एक आदिम भय का कुबूलनामा - PART - II

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प्रियहरि ने वनमाला पर नजर डाली । आंखों और चेहरे के उदास भाव से पता लग रहा था कि बड़े साहब से न कहने का कारण पहला ही था दूसरा नहीं । मैंने बात समझी और कहा कि तुम ठीक कहती हो । होगा कुछ नहीं उल्टे अपनी हंसी उड़ेगी । वनमाला ने मेरी आशंका की पुष्टि की ।
कल का जो उल्लास था, वह आज केवल सामीप्य का हर्द्या था । चेहरे और आंखों पर विवश ता और उदासी वहां भी थी, और यहां भी । प्रियहरि ने उसकी ओर देखकर कहा-''वनमाला, आदमी सोचता कुछ और है, होता कुछ और है ।''
वनमाला के अंदर केवल एक लाचार शून्य था । दोनों का वह दिन उदासी में ही कटा ।
वनमाला ने कहा- '' मैंने कहा था न ! यहां कुछ न होगा । आप बेकार दुःखी होते हैं । मेरी सलाह मानिये, भोलाबाबू की तरह हो जाइए । सुखी रहेंगे ।''
नीलांजना से मुखतिब हाते प्रियहरि ने कहा और वनमाला को सुनाया ।
'' अपने बहुत करीबी मित्रों से भी जब मैं यह सुनता हूं, तो मुझे बड़ा धक्का लगा भी । क्या सचमुच वनमाला को भी यही सब प्रभावित करता है ? ऐसे सड़े विचार ?''
वनमाला ने फिर कहा- '' आप को लगता है कि केवल यहां ही ऐसा माहौल है ? ऐसे ही अफसर हो रहे हैं और ऐसे ही चाटुकार राज कर रहे हैं । '' प्रियहरि स्तब्ध और उदास हो आया । दोनों में से किसी ने कुछ न कहा । शाम ढलते वनमाला ने प्रियहरि से आज्ञा ली और वापस जाने तैयार हो गयी । इस वक्त कमरा बिल्कुल सूना था । नीलांजना भंडार के सामान की जांच के बहाने कहीं और चली गयी थी । बाबू और अन्य सेवक शायद जान-बूझकर ही बाहर कहीं चाय आदि को चले गये थे ।
प्रियहरि ने वनमाला को आवाज देकर टोका- ''सुनो, अपनी शिकायत कहने, मुझे ताना देने तुम्हे अनुराधा की जरूरत उस दिन क्यों पड़ी वनमाला ? क्या तुमने उसे अपना सलाहकार बना रखा है ?
वनमाला ने कहा- ''नहीं, आप को गलतफहमी है। मैंने कभी किसी से कुछ नहीं कहा है ।''
प्रियहरि ने उसे याद दिलाया- ''उस दिन सूने स्टाफ रूम में जब सारी महिलाएं साड़ी रंगने और देखने जा रही थीं, तब तुम्हें परीक्षा सामग्री के साथ और मुझे वहां अकेला पाकर अनुराधा ने फुसफुसाकर तुमसे क्या यह नहीं कहा था कि चलो यहां से, नहीं तो ये फिर से अपनी शुरूकर देंगे ।''
वनमाला ने अपना गला छूकर कहा- ''बाइ गाड, मैंने आप के बारे में उससे कभी कुछ नहीं कहा है । अनुराधा का संकेत शायद
महिलाओं की राजनीति की ओर रहा होगा । आप जानते नहीं यहां आजकल औरतों की भी बड़ी राजनीति चल रही है ।''
वनमाला के 'बाइ-गाड' कहने ने प्रियहरि में विश्वास अवश्य जगाया। पर तब भी वह तय न कर पाया कि उसकी बात कितनी विश्वसनीय है । प्रियहरि ने केवल इतना ही कहा- ''वनमाला, मैं तुम्हारा ऐसा ही हंसता हुआ चेहरा हमेशा देखना चाहता हूं । मेरी शिकायत तो तुम खुद मुझसे कर सकती हो । मुझ पर तुम्हारा पूरा अधिकार है । हमारे बीच तीसरे किसी को क्यों आना चाहिए ?''
वनमाला ने जवाब दिया- ''आप सच मानिये, मैंने कभी किसी से कुछ न कहा है। आप तो बस फिर वही शिकायत ले बैठे ।'' ऐसा कहती खिलखिलाती हुई वापस जाने अपना बैग उठाए वनमाला दरवाजे से बाहर हो गई ।
इस साथ के सुख ने वनमाला के लिये प्रियहरि की प्यास को और बढ़ा दिया था। जुदा होती वनमाला के पीछे दौड़ता उसका अधीर मन गुनगुना रहा था - '' अभी न जाओ छोड़कर अभी तो मन भरा नहीं -''।
एक हफ्ते बाद फिर वनमाला के साथ होने की युक्ति प्रियहरि ने निकाली । हुआ यूं कि परीक्षा में निरीक्षक कम पढ़ते थे और लगातार छः-छः घण्टे ड्‌यूटी लगने से दूसरे निरीक्षक शिकायत करते थे । प्रियहरि ने चतुराई से सुझाया था कि परीक्षा अधिकारी भी आखिर जरूरतों पर ऐसी ड्‌यूटी क्यों न करें । दो परीक्षधिकारियों सत्यजित और भोला बाबू ने वैसा करने में अनमनापन दिखाया । वैसा करना वे अपनी शान के खिलाफ मानते थे। उनसे अलग हो प्रियहरि ने अपने को हाजिर कर दिया था । वनमाला तो सहायक अधिकारी थी ही। उसे तो पहले से ऐसी ड्‌यूटियां करनी होती थीं । भोला दादा बड़े साहब के करीब हुआ करते थे। उनसे प्रियहरि ने आग्रहपूर्वक यह शर्त रखी थी कि उसको निरीक्षण में लगाते वे अधिकारी के साथ अधिकारी या सहायक अधिकारी की ड्‌यूटी ही वे लगाएं ताकि मातहतों के साथ काम करते अटपटा न लगे और वह अवमानित न महसूस करे । वनमाला की ड्‌यूटी भी उन तारीखों पर लगनी ही थी । उन आने वाले दो दिनों के लिए उसने वनमाला को अपने साथ रखने की पेसकश भोला दादा से की थी । देखने में यह उसकी चालाकी थी, लेकिन ऐसा लगता था कि उस चालाकी की मूर्खता औरों ने पकड़ ली थी । भोला दादा को तो आभास हो ही गया था । भोला दादा ने वैसा कर भी दिया लेकिन बहुत जल्द प्रियहरि को इसका अहसास हो गया कि वैसा कराना शायद उसकी खुद की मूर्खता थी । वह उन हालातों को लेकर सोच में था जिनसे गुजरता वह अनिर्दिष्ट की ओर बढ़ रहा था।


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वनमाला के होठों पर आधे इंच की मुस्कान को देखना दुर्लभ नजारा था,
जिसे सौभाग्य के वैसे ही दुर्लभ क्षणों में देखा जा सकता था ।


मैं सोचता हूं कि जिंदगी भी कितनी अजीब है । सरल और सीधी राह भी परिस्थितियों के वशीभूत हो, कितनी टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती है । मेरी बार-बार इच्छा होती थी कि वनमाला की एक झलक मैं देख लूं । बेताबी के चलते दो-तीन रोज बाद ही एक दिन अपने नियत समय से पहले यानी दोपहर को ही मैं दफ्तर चला गया । उसी दिन मैंने सुन लिया था कि बाबू के न रहने के कारण सुबह वनमाला तनखाह नहीं ले पाई है । मेरा मन कहता था कि शायद आज वह रुके और फिर आमना-सामना हो जाए । मेरी उम्मीद ठीक निकली । काली साड़ी वनमाला को खूब फबती थी । श्यामा तन्वंगी वनमाला की खूबसूरती उसमें और निखर आती थी । कमस्कम मुझे तो ऐसा लगता था । हमारी आंखें चार हुईं । वह प्रसन्न थी । बैठने की जगह तो परीक्षा के प्रशासन का कमरा ही था । उस दिन वह दो बजे तक रुकी रही और भीड़ से आंखें बचाते कुछ हिचकते और कुछ पशोपेश में हम दोनों इस-उस बारे में बतियाते रहे ।
ईश्वर जाने क्यों अंदरूनी खुशी की वे तरंगें जो हम दोनों में छिपी रहती थी, मौका मिलते ही एक-दूसरे के दिलों पर फैलकर एकाकार हो जाती थी । वनमाला और मेरे बीच जो चल रहा था उसे कमरे की भीड़ भी दबे-छिपे आश्चर्य और कौतुक से देख रही थी । इस बात का अंदाजा आज मुझे हो गया था कि चार रोज बाद हमारे एकांतिक सहमिलन का शुभ अवसर फिर आने वाला था। संभवतः वनमाला को भी वैसा आभास हो गया हो । पर तब इसका आभास मुझे नहीं हो सका था कि निरीक्षण की ताजा तालिका देखकर ही औरों को भी वनमाला और मेरी साझा ड्‌यूटी पर दाल मे काला नज़र आएगा।
उस तरह इंतिजार कराता वह पूरा सप्ताह अगले उस अवसर की कल्पना में बीता जिसमें उसकी प्रिया काम के बहाने और काम के बीच भी केवल उसके साथ होगी। उसका मन बार-बार वनमाला रानी के पीछे भागता था । वनमाला उसके अस्तित्व मे समा चली थी। आंखों में वनमाला की छबि समाई थी। हृदय का हर स्पंदन मंत्र की तरह जप रहा था - मैं और मेरी वनमाला। वनमाला रानी और उसका प्रियहरि यानी मैं।

वह दिन आया । लेकिन ठीक उस तरह नहीं जैसा उसे आना था । सुबह दस बजे ही मैंने पाया कि स्टाफ-रुम में हम लोगों को साथ पाकर और एक ही कमरे में दर्ज देख खुसर-पुसर शुरू हो गई है । खोजी निगाहें इशारों में बतिया रही थी । चित्रकार कानन कार्यालय के नारायण बाबू से पूछ रहा था- ''अच्छा तो आजकल कुछ लोग अपनी सुविधा के मुताबिक ड्‌यूटी लगवा रहे हैं ।''
वह कहना ऐसा था जिसे सुना जा सके या जिसे जानबूझकर सुनाया जा रहा हो । यह छैला, तुनक-मिजाज ,चंचल और बातचीत में लिहाज-विहीन था, गो कि उसकी यह वृत्ति समय-समय पर ही प्रकट होती थी । चिर-प्रतीक्षित उम्मीद पर पानी पड़ने ही जा रहा था । किसी कमरे में कोई एक तब-तक अनुपस्थित था ।
बाबू ने सुझाया कि प्रियहरि सर को बदलकर दूसरे कमरे में भेज दिया जाए तो कैसा रहे ? भोलाबाबू ने मना कर दिया -''नहीं-नहीं, उन्हें वहीं रहने दो ।''
यह सब देख-सुनकर वनमाला और मैं दोनों ही एक अनजान भय और संकोच से घिर गए थे। हमारे मन का चोर दूसरों ने पकड़ लिया था। प्रथमे ग्रासे मक्षिका पातः।
हम दोनों रहे तो तीन घण्टे के लिए एक ही कमरे में आए, लेकिन वनमाला का मूड बिगड़ गया था । जिस तरह से चीजें उजागर हुई, उससे वह अपने को फजीहत में पड़ा हुआ महसूस कर रही थी और रुष्ट थी । वनमाला ने शायद तय कर रखा था कि उस दिन मैं जो भी उससे कहूंगा या चाहूंगा, उसे वह नहीं मानेगी । मैंने उसे पास बिठाने, मनाने की चेष्टाएं कीं, लेकिन उसने यत्नपूर्वक दूरी बनाए रखी ताकि अपवादों से वह अपने को बचा सके । औरत चाहती वह सब कुछ है, जो मर्द चाहता है, लेकिन लोकापवादों से वह हर कीमत पर बचना चाहती है । औरतों की ईर्ष्या की उसे उतनी परवाह नहीं होती । वनमाला को भी नहीं थी। लेकिन आदमियों की दुनिया में औरत बदनामी से बहुत परहेज करती है । दूर-दूर भाग रही वनमाला रानी को अपने पास बिठा रखने में मुझे काफी दिक्कतें हुई । मेरे मनाने पर वनमाला राजी तो हुई, लेकिन रही वह अन्यमनस्क ही आई । मैने उससे पहले ही कह रखा था कि आज हम साथ रहेंगे और मैं उसके टिफिन से उसके साथ ही खाना खाऊंगा।
मैने पूछा-'' टिफिन लाई हो न ? ''
उसने कहा- ''आज मैं घर से ही खाकर आ गई हूं । ''
मैं उसे मनाता रहा।
''कल लेकर जरूर आना प्लीज़। क्या तुम मेरा इतना भी ध्यान न रखोगी ?''
वनमाला को मालूम था कि मैं शुद्ध शाकाहारी हूं ।
मुझे चिढ़ाती हुई वह बोली- ''कल मैं ब्रेड और आमलेट लेकर आऊँगी ।''
'' ठीक है।''
मैने कहा -'' मेरी परीक्षा ही ले रही तो यही-सही, मैं वही खाऊँगा ।''
अनमनी वनमाला ने मुझसे कहा - ''मुझे कानपुर सेमिनार में जाना है । अकाउन्ट्‌स के किसी टॉफिक पर एक पेपर तैयार कर दीजिए न । करेंगे न ?''
मैने कहा- ''करूंगा तो, लेकिन तुम साथ बैठोगी तब ।''
वनमाला नाराज़ हो गयी ।
''मुझे साथ ही बैठना होता तो क्या ? रहने दीजिए मैं खुद कर लूंगी ।''
मैं समझ तो रहा था कि हमारे संबंधों का उस तरह औरों पर प्रकट होना और फिर ताने उसे चुभ गए थे । वह अपने को सिकोड़ना चाहती थी । फिर भी मुझे उसका वैसा जवाब देना बुरा लगा । मैंने उसे समझाया कि विषय तुम्हारा है और वह भी तकनीकी। तुम साथ न बैठीं, तो मैं किससे बात करूंगा और क्या मेरा मन लगेगा ?
वह बोली ''रहने दीजिए मुझे मालूम है, आप सब कुछ कर सकते हैं । नहीं ही लिखना है तो बहाना मत कीजिए ।'' मुंह फुलाए वह टहलने लगी ।
अपने से खिन्न पा मैने उसे बिठाया । उससे कहा- ''प्यारी वन्या, मुझसे इतनी नफरत मत करो जिसे तुम खुद भी संभाल न पाओ । बताओ तो मेरा कसूर क्या है ?''
वनमाला मौन रही आई, उदास ।
उसे मुंह फुलाया पाकर मैंने कहा-''जानती हो कलकत्ते से तुम्हारे लिये संदेश लाया था । उस वक्त भी तुम्हारा मुंह फूला रहा था । इसलिए तुमसे तब कहा नहीं । तीन दिन रखा रहा, आखिर फेंकना पड़ा ।''
'सच' ? वनमाला के होठों पर आधे इंच की मुस्कान को देखना दुर्लभ नजारा था, जिसे सौभाग्य के वैसे ही दुर्लभ क्षणों में देखा जा सकता था ।
वह बोली- ''आपने कहा ही नहीं, तो मैं जानती कैसे ।'' उसने कहा- ''के. सी. दास का रसगुल्ला लाना था, मुझे बहुत पसंद है ।''
''वह ले आता तो रानीजी कुछ और लाने की बात कहतीं ।'' अपनी बात जारी रखते मैने कहा- ''यार तुम्हारा मूड इस तरह से उखड़ा हुआ क्यों रहता है ? मुझे बहुत डर लगता है कि तुम न जाने कब नाराज़ हो जाओ । हमारे बीच खटपट और तनाव पर लोग गौर करते हैं । आखिर तुम ऐसा करती क्यों हो ?''
बड़ी मासूमियत से उसने जवाब दिया- ''आप यूं ही सोचते हैं । मैंने तो ऐसा महसूस नहीं किया ।''
शरारत से मैने कहा- ''तुम्हारी कुंडली में मंगल है क्या ? हमेशा गरम रहती हो ।''
''मुझे नहीं मालूम । यह भी कि कुंडली बनी भी, या नहीं ।''
''शादी फिर कैसे तय हुई ?''
''मिस्टर की भी कुंडली भी नहीं है ।''
अतीत में कहीं देखती वनमाला ने यूं कहा मानो वह बहुत दूर से बोल रही हो
- ''गनीमत है शादी हो गई । यही क्या कम है ?''
''यार, तब तो तुम्हारा पति बहुत सौभाग्यशाली निकला । अगर कुंडली का चक्कर होता तो शायद वो तुम्हे नहीं पा सकता था ।''
जैसे वनमाला कहीं दूर खो गई थी ।
मैने कहा- ''काश मै तुम्हें पा सकता । तुम्हें नहीं लगता कि जैसे तुम मेरे लिए ही रची गई थीं ।''
वनमाला अनमनी हो गई थी । कुछ अस्तित्व उसका कमरे में चहलकदमी करता और बैठता मेरे पास था ; कुछ और कहीं शून्य में ; कुछ वहां जहां उसके माथे पर चिन्ता की लकीरें थीं कि लोग क्या कह रहे होंगे ? चिंता की उन लकीरों का फलित यह था कि अगले दिन हम जुदा कर दिए गए थे ।

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मेरी हालत ऐसी है कि मैं कुछ न कर पाऊंगी।
मेरे मिस्टर नहीं चाहते कि मैं कुछ करूं।''


यह दूसरा दिन था। वनमाला के कमरे में जाकर मैं उससे मिला । बरामदों का चक्कर लगाते श्रीमान्‌ भोलाबाबू बीच में आ टपके । बातों-बातों के बीच वनमाला के लिए मेरा प्रशंसा-भाव पकड़कर उन्होने अनजाने में वह बात कह दी, जिससे मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ ।
वनमाला की तारीफ सुनते वे बोल उठे- ''हां, मैंने इन्हें पहले पहचाना नहीं । ये काबिल तो हैं । सोचता हूं कि इसे अपनी शिफ्ट में सहायक बनाकर रख लूं । लेकिन फिर लोग कहेंगे कि सारे बंगाली इकट्‌ठा कर लिए हैं ।'' विराग गांगुली पहले से ही भोला का एक सहायक अधिकारी था।
यकीनन भोला ने पशोपेश ग्रस्त वनमाला पर यह बात जाहिर कर दी थी कि मैंने वनमाला को अपने साथ ड्‌यूटी में रखने की बात उससे कह दी थी । बातों के दौरान ही वनमाला अचानक बोल उठी थी- ''आप तो इनके (यानी मेरे) कहने पर मेरी ड्‌यूटी न लगाया कीजिए, खास तौर पर इनके साथ । ये तो यूं ही मेरी तारीफ करते रहते हैं ।''
जाहिर है कि लोकापवाद के भय से वनमाला में और सदैव उसे उपेक्षिता रखने के बाद भोला के मन में लोभ के जागने का परिणाम ही दोनों के वे संवाद थे, जो मुझे संकोच में डाल गए थे । बाद में फिर एकांत पा मैने वनमाला से पूछा था- ''मेरी बात याद है, आज टिफिन लाई हो न ?''
उसके 'ना' करने पर मैंने कहा- ''ठीक है, मैं आज समझ गया । बात महज टिफिन की नही थी, टिफिन लाने वाले की भावना की थी और मैंने वह देख ली है ।''
उसने बात टालनी चाही- ''क्या बताऊँ, सुबह-सुबह हो नहीं पाता है ..... ''
मैने बीच में ही कहा- ''वनमाला, कुछ न कहो, परीक्षा हो गई ।''
तसल्ली की कोशिश में उसने कहा- ''आप तो बस यूं ही हर बात पकड़ बैठते हैं । मैने ऐसी कोई बात मन में सोची ही नहीं थी ।''
उस दिन मैंने उसे बताया कि उसकी पी.एच-डी. के पंजीयन के लिए मैंने डॉ. माथुर से बात कर ली है । वह पंजीयन के लिए तैयार रहे ।
वनमाला अनमनी और अपने आप मे गुम थी। सुनकर भी जैसे उसने कुछ न सुना हो । जैसे किसी दूर के लोक से क्षीण सी आवाज सुन पड़ी -''रहने दीजिए। मेरी हालत ऐसी है कि मैं कुछ न कर पाऊंगी। मेरे मिस्टर नहीं चाहते कि मैं कुछ करूं।''
उस दिन पहली बार मैंने अपनी गलती महसूस की । वनमाला और अपने बीच भोला की मदद लेना मेरी मूर्खता थी । घर से तो वनमाला त्रस्त थी ही। यहां भी उसपर निगाह रखते उसकी खुशी छीनने, उसे बदनाम करने लोग घुस आए थे।
किंकर्तव्य-विमूढ मैं सोचता रहा कि हम दोनों की नियति भी कैसी है ? आज सुबह ही मुझे इसका आभास होने लगा था कि जैसा माहौल बन चला था उसमें वनमाला का मूड शायदवैसा खिला न रह पाएगा जैसा हमारे साथ के पिछले संयोग में रहा आया था । यह निश्चय था कि भोला नहीं चाहता था कि वनमाला मेरे निकट रहे। बाद में मुझे यह मालूम हो चला था कि सुबह-सुबह वनमाला को अपने साथ रखे जाने की प्रियहरि की बात सुनकर भोलाबाबू अप्रसन्न था। इससे पहले कि उस दिन मैं पहुंचता, वनमाला पर अपनी खीझ भोला बाबू ने उतार दी थी। उस दिन वनमाला के बुझ चले चेहरे के पीछे यही रहस्य था। तब भी मुझ में इस बात का क्षोभ रहा आया कि प्रियहरि का साथ देती विरोधियों से खुले आम लड़ पड़ने की बजाय वनमाला क्यों परिस्थितियों के दबाव में आती मायूस हो जाती है ? क्यों तब अपनी रुखाई दिखा वह बदला प्रियहरि से लेती है ? वह सोच रहा था कि पल-पल बदलती उसकी प्रिया वनमाला का कौन सा रूप सही है ?

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अक्सर मुझे संदेह होता कि कहीं गहरे अतीत में उसका कोई भयानक अनुभव तो नहीं था ?

बाहर बर्फ की ठंडी, ठोस, लादी हुई चट्‌टान ; लेकिन अंदर बाहर निकलने को बेताब उद्‌दाम ज्वाला ।
वनमाला के अंदर भी वैसी ही उद्‌दाम ज्वाला तो नहीं छिपी थी ?

वनमाला अच्छी तरह जानती थी कि मैं उसे चाहता हूं पर उसके अंदर कुछ रहा होगा, जो प्रत्यक्ष को टालना चाहता था । वह क्या था ? शायद मध्यमवर्गीय नैतिकता का भय ? या उन उलझनों और परेशानियों का भय जो पेश आ रही थीं । या शायदघर में उसके पति की झंझटों और बच्चों की परवरिश आदि की चिंताएं और व्यस्तता । वह उन सारी स्थितियों से बचने की कोशिश करती थी, जो हमें एक दूसरे की ओर खींच रही थी । यह इसके बावजूद था कि दिली आकांक्षाएं मेरी तरह उसकी भी उन्हीं में बने रहने की थी ।
मुझे याद है । आरंभिक लग-लगाव के दिनों में रुठती-मानती वनमाला से यह पूछने पर कि क्या तुम्हें मेरा साथ पसंद नहीं, क्या तुम मुझे नहीं चाहती ? अगर ऐसा है, तो मैं तुमसे दूर चला जाऊँगा '', उसने जवाब दिया था- ''मैंने आप से ऐसा कब कहा ? आप तो फिर भी बहुत अच्छे हैं, कुछ लोग तो यहां ऐसे हैं, जो आप अपने को जैसा समझते हैं उससे कई गुना ज्यादा खराब हैं । अब मैं आपसे क्या बताऊँ ?''
वनमाला क्या कहना चाहती थी ? किसकी ओर इशा रा करना चाहती थी ? मैं समझ नहीं सका था । जहां तक मैने देखा था, उससे लोग चिढ़ते ही थे । मेरे ही ताल्लुकात उससे सबसे जुदा और खुले थे, जिसमें प्यार-मोहब्बत की बातें होती थीं । मुझे ऐसा लगता कि उस चित्रकार का ध्यान तो वनमाला की ओर कम था, पर वनमाला के मन में ही उसके लिये ललक ज्यादा थी । काम के प्रति लापरवाह और गैर-जिम्मेदार उस छैला ने एक बार परीक्षा की ड्‌यूटी के दौरान ही हमारे कमरे में आकर पूछा था । पूछा तो क्या, महज कहा ही था-
''मुझे चाय पीने की इच्छा है । जरा गुमटी से चाय पीकर आता हूँ।''
परीक्षा का कमरा अपने साथी के जिम्मे छोड़ टहलना-घूमना और अलस्सुबह चाय या नाश्ता ढूंढना उसकी आदत में शुमार था ।
वनमाला ने कहा था- ''चाय पीने की तो मेरी भी इच्छा हो रही है ।''
उस छैला ने कहा था- ''चलिए आप भी, पीकर आते हैं ।''
तब वनमाला शायद मेरा लिहाज कर चुप्पी साध गई थी । उसके बाहर निकलते ही वनमाला ने मुझसे पूछा था- ''मैं भी साथ हो आऊँ क्या ?''
मैंने इतना ही कहा- यह गैर-जिम्मेदारी है कि कोई परीक्षा के कमरे से इस तरह ठेले पर चाय पीने सड़क पर जाए । तुम परीक्षा-अधिकारी हो । तुम्हारा जाना क्या अच्छा लगेगा ?'' वनमाला के दोहरे मन को मैं पढ़ रहा था । आखिर चाहकर भी वह नहीं जा सकी थी ।
एक और बार मेरी मोहब्बत भरी बातों को टालती उसने बुदबुदाया था- ''नहीं, आप समझते नहीं । वे आ रहे होंगे ना ।''
जिस दिन की यह बात है, उस दिन उस छैले और आम लोगों के आने का समय हो रहा था । क्या वनमाला का इशारा इसी खास व्यक्ति की ओर था ?
मैने सोचा कि वनमाला के 'बुरे लोग' का क्या मतलब था ? क्या कोई उसे सीधे-सीधे संभोग के लिए प्रेरित कर रहा था । मुझे संदेह हुआ । कभी-कभी चीजें जैसी होती हैं, उसके ठीक उल्टे दिखाई पड़ती हैं । बाहर बर्फ की ठंडी, ठोस, लादी हुई चट्‌टान ; लेकिन अंदर बाहर निकलने को बेताब उद्‌दाम ज्वाला । वनमाला के अंदर भी वैसी ही उद्‌दाम ज्वाला तो नहीं छिपी थी ?
एक और रोज प्रशिक्षार्थियों की कापियां जांचती उसने मुझसे किसी और की शिकायत की । यह व्यक्ति तबादले पर उसके विभाग में साल-दो साल हुए आया था । वनमाला ने कहा- ''यह आदमी मेरी चापलूसी करता मिनमिना रहा था कि अगर उसके भतीजे की कापी आई हो, तो मैं जांच में नंबर बढ़ा दूं ।''
यह व्यक्ति और इसके विषय के बहुतेरे लोग ट्‌यूशन करके पैसा कमाने, शेयर का कारोबार घर में करने और किसकी कापी कहां गई है, यह जानकारी हासिल करके छात्रों के बीच दलाली करके नंबर बढ़वाने और पैसों के मोल-तोल के लिए बदनाम थे । वनमाला, मैं और दीगर लोग इनके विभाग की हरकतें जानते थे । वनमाला इस सब में लिप्त नहीं थी । उसे इन बातों से कोफ्त थी ।
मेरे यह कहने पर कि अपने विवेक से वह खुद ही सोचे, वनमाला ने कहा था- ''इसीलिए तो मैं आप से पूछ रही हूँ। क्या मुझे इसकी मदद करनी चाहिए ?'' आगे उसने खुद बताया - '' हालांकि उस परीक्षा और रोल नंबर की कापी मेरे पास आई है , मैने तो उससे कह दिया है कि मेरे पास उस परीक्षा की कापियां नही हैं । मैं इसका कहा क्यों मानूं ? ये धंधेबाज है, पैसा कमाता है और यहां चापलूसी कर रहा है । मैंने तो इससे झूठ बोल दिया है । मैने नंबर बढ़ाना भी नहीं है ।''
न जाने क्यों भोलाबाबू से भी वनमाला को चिढ़ थी । आखिर वनमाला कहना क्या चाहती थी ? उसके सब से ज्यादा निकट और चहेता मैं ही था, जिससे उसकी पटती थी । वनमाला का प्रशंसक शायद ही तब कोई रहा हो । तब क्या वनमाला का सोचना उसके अपने ही दिमाग की उपज थी, जो इसलिए सामने आ रही थी कि वह अपने को ज्यादा काबिल समझती थी ? क्या इसीलिए वह इन घटिया लोगों को तरजीह नहीं देना चाहती थी ? क्या वनमाला की इसी उपेक्षा और अकड़-भरे स्वभाव से लोग उसके आलोचक थे । वैसा था तो मैं भी, लेकिन तब क्यों सारी महिलाएं, लगभग सारा स्टॉफ मेरी इज्जत करता था । न जाने वे कौन से कारण रहे होंगे कि लोग वनमाला को नाकाबिल, उपेक्षणीय समझते थे और मेरा उसे तरजीह देना उन्हें नहीं भाता था । बहुतेरे मुझे इशारों में संकेत भी करते कि उस वनमाला में क्या है, जो में उसे देता तरजीह देता हूं ?
सारा कुछ देखते-बूझते भी वनमाला मुझे दिनों-दिन आकर्षित कर रही थी । मैं उसके प्यार में पागल हुआ जा रहा था । निश्चित ही बुद्धि और समझ दोनों में औरों से वह बहुत आगे और मेरे करीब थी । उससे हर विषय, हर पक्ष पर भावना और बुद्धि की इतनी बातें मेरी होती थी कि मैं हर बात में उसकी तारीफ करता था । वनमाला और मैं जैसे एक दूसरे का स्वप्न थे । हम दोनों एक-दूसरे को अपना पूरक मान अपने संबंधों पर गर्व करते थे । वह नहीं चाहती थी कि मैं कभी किसी और को अपने नजदीक रखूं या उसे छोड़ किसी की तारीफ करूं । यह एक स्वतः-स्फूर्त संबंध और दिलो-दिमाग का राजीनामा था कि हमारे समतुल्य खुद हमारे अलावा कोई और हो ही नहीं सकता था । इसीलिए मेरा या उसका एक-दूसरे से छीना जाना न उसे पसंद था, न मुझे । लेकिन तब भी यह रहस्यमय था कि वनमाला आखिर मेरी तरह साफ और बेझिझक किसी निष्कर्ष पर कभी क्यों नहीं पहुंच पाती थी । एक तरफ अपने घर की जिंदगी से मुक्ति की छटपटाहट और मुझ से दिल लगाने की चाहत वनमाला में थी । फिर दूसरी तरफ दैहिक संबंध और संभोग के नाम से चिड़चिड़ाहट, उदासी भरी अन्यमनस्कता भी थी । आखिर वह ठीक-ठीक क्या चाहती थी ? वनमाला को समझ पाना मुश्किल था । ठीक मौका आने पर वह सिकुड़न भरा माथे का पशोपेश , चेहरे पर उभर आई गंभीर उदासी, और अनमने भाव से भरी कहीं दूर अज्ञात में खोई जाती वनमाला की पीड़ा भरीदृष्टि- इन सब में क्या था ?
अक्सर मुझे संदेह होता कि कहीं गहरे अतीत में उसका कोई भयानक अनुभव तो नहीं था ? क्या ऐसा हो सकता है कि किशोरवय में ही घर या बाहर के किसी परिचित ने उससे अप्रत्याशित और बलात्‌ संभोग की चेष्टा की हो, जिससे वह अचानक दुचित्ता, मनोरोगी औरत में तब्दील हो जाती थी । मानो यह उसका वह रहस्य ही था, जिसका तिलस्म मुझे और अधिक उसकी ओर खींचता था । मैं उसे तोड़ना चाहता था, समझना चाहता था। वनमाला को मैं उसकी संपूर्णता में ,उसके मन और देह के साथ हासिल करना और भोगना चाहता था ।
हम दोनों के बीच यूं ही लुका-छिपी चलती रही । मैं आतुर था कि एकबारगी हम दोनों खुल जाएं । मैने ठान लिया था कि जो भी हो, सारी बातें दिल की कहकर वनमाला को मैं अपने पास खींच लाऊंगा । इधर संस्था का माहौल ऐसा था कि खोजी निगाहों और कामकाजी वातावरण में दिल की बातें बहुत फुरसत से हो न पाती थीं। उधर वनमाला का घर ऐसा कि हमेशा भय और आशंकाओं को दावत देता नजर आता । मुसीबत ही मुसीबत थी। राह निकालना कठिन था।

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