुभव और साथ में अनुकूल पाकर ये ढूंढते हुए मेरे घर आ पहुंचे थे । उस समय तो पत्नी भी युवा ही थी । मनाकर तैयार कर हमें भी साथ ले चलने का आग्रह था । और इस तरह हम धार और मांडू की यात्रा पर निकल पड़े थे । रास्ते में फिल्मी अंताक्षरी और फिल्मी गानों की धूम-धाम में मैं भी शामिल था । भीड़ में भी जीनत मेरी आंखों का चुंबक थी और मेरे मन से वह अपना दिल चस्पा किए हुए मुझे हर पल विशेष बनाए जा रही थी ।
मांडू में बिही के पेड़ों और पुरानी धर्मशाला-नुमा मंदिर के बीच हमारा डेरा था । रसोई की तैयारियॉं चल रही थी कि जीनत ने मुझे टोका । जैसे अन्य साथी, मेरी पत्नी उसके लिए अनुपस्थित थे, जीनत ने मुझसे कहा- ''चलिए न, यहां बैठे बोरियत होगी, अपन कहीं टहल कर आते हैं ।''
हम दोनों भीड़ से बाहर यूं टहलते रहे जैसे साथ टहलने के लिये ही बनाए गए हों । उजड़ा सा पुराना खंडहर सा धर्मशाला-नुमा मंदिर-परिसर देखा, सूखी झाड़ियों से भरे उजाड़ खेतनुमा पठारों में टहलते रहे, निर्मल बच्चों की तरह बतियाते रहे और यूं घूम-फिर कर हम साथ लौटे थे । खाना परोसने-खाने, घूमने और बतियाने के दौरान, और फिर धार के मंदिर के परिसरों में घूमते, भीड़ के बीच और भीड़ से अलग हम यूं साथ रहे जैसे भीड़ के साथ हम नहीं, बल्कि हमारे साथ भीड़ आई हो । पुरातात्विक मंदिर के अंदर प्रवेश करने में उसे झिझक थी । वह मुसलमान थी और शायद यह भय रहा हो कि गलती से भी अगर उसके मुसलमान होने की बात वहां उजागर हो जाती है, तो परेशानी हो सकती थी । उन दिनों वैसे भी भगवान या खुदा को लेकर नहीं बल्कि खंडहर हो चले मंदिरों की मिल्कियत को लेकर राजनीति चल रही थी। कभी-कभी तो ऐसा लगता जैसे महन्तों और मुल्लाओं के झगडों से भयभीत होकर वह एक अपनी जगह छोड़कर अंर्तधान हो गया है जिसे एक खुदा के और दूसरा भगवान के नाम से पुकारा करता था। जीनत का अस्तित्व मेरे साथ जुड़ा था । हम दोनों हिन्दू या मुसलमान होने से परे कहीं उतने ऊपर थे, जहां धर्मान्धता से धुंधलाई नज़रों की पहुँच नामुमकिन थी। जीनत का भय दूर करता मैं उसे मंदिर के शिल्प की बारीकियाँ दिखाता रहा, मिथुन-रत मूर्तियां दिखाता रहा। अंदर-बाहर मेरे साथ चिपकी जीनत निसंकोच उन पलों का आनंद उठाती जिज्ञासा से उन्हें देखती और समझती रही। उसे मैने समझाया था कि मंदिर के बाहरी आवरण में तराशा वह शिल्प इस सच को

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