एक आदिम भय का कुबूलनामा - PART - II

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बाबा रे, इतना प्यार कि बूढ़ी हो जाने पर भी न छोड़ोगे

''बाबा रे, इतना प्यार कि बूढ़ी हो जाने पर भी न छोड़ोगे । मुझे मार डालोगे क्या ?''
सारा कुछ तो आप कह देते हैं और मैं जान लेती हूं ।
प्यार की चिठि्‌ठयों से क्या फायदा ?''


वे दिन नए वेतनमान के लिए आंदोलन के थे । धरनों और जुलूसों का माहौल था। इलाके के अलग-अलग हिस्सो में बारी-बारी सामूहिक धरने का कार्यक्रम तय हुआ था। उन दिनों मैं अपनी यूनियन का रसूखदार लीडर था । वनमाला को मैंने राजी कर लिया था कि इलाके के तयशुदा दूरस्थ संस्थान के बाहर पहले दिन ही वह, मैं और नीलांजना धरने पर बैठेंगे ।
वनमाला से उस सुबह फोन पर मैंने बात की थी- ''मैं तुम्हारे यहां पहुंचूंगा, तुम वहीं नीलांजना को भी बुला लो, साथ चलेंगे ।''
उसने पहले तो खुशी में 'हां' कह दी, लेकिन तुरंत बाद जैसे कुछ सोचा हो, कहा कि ''नहीं, मेरे घर आना ठीक न होगा । आप पहुंचियेगा, मैं भी सीधे पहुंच जाऊंगी । वनमाला को अवश्य यह अंदेशा था कि मेरे वहां पहुंचने और मेरे साथ उसके जाने से घर में बवाल मच सकता है ।
मैं खुश था कि बाहर हमें साथ रहने, पास आने और जी भर निर्भय बातें करने का अच्छा अवसर रहेगा । वनमाला मेरी खुशी में शामिल थी । ठीक समय पर किस्मत ने धोखा दिया । इच्छा के विपरीत मुझे प्रतिनिधि के रूप में इस बार दिल्ली जाना पड़ा । मैंने वनमाला को उसके घर फोन करके अपनी मजबूरी बता दी थी और कहा था कि लौटते ही हम मिलेंगे । मैंने कहा था कि उससे दूर रहकर मुझे उसकी याद बेचैन करती रहेगी ।
मैं चला तो गया था लेकिन वनमाला की यादें थीं कि चौबीसें घण्टे बेकरार करती थीं । चिटि्‌ठयां लिखता वनमाला के नाम और हर चिट्‌ठी अधूरी लगती ।ट्रेन में, प्रवास पर मैंने उसे याद कर अनेक चिटि्‌ठयां लिख डालीं । अब मेरे मन को रेल से उतरकर बोरिया-बिस्तर सहित वनमाला के पास पहुंचने की बेचैनी थी । तीन दिन बाहर रहकर लौटा तो बजाय अपने घर जाने के ठीक उस सब-स्टेशन पर उतर पड़ा, जहां से हमारा संस्थान करीब था । नजरों की यह चाहत लिये कि शायदवह मिल जाए, उसकी एक झलक देख लूं धड़कते दिल से मैं कॉलेज पहुंचा ।

मैंने कल्पना की थी कि ठीक उसके निकलने से पहले मैं पहुंचूंगा और उससे आंखें चार होंगी, लेकिन व्यर्थ । मैंने उसे ढूंढ़ा पर वह न मिली । हमारे पास साथ बैठने टाइम-टेबिल कमिटी के काम का बहाना भी था। पता लगा कि वनमाला नहीं आई थी या आकर चली गई है, वगैरह । अगले दिन सुबह-सुबह दोगुनी बेचैनी में भागता नौ बजे मैं कॉलेज पहुंचा । एकांत हो, इसलिए प्रिंसिपल के बड़े कमरे में जो अलग-थलग और खाली था, कोने की वर्क-टेबिल पर कागज फैलाए मैं जम गया था । सुबह-सुबह भीड़ न होने के बावजूद औरों के सामने वनमाला को चलकर साथ बैठने के लिए कहकर अपनी आतुरता व्यक्त करने की बजाय मैंने नीलांजना से संदेश भिजवाया कि फुरसत मिलते ही वनमाला मेरे पास आ जाए । टाइम-टेबिल को अंतिम रूप देना है ।
मैंने देखा दो कमरों के बीच के द्वार पर परदे से झांकती वनमाला प्रकट हुई । उसका चेहरा खिला था । उसने कहा कि नीलांजना से आपका संदेश मिल गया था । वह मेरे सामने बैठ गई । मैंने उलाहना दी।
''वनमाला कल दिल्ली से लौटकर बजाय अपने नगर पहुंचने मय सरो-सामान मैं बीच के अपने इस अपने उपनगरीय स्टेश न पर ही उतरा और सीधे यहां आया कि अपनी प्रिया की एक झलक देखॅूं, लेकिन तुम मिली नहीं ।''
उसने कहा ''कल तो मैं आई ही नहीं थी ।''
फिर अंदर ही अंदर खुश होती लेकिन चुलबुली शिकायत में वनमाला ने आगे कहा- ''आप यूं ही मुझे खुश करने कह रहे हैं । मुझे भला आप क्यों याद करने लगे ? अपनी ड्‌यूटी लगाने आप आ गए होंगे और बहाना मेरा बना रहे हैं ।''
मुझे बुरा लगा । उसकी आंखों में डूबता मैं बोला-
''प्यारी वनमाला यूं अविश्वास करके, मुझे दुःखी करके तुम्हें खुशी होती है ? फिर पूछा ''बताओ उस दिन 'हां' कहकर तुमने अपने घर आने से फिर मना क्यों कर दिया ?''
''जिस लिए आप घर आते वह तो रोज यहीं हो जाता है । मेरा चेहरा तो यहीं आप देख लेते हैं, घर आकर ही क्या करेंगे ? वहां इतनी सुविधा रहती ही कहां है ''
वनमाला ने आगे कहा- ''मेरे मिस्टर बीमार थे, तब आना था । तब क्यों नहीं आए ? बाद में आप के आने से वो क्या समझते ? यही कि मैं बीमार पड़ा तो याद नहीं आई और इसे देखने ये जब भी हो मेरे घर चले आते हैं । आप सोचते थोड़ा भी नहीं ।''
मैंने बताया कि मैं तो जाना चाहता था, लेकिन भोलाराम ने मेरी इच्छा जानते ही बड़े साहब के सामने टोक दिया कि क्या करोगे जाकर बिना बुलाये ? फालतू वहां क्यों जाते हो ? मैने वनमाला से पूछा- ''तुम्हीं बताओ मैं क्या करता ?''
मेरी कमअक्ली पर वनमाला का मन जरूर तरसा होगा । उसने मन ही मन कहा होगा- ''मेरे करीब रहना चाहते हो और, तरकीब भूल जाते हैं ।''
हम दोनों के बीच चंद बातें हुई । मैने उसे बताया कि किस तरह मैं उसे हर-पल याद करता रहा । हर-पल किस तरह वह मुझे बेचैन करती रही । हंसकर वह बोली ? ''रहने दीजिए, आप झूठ बोलते हैं ।''
वनमाला ने कहा- ''बताइये क्यों बुलाया है ? स्टाफ-रुम में अनुराधा मैडम बैठी हैं । सोचती होंगी कि न जाने आप के साथ मैं यहां क्या कर रही हूं सूने में ।''
हंसते हुए मैने भी जवाब दिया- ''क्या करूंगा तुम्हारी याद के सिवाय । टाइम-टेबिल तो बहाना था, दिन-रात बैठा तुम्हें प्रेम-पत्र लिखा करता हूं ।''
''झूठ'' उसने कहा। ''मुझे क्यों कोई प्रेम-पत्र लिखेगा । मैं अब प्रेम-पत्र लिखने लायक कहां रही ? दो बच्चों की मां, अधेड़ । मुझमें अब वो बात कहां कि आप प्रेम-पत्र लिखें ।''
''अच्छा ! कहां है दिखाइये।'' वनमाला के कहने पर मैंने वह खास खाकी सरकारी पुराना लिफाफा उठाया और उसे वे पांच पत्र दिखाए जो उसके लिए ही थे ।
उसने केवल एक झलक देखकर ही जान लिया कि मैने सच बात कही थी । उसका चेहरा सुर्ख हो चला था । झिझकते हुए मंद स्वरों में उसने कहा- ''रहने दीजिए न इन्हें । सारा कुछ तो आप कह देते हैं और मैं जान लेती हूं । प्यार की चिठि्‌ठयों से क्या फायदा ?''
उसने उठने की आज्ञा चाही और चल पड़ी । मैंने पीड़ा भरी शिकायत उससे की -''वनमाला तुमसे कुछ छिपा तो है नहीं । ये अदा तुम्हारी पुरानी है । ठीक है तुम्हारी मर्जी नहीं है तो रहने दो । मन तुम्हारा है । मेरा तुम पर क्या हक है कि तुम्हें मजबूर करूं ।''
वह ठिठकी, मेरी आंखों की उदासी को उसने पढ़ा और कहा- ''आप से मैं क्या कहूं ? मेरी मजबूरी तो आप समझते नहीं ।''
''वनमाला मैं सब समझता हूं, लेकिन तुम जैसी भी हो, जो भी हो, मेरा मन तुम पर मरता है । तुम अधेड़ हो, बूढ़ी हो जाओ, तब भी मैं तुम्हीं पर जान देता रहूंगा ।''
वनमाला हंसकर बोली- ''बाबा रे, इतना प्यार कि बूढ़ी हो जाने पर भी न छोड़ोगे । मुझे मार डालोगे क्या ?''
वनमाला ने मेरे हाथ से लिफाफा ले लिया । मैंने आग्रह किया कि वह यहीं पढ़ ले, लेकिन वह बोली- '' मैं फुरसत से पढ़ूंगी। यहां पढ़ने में देर हो जाएगी ।'' मैंने आगाह किया कि याद रखना, यह मेरे और तुम्हारे बीच की बात है, सार्वजनिक नहीं । संभालकर रखना ।''
''मैं जानती हूं । निश्चिन्त रहिए । कोई भी नहीं देखेगा । फिर यूं भी इस लिफाफे पर शासन के सचिव का पता लिखा है । पुराना है इसलिए कोई न पूछेगा ।''
कुछ देर बाद एकांत से रुखसत हो मैं स्टाफ-रुम में पहुंचा । मैंने देखा कि अनुराधा के बगल में ही कुछ दूरी लिए वनमाला बैठी थी । दूर से ही मुझे अपने अक्षर और कागज पहचान में आ रहे थे, जिन्हें वनमाला पढ़ रही थी । मुझे आया और देखता जान वनमाला ने झटपट कागज लिफाफे में डाले और थैलानुमा पर्स में उसे रखकर चल पड़ी ।
उसके जाने के बाद अनुराधा ने अर्थपूर्ण नेत्रों से मुझे देखते कहा- ''प्रियहरि, मुझे आप से कुछ कहना था। मैं बाद में कहूंगी ।''
उसका कहना ही काफी था । मैंने अनुमान लगा लिया कि माजरा क्या होगा ? जरूर वनमाला ने अपने गर्व में चुहल से अनुराधा को वे पत्र दिखाए होंगे या खूबसूरत अनुराधा को जलाने वाले अंदाज में अपने जादू की बात छेड़ते व्यंग्य के अंदाज में कोई संकेत किया होगा। मैं समझकर भी चुप रहा . औरत की आदत ही ऐसी होती है . ज़रा सी तारीफ आशिक के मुंह से निकली नहीं कि वह अपने को अखबार बनाए अपनी संगिनियों के बीच फ़ैल जाती है.

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संबंध क्या हैं ? स्मृतियां ही तो संबंध हैं।
वही पुल बनाती है - दो दिलों के बीच ।

रिश्तों और विश्वास का एक नाजुक धागा था, जो विपरीत परिस्थिति में भी हमें जोड़े रखता था।

अगले दिन वनमाला और मैं अकेले ही कमरे में थे । उसकी मुद्रा गंभीर थी । मैंने पूछा- ''वनमाला पत्र पढ़ लिए । उसने कहा- ''मैने एक ही पत्र पढ़ा, आगे हिम्मत न हुई । बाप रे ! मैं तो उसे ही पढ़कर बेचैन हो गई । न जाने कैसा-कैसा लगने लगा । आप ने क्या-क्या शिकायतें लिख दी हैं । मैने आप का क्या बिगाड़ा है, कब भला आप का अपमान किया है ?''
मेरे पत्र निहायत व्यक्तिगत और आत्मीय थे । वनमाला से वनमाला के मूड, अकल्पित व्यवहार अपनी दीवानगी और उसकी बेरुखी की जिन शब्दों में मैंने शिकायत की थी, वे बेचैन कर देने वाले ही थे । सच कहूँ तो यह कि आशिक की सफलता ही उस तरकीब में छिपी होती है जो मासूका को बेचैन करती पिघलाकर रख दे. यानी मैं सफल हो चुका था. ईमानदारी से सारे पत्र वनमाला ने मुझे लौटा दिए ।
अनुराधा से बाद में मैंने टोहना चाहा कि आखिर वह कौन सी बात है, जो वह कहना चाहती थी, लेकिन वह टाल गई । अपने मन का संदेह मौका देख काफी दिनों बाद एकांत पा वनमाला के सामने मैंने रख दिया । मैंने पूछा कि क्या मेरे वे पत्र तुमने अनुराधा को दिखाए थे या उस पर उसने कोई चर्चा की थी ?
मुझे वनमाला पर संदेह था, जो अकारण नहीं था । मैंने पूछा कि क्या तुमने आपस की बातें कभी भोला से भी कहीं थीं । परीक्षा के दौरान भोला का बीच में आना और वनमाला की सफाई कि 'इनके कहने पर तो खासतौर मुझे उनके साथ मत रखा कीजिये' मुझे याद थी ।
वनमाला ने आश्वस्त करते हुए गंभीरता से कहा- ''आप बेकार संदेह क्यों करते हैं ? मैं न अपनी बातें किसी से बताती हूँऔर न कभी बताऊँगी ।''
उस दिन मैंने फिर वनमाला को समझाया- अपने मन की पीड़ाएं उससे कही । हम दोनों के बीच उस दिन विश्वास में वादा हुआ कि एक-दूसरे पर हमारा विश्वास गोपनीय और सुरक्षित रहेगा । हमारे विश्वास के बीच कोई कभी नहीं आएगा । अकेलेपन की आत्मीयता में वनमाला सदैव की तरह अपनी उदासी, पशोपेश और चेहरे पर उभर आए तनाव के साथ इसी तरह पेश आती थी । उसकी विचित्र मुद्रा और गंभीर रहस्यमयता को समझना कठिन था ।
वनमाला के साथ मेरा संबंध विश्वास और अविश्वास, प्यार और विग्रह के बीच झूल रहा था । उसके बदलते स्किजोफ्रेनिक मूड से मैं अक्सर परेशान हो जाता । उसके होठों पर मुस्कुराहट ईद के चांद की तरह ही दुर्लभ थी । यह मेरे चित्त के लिए एक समस्या और शोध का विषय बन गया था कि हमेशा परेशान, गंभीर, उदास और चिड़चिड़ी वनमाला से मैं कैसे पेश आऊँ ? मन को मारता कई बार मैं सोचता कि जिस संबंध का भविष्य ही नहीं नजर आता उससे मैं दूर क्यों नहीं हो जाता । तब मेरा मन मुझे समझाता कि वनमाला की अपनी समस्याएं हैं । स्त्री की अपनी विवशताएं और जटिलताएं होती हैं । वह घर से उदास है - ठीक तुम्हारी ही तरह। उसमें मुक्ति की वह छटपटाहट भी है, जिसके पीछे स्वतंत्रता के स्वप्न हैं-ठीक तुम्हारी तरह । उसे समझाने और मनाने, साथ देने की जगह केवल इसीलिए छोड़ जाना कि तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी नहीं हो रही हैं, क्या अन्याय नहीं होगा ? इसके अलावा यह भी कि जब-जब निराश मैं उससे दूर होने की कोशिश करता, अचानक एकांत के ऐसे पल आ जाते, जो वनमाला के साथ का मीठापन, विश्वास और आत्मीयता फिर से भर जाते थे । सच तो यह है कि परिस्थितियां ऐसी ही थीं, जिसमें न हम पास आ पा रहे थे और न दूर जा सकते थे । रिश्तों और विश्वास का एक नाजुक धागा था, जो विपरीत परिस्थिति में भी हमें जोड़े रखता था।
वनमाला से फुरसत में अपनी बात कहने या अपने दिल का शिकवा जाहिर करने की हरचंद कोशिश मेरी होती । वनमाला की यह खासियत थी कि घर के झंझटों और झगड़ों को वह कभी उजागर नहीं करती थी । पूछो तो यह कहकर टाल जाती कि छोड़िए न, जो होना है होता रहना है । घर के मामले मैं संभाल लेती हूं, कोई खास बात नहीं है । फिर भी ऐसे क्षण यदा-कदा आते जब वह अपनी मजबूरियों पर खीझती कहती- ''आप का क्या है । यहां थोड़ा सा काम है । आप मजे से लिखते-पढ़ते और मोहब्बत फरमाते हैं, मुझे तो पहर हुए उठना पड़ता है । फिर हर चीज में खोट निकालने वाले अपमानित करने वाले मिस्टर के लिए नाश्ता बनाना, बच्चों का टिफिन बनाना, उन्हें स्कूल भेजना होता है । यहां से जाकर मिस्टर के लिए खाना बनाना, बच्चों को देखना होता है । उनकी ड्‌यूटी सुबह होने पर कभी-कभी तो यह पाती हूं कि बच्चे बस्ता लिए ताला बंद घर के सामने सूखा सा मुंह लिए मेरे इंतजार में बैठे होते हैं ।''
वनमाला अक्सर कहा करती- ''छोड़िए न मुझे । भूल जाइए आप मुझे। मेरी किस्मत में वह सब नहीं लिखा है, जो आप चाहते हैं । क्यों आप मेरे पीछे अपनी प्रतिभा और समय बरबाद करते हैं ?''
यही तो वह साधारणताएं और जटिलताएं थीं जो आम स्त्री-पुरुष की विवशताएं होती है । मैं उस पर और ज्यादा मर मिटता । वह मुझे और निकट और घर की मालूम होती । मैं भूल ही जाता कि वनमाला किसी और की पत्नी है । रुठने-मनाने झगड़ने और एक-दूसरे पर अधिकार के संबंध इस प्रकार हो चले थे कि हम यूं व्यवहार करते जैसे लाचार विवशता के क्षणों में हम पति-पत्नी के रूप में करते होते । कभी-कभी वह कह भी जाती- ''अच्छा आप तो यूं कह रहे हैं, जैसे आप मेरे हसबैन्ड हों ।''
सच भी यही था कि एक स्त्री अपने पति से जिस आत्मीयता और उस पर जैसे मन भरे अधिकार की अपेक्षा रखती है वह उसे मुझसे ही सम्पूर्णता में मिला करती थी. ऐसे ही वे क्षण हुआ करते जो उससे दूर जाते निराश मन को और अधिक तेजी से खींचकर उसके पास जा फेंकते । उसे प्रसन्न करने और रखने का मौका ढूंढ़ता मैं अनेक फितरतें करता और सोचता कि मैं चालाक हूं । बाद में पता लगता कि मेरी चालाकी मेरा उतावलापन थी। वह ऐसी भूलें कर जाती कि बनते संबंधों को बिगाड़ जाती और वनमाला को परेशानी में डाल जाती थी । प्रायः बातों-बातों में मैं वनमाला से मालूम कर लिया करता कि उसके पति की ड्‌यूटी सुबह या शाम किस शिफ्ट में चल रही है, ड्‌यूटी की शिफ्ट किस दिन बदला करती है, छुट्‌टी कब रहती है वगैरह । इससे मैं अनुमान लगा लेता कि घर पर लाइन कब साफ है । यह जरुरी नहीं था कि उसके पति की ड्‌यूटी या शिफ्ट, उसकी छुट्‌टी का नियम हमेशा मेरे अनुमान के मुताबिक हो और यहीं हादसे के बीज पड़ा करते थे ।
उस दिन भी दोपहर वनमाला को फोन कर बैठा था । दूसरे दिन वनमाला आई तो मैंने देखा कि आंखें उदास और मुंह सूजा हुआ है । वह तनावग्रस्त और गंभीर थी । स्टॉफ रुम में मैने जब प्रवेश किया तो पाया कि वनमाला अकेली ही बैठी थी । मैने देखा कि ज्यों ही मेरा पहुंचना हुआ, इससे पहले कि मैं कुछ बात करता संशोधित समय-सारिणी बनाती वनमाला ने मुझे घूरकर तेज नजरों से देखा और उपेक्षापूर्वक सारे कागज-कलम छोड फौरन बाहर निकल गई । वह नाराज थी और मैं पशोपेश में था । कुछ देर बाद वह उसी मुद्रा में लौटी और कागज-कलम झटपट बैग में डाल घर के लिए निकल पड़ी ।
उदास मन मैंने उससे इतना ही कहा- ''वनमाला, तुम नाराज़ हो न ! केवल इसीलिए कमरा छोड़ कर चली गई कि कहीं मैं तुमसे बात न कर लूं ।''
वह निकल पड़ी झटके से । उसने कहा था- ''आप चाहे जो समझ लें ।''
मैं समझ गया कि मेरे फोन के वक्त उसके पति घर पर थे । जरूर उसने शंकालु पति के दुर्व्यवहार की ज़िल्लत उठाई है । सिवाय मुंह लटकाए अफसोस करने कि मैं और क्या करता ।
संबंध चाहे अच्छे हों या बिगड़ जाएं, वे संबंध ही होते हैं । हर हालत में एक टीस तो होती ही है । संबंध क्या हैं ? स्मृतियां ही तो संबंध हैं। वही पुल बनाती है-दो दिलों के बीच । वनमाला अब मुझसे बचने लगी थी । बात या तो करती न थी, या फिर टाल जाती थी । एकांत को टाल वह स्टॉफ रुम से बाहर यहां-वहां बैठ समय गुजार लेती थी । एक जगह होते और एकांत मिलता भी तो एकाध बार अनमने मन से नाराज, शिकायत भरी आंखों से देखती और विमुख हो जाती । और कुछ न मिला तो अखबार हाथ में फैला यूं बैठ जाती कि चेहरा उसमें गुम हो जाये और मेरी आंखें उसे देख न सकें ।


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वनमाला जो बाहर है उसे न देखो,
अंदर उन पलों के एकांत में झांको और वनमाला के प्यार भरे मन को देखो ।

निराशा , उदासीनता और अवसाद से मेरा मन व्यथित था । मैं सोचता था कि ऐसे प्यार से क्या फायदा जिसका कोई अंजाम न हो और जो किसी को नाराजगी और नफरत से भर देता हो । अपना प्यार, अपनी पीड़ा मन में छिपाए मैं भी वनमाला से कटने लगा था । मन था कि दिन-रात उसकी यादों को उधेड़ता और बुनता लेकिन वह केवल वार्तालाप और उन रचनाओं, डायरीनुमा अनुभवों में होता जिन्हें वह किसी दिन किसी तरह उसके नाम कर मुझे दृश्य से हट जाना था । लेकिन कहां ऐसा हुआ ? वह तो केवल मेरे दुर्दिनों का मध्यांतर था । ऐसा कहां संभव था कि एक ही जगह, एक ही साथ हम रहें और एक-दूसरे के चित्त एक दूसरे में संक्रमित न हो । बहरहाल, उस समय मेरी स्थिति वैसी ही थी,। मन को मारे अपने निर्णय पर मैं भी कायम रहा आता । सब जानते थे, लेकिन दूसरों पर अपनी ओर से अपनी पीड़ा मैने कभी उजागर नहीं की । स्टॉफ में महिलाएं और भी थीं, वनमाला से सुंदर, सरल और खुले स्वभाव की-जिनसे मेरे सहज संबंध थे । मंजरी का जिक्र मैं कर चुका हूं, फिर नीलांजना, श्यामा, नेहा, अनुराधा, नंदिता, बाद में आई वल्लरी उर्फ गैरिकवसना, मंजूषा के बाद आई संध्या और भी आती-जाती अनेक । मेरा व्यक्तित्व, मेरी गंभीर भाव भरी खोई दृष्टि, मेरा सर्वतोन्मुखी व्यापक ज्ञान, सारगर्भित बातें, मेरी परिष कृत रुचियां, मेरा पठन-पाठन, रचनात्मक लेखन, कला-साहित्यिक-सांस्कृतिक की अपार रुचियां वैज्ञानिक सोच और कार्यप्रणाली-यह सब मिलकर ऐसी छबि बनाते थे कि मेरा साथ सबके लिए सहज आकर्षक था । यहां तक कि वनमाला के प्रति मेरे प्रशंसा-भाव और उससे मेरी निकटता से ही वे दृष्टियां प्रायः मुझे प्रश्नित करती कहती कि कहां और किस सनकी औरत के पीछे आप समय बर्बाद कर रहे हैं । मेरा पुरुष हृदय भी जाहिरा तौर पर इन औरतों को कभी-कभी अधिक तरजीह देता और उन्हें बांधे रहता था । वनमाला से नफरत के कारण नहीं, उसे चिढ़ाने और जलाने के लिए मैं वैसा करता था । पुरुष सहयोगियों में भी मैं पुराना और जाहिर तौर पर सर्वाधिक प्रखयात था । इसीलिए मुझे इज्जत दी जाती थी । वनमाला के प्रायः सभी आलोचक थे । उससे दूर रहते और मुझे दूर पा खुश होते थे । वह प्रायः सब से कटी रही । मुझसे वह खुद कहा करती थी कि मैं ऐसी-वैसी नहीं हूं, इन साधारण औरतों के साथ बैठना, बात करना मैं पसंद नहीं करती ।
वनमाला की बेरुखी के बावजूद उसका आग्रह याद कर उसे खुश रखने उसके लिए मैने लेख तैयार कर दिया था । वैसा करने में मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ी थी । लेख विश्व-व्यापार के तंत्र और उसमें भारत के संकट से संबंधित था । क्या दिन और क्या रात मैंने महीने-डेढ़ महीने खूब मेहनत की और लगभग चौबीस पृष्ठों का अपना लेख पूरा किया । वनमाला का चेहरा हर पल मेरी आंखों के सामने होता। उसकी यादें हर पल मेरे लिए प्रेरणा का काम करती । मैं इतने लगन से भिड़ा रहा जैसे लेख का हर शब्द मेरे लिए वनमाला, वन्या का साकार जाप था । मेरा चित्त उसमें तल्लीन था । वह मुझे समझाता था कि वनमाला मायूस है, पशोपेश में है। तुम उसकी लाचारी को समझो कि वह क्यों वैसा करती है, जो तुम्हें बुरा लगता है । उसके मन में तुम्हारे लिए कोई मैल नहीं है । वह तो लोगों की निगाहें हैं, घर की मजबूरियां हैं, जो उसे वैसा बना देते हैं । मेरा मन मुझे समझाता कि तुम्हारे तो सब प्रशंसक हैं । तुम पुरुष हो, तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ता, लेकिन उन मानसिक पीड़ाओं, तनावों, घर और बाहर की दोहरी जिम्मेदारियों की याद करो, जो उसे झेलनी पड़ती है । वह कहता कि वनमाला जो बाहर है उसे न देखो, अंदर उन पलों के एकांत में झांको और वनमाला के प्यार भरे मन को देखो । तुम्हारी आंखों में झांकती कुछ कह रही उसकी उन गहरी उदास आंखों को याद करो, जो तुमसे कह रही होती है कि मुझे भी तुमसे इतना ही प्यार है, जितना तुम्हें मुझसे है। लेकिन तुम्हीं बताओ कि मैं क्या करूं ? जहां तक स्मरण है वह कानपुर गई थी उस पाठ्‌यक्रम के लिए जिसमें उसे अपने लेख के पढ़े जाने की उम्मीद थी । लौटी तो बोली कि इतनी मेहनत से उतना अच्छा लेख बना, लेकिन वहां तो लेख पढ़ने-पढ़ाने का कोई जिक्र ही नहीं था ।
शायद वह मई का महीना था, जब वह गई थी । उसकी बहुत याद मुझे आती थी । हर पल मैं उसकी कमी महसूस करता था । जी चाहता था कि उड़कर उससे जा मिलूं । लेकिन हाय, कि समाज और उसकी मजबूरी, पहचाने जाने और चर्चाओं का डर उसे भी था, और मुझे भी । कितनी लाचारी थी ? मैंने बीच में एक बार उसे फोन पर बात की थी । कहा था -'' मैं चाहता हूं इसी दौरान अखबार में छपे ताकि वहां लोग पढ़े, चौंके, और उसकी प्रतिभा की खूब तारीफ हो ।''
मैंने पूछा था कि क्या उसे यह पसंद आएगा कि उसके नाम के साथ मेरा भी नाम संयुक्त रूप से लेख में हो ताकि हम दोनों को यह एहसास रहे कि हमारा साथ कितना अच्छा, नाम-कमाऊ हो सकता है ।
वनमाला ने तब बड़ी सरलता से कह दिया था- ''भला मुझे क्यों आपत्ति होगी ? मैं तो आप की एहसानमंद हूं कि इतनी बड़ी प्रतिभा मेरे साथ है । मुझे कोई आपत्ति नहीं है । अपना नाम भी दे सकते हैं ।''
उसकी स्वीकृति के बावजूद मैंने वैसा नहीं किया, क्योंकि मैं जानता था कि मेरे नाम का वनमाला के साथ जुड़ना लोगों में शक पैदा करेगा और उसका नाम पीछे रह जाएगा । तब तो नहीं, एक सवा महीने बाद लेख एक-एक कर चार किस्तों में छपा था । हर किस्त पूरे दैनिक अखबारी पेज का आधा घेरती थी ।
मुझमें जैसे वनमाला का अस्तित्व ही समा गया था । पहली ही किस्त गयी तो उसका नाम देखकर मैं यूं प्रसन्न हुआ जैसे मेरा नाम हुआ हो । हां, ऐसा था तो । उसके लिए मेरी मिहनत रंग लाई थी । जी चाहता था कि उड़कर पहुचूं और उससे लिपटकर उसकी उदास, भूरी आंखों में झांकूं ताकि हमारी खुशियॉं घुल-मिल जाएं । लेकिन मजबूरी । मैं रोज की तरह सुबह साढ़े नौ बजे पहुंचा तो पाया कि वनमाला दक्षिण में दीवार से लगी अपनी जगह बैठी है । उसकी आंखों में उदास खुशी की चमक थी, लेकिन साथ बैठी उसकी साथियों या दीगर पुरुष-स्टाफ की आंखों में कोई प्रतिक्रिया नहीं थी । अनुराधा वहां बैठी थी । उसने खीझ और शिकायत भरी एक नजर मुझ पर डाली । मुझे उम्मीद थी कि वहां चहल-पहल होगी । वनमाला को बधाइयों का अंबार लगा होगा । प्रिंसिपल उसे बुलाकर तारीफ करेगा । कॉलेज के लड़के-लड़कियां उस पर प्रशंसा से झूमेंगे, लेकिन वैसा कुछ न था । था तो केवल स्टॉफ की आंखों में झांकता एक तटस्थ भाव, जो यह बता रहा था कि वे असलियत जानते हैं । तारीफ की जगह उन आंखों में वनमाला के लिये बेरुखी, वितृष णा और नफरत भरी थी । मुझे वैसी प्रतिक्रिया अच्छी न लगी । एकांत में हम मिले तो वनमाला ने बताया था कि स्टॉफ में तो एक ने भी उससे उस बारे में बात तक नहीं की । हां, सुबह-सुबह उसे जानने वाले पारिवारिक परिचितों की कुछ ताजगी भरी बधाइयां और शुभकामनाएं घर में फोन पर मिली थीं ।
मैने वनमाला से पहले ही कहा था कि कोई पूछे तो कहना कि लेख उसने खुद तैयार किया है । उस विषय में केवल चर्चाएं मुझसे होती थीं, बहसें होती थीं। उस तरह प्रेरणा और मार्गदर्शन मात्र में मेरा सहयोग था । लेख मैंने जब उसे विस्मित करने मई में उसके जाने से पहले ही लिख और उसी के अनुरोध पर बाकायदा टाइप भी कराके तैयार सौंपा था, तभी उसने स्टॉफ में अनेक को दिखाया था । लेकिन तब भी 'अच्छा है' की ठंडी प्रतिक्रिया स्टॉफ से मिली थी, जिसमें वितृष्णा की वह मुस्कान शामिल थी जो कहती कि ''रहने दो, तुम क्या बता रही हो ? सारा रहस्य हमें मालूम है।''

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