एक आदिम भय का कुबूलनामा - PART - II

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प्रियहरि के भाई, बहन, या रिश्तेदारकभी भूले–भटके आ जाते या बाहर कहीं मिल जाते तो वह उन्हें चाहते हुए भी अपने यहां बुलाने से कतराता। सोमा में इतना भी सौजन्य न था कि वह आत्मीयता से उनसे पेशआती । अपनापे का आभास तो दूर रहा यदि प्रियहरि उनके लिये चाय–वाय का इंतजाम करने की बात भी करता तो अंदर जाकर उसपर मुह बनाती वह तुरन्त अपनी खीझ उतारती –
“ तुम क्यों फालतू टोकते रहते हो ? तुम अपना काम किया करो। मेरा काम मैं जानती हूं। अभी–अभी तो आए हैं। बैठने दो अभी। तुमको क्या जरूरत है बीच में आने की । तुम चुपचाप मुंह बंद किये बैठा करो। मैं जानती हूँ कि मुझको क्या करना है ? हमको भी क्या उस तरह कोई पूछता है जैसा तुम उनके लिए मरे जाते हो ? ’’
परिवार में एक–दूसरे के यहां आने–जाने, मिलने–बैठने, खाने–खिलाने की बात निकलती तो सुनने से पहले ही सोमा का मुंह बनाना शुरूहो जाता –
’’ रहने दो। दूसरों के पीछे हमें पैसे खर्च करने की जरूरत क्या है ? मेरे भरोसे मत रहना। करेगा कौन वह सब ?”
घर यानी ईंट–गारे की ऐसी प्रयोगशाला जहां परिणाम की महज बेउम्मीदी थी। बीबी महज ऐसा रोबोट, जिसमें अपनेपन और भवनात्मक लगाव की कल्पना भी व्यर्थ थी। मकान उससे घर तो बनता न था लेकिन घर का भ्रम देते उसे ढके रखने का यह रोबोट एक दुनियाबी यंत्र था। ज्यादा से ज्यादा यह था कि अपना मियादी बुखार उतारने बेमन फैली टांगों के बीच की कसरत के लिये जब–तब उसे काम में लाया जा सकता था। प्रियहरि के पास इसके अलावा कोई चारा न था कि वह इस जकड़नसे भागता फिरे। उसके लिये घर का सुख अब उन संबंधों और लम्हों में ही था जहां उसके समान ही भागती सपनीली आंखें प्रियहरि में अपनापा देखती टकरा जाया करती थीं।

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सारी चिटि्‌ठयां टुकड़े-टुकड़े जो टूटे हुए दिल की थीं

''लाइए, मेरे लिए जो भी लाए है, दे दीजिए। मैं बाद में देख लूंगी।
अंदर मुझे देख रहे होगें। सोचेंगे कि इतनी देर वह बाहर क्या कर रही है'' :

पश्चिम बंगाल के एक महत्वपूर्ण सम्मेलन में प्रियहरि को कलकत्ता जाना था। वनमाला उसके लिए आत्मीय, घर जैसी, घरनी जैसी थी। दोनों बात करते तो यूं सहज घुलकर जैसे बरसों का नाता हो। ऐसी अधिकार-भावना परस्पर थी कि जैसे पति और पत्नी के बीच हो। प्रियहरि ने वनमाला से पूछा था - ''तुम्हारे लिए क्या लाना है ?''
अगर मिल जाए तो खूबसूरत सा एक पर्स ले आने की बात वनमाला ने कही थी। सम्मेलन की बैठकों, जलसों के बाद बाजार घूम-घामकर चौरंगी से आगे न्यू मार्केट को छानते प्रियहरि ने वैसा ही एक पर्स अपनी प्रिया वनमाला के लिए खरीद लिया। कलकत्ते में भी दिन-रात हर पल दिल को चैन देने वाली वनमाला की मुखड़े की छवि, उसकी यादें प्रियहरि के साथ रहतीं। उन दिनों वहां विश्व पुस्तक मेला भी लगा था, लेकिन वहां जाने का मौका देखते खबर आई कि पंडालों में आग लगने की दुर्घटना घट गई थी।
प्रियहरि लौटा तो बेसब्री से वनमाला से मुलाकात की प्रतीक्षा में रहा। आमना-सामना होता भी तो ऐसी चहल-पहल रहती कि आलमारी में रखा बड़ा पर्स सब के रहते निकालना ही संभव न था। एक-दो रोज बाद एकांत के क्षणों में वनमाला से प्रियहरि की आंखें चार हुई। प्रियहरि ने बैग निकाला और वनमाला के सामने रख दिया।
' कैसा है ?' - प्रियहरि पूछ रहा था।
'खूबसूरत लग रहा है। खोल कर बताइए न' - वनमाला ने जवाब दिया।
प्रियहरि ने खोलने की कोशिश की फिर कहा कि मुझसे बनता नहीं, समझ नहीं आ रहा है, तुम ही देखो। वनमाला ने उसे खोला, अंदर-बाहर देखा और खुश हो गई बोली -
''सचमुच बहुत खुबसूरत है। धन्यवाद, आप मेरा कितना खयाल रखते है। मेरी इतनी फिक्र तो मेरे मिस्टर भी नहीं करते।''
प्रियहरि ने वनमाला को बताया कि किस तरह कलकत्ते में भी उसे आंखों में बसाए दिन-रात वह याद करता रहा था। इससे पहले कि उन दोनों के बीच कोई आता, प्रियहरि की हिदायत के मुताबिक अंदर का सारा कागज-पत्तर फेंक बैग को मोड़कर वनमाला ने अपने पुराने बैग में ठूंस दिया। फिर अचानक पशोपेश भरी आंखों से वह बोली -''ले तो जा रही हूं। मगर देखें ? मेरे मिस्टर पूछेंगे तो मैं क्या जवाब दूंगी ?'' प्रियहरि ने सुझाया - ''कह देना कि तुमने पैसे दिये थे, मंगाया तो मैं ले आया।''
चार दिन बाद जब फिर एकांत में दोनों आमने-सामने हुए तो प्रियहरि की प्रिया ने चुपचाप वही पर्स अपने कपबोर्ड से निकाला और उसके सामने रख दिया। वनमाला का चेहरा विषाद से मुरझाया हुआ था और आंखों में उदासी थी।

वह बोली - ''इसे आप रख लीजिए घर में काम आ जाएगा। मेरे मिस्टर को इस पर आपत्ति है कि मैं इसे रखूं।''
प्रियहरि ने वनमाला की मायूस आंखों में झांका और अपमान की उस पीड़ा को पढ़ लिया जो उसे घर से मिली थी। वनमाला ने कहा होगा तो मिस्टर ने संदेह किया होगा और फिर जमकर तकरार हुई होगी। प्रियहरि को बड़ा धक्का लगा। वनमाला की उदासी के सदमे से प्रियहरि का दिल भी मायूस और उदास हो गया। दोनों के दिल टूट गये थे। उदास, नजरें झुकाए वनमाला चुपचाप चली गई थी। ऐसी दुर्घटनाओं के संयोग वनमाला के चित्त को अवसाद से भर देते थे - इस कदर कि फिर चंद रोज उसकी दिनचर्या अन्यमस्य चुप्पी और घनघोर उदासी में बीतती। उसकी आंखों में शून्य भर जाता। मौन वह सामने रहती, देखती और चली जाती जैसे प्रियहरि से उसका कोई नाता न हो।
इधर वही अवसाद प्रियहरि में और अधिक बेसब्री और बेताबी भर देता था। उसकी इच्छा होती कि वह वनमाला के नजदीक जाए, उसकी पीड़ा को समझे, उससे बातें करे, उसके चित्त को बहलाए और उसे खुश करे। यह जानते हुए भी कि वनमाला के घर जाना मुसीबतों को और बढ़ाना है, यंत्रचालित प्रियहरि का मन उसके कदमों को वनमाला की घर की राह पर मोड़ देता था। बातों के दौरान संकेतों से ही वह अनुमान लगा लेता था कि वह मौका कब होगा जब वनमाला के घर दोनों के बीच बाधा न होगी। एक सप्ताह बाद उस दोपहर जब गया तो घर में ताला पड़ा था। दूसरे दिन जाना कि वनमाला बीमार हो गयी थी। उसके मिस्टर उसे अस्पताल ले गये थे।

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यूं एक सप्ताह और बीता। इस बार वनमाला के मिस्टर की रात की ड्‌यूटी यानी शाम छः से रात दो बजे तक की फुरसत का अनुमान लगाता प्रियहरि शाम को उसके घर जा पहुंचा। सचमुच वनमाला के पतिदेव नहीं थे। उसने दरवाजा खोला, उदास मुस्कुराहट से प्रियहरि को आंख भर निहारा और अंदर बिठाया। कोई मेहमान वहां पहले से मौजूद था। वनमाला ने ही परिचय कराया। वे उसके बड़े भाई साहब थे । इधर-उधर की बातें होती रहीं - घर की दफ्तर की, भविष्य की, उसके भाई साहब से परिचय की - लेकिन ढेर सी बातों के बावजूद वह नहीं, जो एक-दूसरे से टकराती लाचार बेताबी भरी आंखों और दिलों में छिपा था। हाय, यह कैसी लाचारी थी कि कालेज में शोधी दृष्टियों का भय हुआ करता और यहां ?- एक तो पहुंचना दुष्कर, और पहुंच भी गये तो उसके मिस्टर के होने और खीझने की आशंका। वे न हुए तो मेहमान। वे भी नहीं तो बड़े होते बच्चे प्रियहरि और वनमाला के बीच में आ पड़ते। अन्यमनस्क वनमाला भी, अन्यमनस्क प्रियहरि भी। बातों की कोई गुंजाइश न थी।
प्रियहरि का मन मसोस रहा था कि काश अपने दिल की बाtतें वह वनमाला से कह पाता। जब-तब कनखियों से वह उसे निहार लेता। छरहरी, सांवली, निचुड़ी हुई काया और कमजोर लग रही थी। रंग उड़ा हुआ जैसी थकी हुई हो। चेहरे से चमक गायब थी। वनमाला ने साड़ी नहीं पहनी थी जो उस पर ज्यादा फबती थी। सलवार-कुर्ती भी नहीं, महज उजड़े रंग का पुराना स्लीपिंग गाउन जिसके अंदर शायद चोली ही नहीं थी। हल्का ढीला उभार प्रियहरि को दिखाई पड़ रहा था। हां, यही तो वह छबि थी जिसे वह चाहता था। उसका मन वनमाला की उपस्थिति को यूं महसूस करता जैसे वह उसकी प्रिया नहीं अपितु सदियों से साथ गुजारती उसकी घरवाली हो। प्रियहरि वनमाला के उजड़े हुए रंग पर, उसकी कमजोर काया पर भी फिदा था। उसने चाहा कि वनमाला से लिपट जाए, उसे चूमे और पूछे कि बताओ, तुम इतनी कमजोर लग रही हो ? कहे कि चिन्ता न करो, मैं आ गया हूं। वह कमजोरी बेजार दिल से सहे गये बिस्तर की हो सकती थी। कितना अच्छा होता कि खुशनुमा दिल से एक-दूसरे की चाहत के साथ उस बिस्तर पर, उस तखत पर वनमाला और प्रियहरि दोनों की कामनाएं एक-दूसरे से गुंथी मचल रही होतीं, जो उनके सामने ही वहीं बिछा था । प्रियहरि को लगा कि तब शायद वनमाला की वह कमजोरी तुरंत दूर हो जाती। वनमाला की उड़ी हुई रंगत उसी क्षण लौटकर उसके चेहरे में गुलाबी हो जाती। तब उस तरह अवसाद की गुफा से निकल प्रियहरि और उसकी प्रिया वनमाला आसमान की सैर में होते। चाहत की बेताबी में आधा घंटा बीत गया लेकिन कहीं कोई मौका न था।
प्रियहरि चलने को हुआ तो भाई को अंदर बैठा ही छोड़ वनमाला बाहर सड़क तक उसे छोड़ने आई। रात हो चली थी। बाहर बिजली की रोशनी दूर थी। उसके घर के सामने झिटपुटा अंधेरा था जो पेड़ों की घनी छाया से और भी गहरा हो गया था। प्रियहरि ने कहा -
''वनमाला, तुमसे बातें करना भी शायद भाग्य में नहीं लिखा है। तुम्हें मालूम नहीं कि तुमने मुझे कितनी पीड़ा पहुंचाई है।''
वनमाला ने दबी आवाज में कहा - ''यहां ज्यादा बात करने का अवसर नहीं है। लाइए, मेरे लिए जो भी लाए है, दे दीजिए। मैं बाद में देख लूंगी। अंदर मुझे देख रहे होगें। सोचेंगे कि इतनी देर वह बाहर क्या कर रही है।''
प्रियहरि के अपने बैग में वही पर्स था। वही, जिसे मायूसी के कारण उसने काट कर पचासों टुकड़ों में बदल दिया था। ढेर सारी चिटि्‌ठयां थी। सारी चिटि्‌ठयां टुकड़े-टुकड़े जो टूटे हुए दिल की थीं। वनमाला का इशारा था कि वह उन्हें फुर्सत से पढ़ लेगी लेकिन प्रियहरि ने तो सारे पत्र फाड़ डाले थे। उसने वनमाला से कहा -
''अब क्या कहूं। तुमने पहले तो अस्वीकार कर दिया। मैंने भी सोचा कि अगर यह तुम्हारे लिए नहीं, तो किसी के लिए भी नहीं। वहीं टुकड़े तुम्हें सौंपने आया हूं।'' प्रियहरि ने सारे टुकड़े वहीं पेड़ के नीचे छाये कचरे और पत्तियों के ढेर पर बिखेर दिए।
वनमाला बोली - ''ऐसा आपने क्यों किया।'' एक-दूसरे से दिलासे की दो-चार बातें हुई। वनमाला से बिदा लेकर प्रियहरि लौट चला।
बाद के दिन यूं ही गुजरते रहे। वनमाला का मूड प्रियहरि की समझ में नहीं आता था। बहुत दिनों तक वह उससे खिंचीं -खिंचीं रही। आंखों में पथराई उदासी और शायद प्रियहरि को प्रश्नित करती शिकायत। वनमाला के मिस्टर चाहे उस दिन घर पर नहीं थे तब भी प्रियहरि के वहां जाने, बैठने, मिलने की बात तो मालूम हो ही गई होगी । वनमाला के इस रवैये के पीछे आकांक्षाओं और विवशताओं के संघर्ष का त्रास रहा होगा। प्रियहरि पढ़ रहा था कि दोनों के बीच विवशताओं के साथ बने रहने का पक्ष कानूनी था। उसकी नियति तो वही प्रियतमपुरा. के सेक्टर आठ तक जाने वाली सड़क और उसकी उन्नीसवीं स्ट्रीट में ईंट-गारों से चाक-चौबंद छः-ए की दीवारें थी। प्रियहरि की चाहत वनमाला की मुसीबत थी। वह इशा रों में कह भी जाती थी - ''कुछ नहीं हो सकता। भाग्य को स्वीकार लो।'' यह वही भाग्य था प्रियहरि ने चाहा था कि वह वनमाला से बातें करे लेकिन वह साफ मना कर उस एकांत से निकल भागती थी जो यदाकदा दोनों को मुहय्‌या होता था।
दोनों के बीच लाचारी, उदासी और बोलता हुआ अनबोलापन स्थायी रूप से बस चले थे। वनमाला खीझती, रूठती, झगड़ती, अनबोली रहती और अचानक आंखों में आंसू सारी लाचारियां तोड़ प्रियहरि के साथ, प्रियहरि के पास टूट कर बिखर जाया करती थी।


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फिर भी औरत की जात में ही वनमाला भी थी


प्रियहरि को ऐसा संदेह था कि वनमाला का त्रस्त मन शायद खीझ में कभी-कभी दूसरी संगिनियों पर खुल जाता हो । ऐसा नहीं कि इन दूसरों से उसका अपनापा हो । अपनापा तो जो प्रियहरि से था वह कभी टूट न सकता था । वह खुद इसे महसूस करती, स्वीकारती थी । वह भी प्रियहरि की तरह गर्विता और एकांतिक स्वभाव की थी । कहा करती- ''मैं इन सब जैसी नहीं हो सकती, इनसे मुझे नफरत है । मेरी इनसे नहीं पटती'' ......... वगैरह । फिर भी औरत की जात में ही वनमाला भी थी । मर्दों की तुलना में औरतों के साथ का सहारा लेना उसकी भी स्वाभाविक मजबूरी थी ।
प्रियहरि और वनमाला की निकटता इस दरम्यान लोगों की निगाहों में चढ़ गयी थी । साल बीतते जब फिर परीक्षा का दौर आया, तो जान-बूझकर इस बार वनमाला को सुबह और प्रियहरि को शाम के वक्त तैनात किया गया था ताकि इनके बीच मिलने तो क्या देखा-देखी की भी संभावना न रहे । ऐसे ही माहौल में किसी दिन वनमाला गमगीन चेहरा लिए परीक्षा की तैयारियों में अपने कागज-पत्तर लिए काम कर रही थी । उसी की तरह खिन्न प्रियहरि पास ही बैठा था । तभी कहीं से अनुराधा नमूदार हुई।
गोरी चिट्‌टी, सुंदर और हमेशा अपनी भव्यता के लिए जानी जाने वाली अंगरेजी की प्रवक्ता अनुराधा को वनमाला से दबी आवाज में प्रियहरि ने कहता सुना - ''चलो । हम लोगों के पास बैठना । यहां अकेली मत बैठो, नहीं तो वो फिर अपनी बातें शुरू कर देंगे ।''
वनमाला अनमनी थी, लेकिन शायद उस दिन उसे प्रियहरि के साथ के एकांत की चाहत थी । यह टका सा जवाब दिया- ''मुझे परीक्षाओं का अपना काम यहां करना है, मैं रुकूंगी, आप चली जाइये ।'' उसने अनुराधा को चलता कर दिया था ।
प्रियहरि की हरकतों को लेकर वनमाला की चुहलनुमा चुगली पर भरोसा कर उस दिन वनमाला की मदद करने चली अनुराधा को मायूसी का सामना करना पड़ा । अनुराधा ने विस्मय भरी खीझ से वनमाला और प्रियहरि को देखा, होंठ बिचकाए और चली गयी ।
आंखों की गहरी उदासी, चेहरे के अवसाद और गहरी गंभीर अन्य-मनस्कता से वनमाला को न जाने क्यों कभी बाहर आते प्रियहरि ने नहीं देखा । उस दिन अनुराधा के जाने के बाद सहज और सामान्य बातें दोनों के बीच हुई । अपनी उदासी के बीच भी प्रियहरि के अवसाद को ठंडा करने की चाहत में ही शायद वनमाला भीड़ के छंटने की प्रतीक्षा करती उस दिन दोपहर बाद तक रुकी थी । उसकी यही अदाएं तो प्रियहरि के बिदकते मन को फिर से बाँध लेती थीं । वनमाला की बेरुखी से खिन्न प्रियहरि उससे बातें करने की कोशिश अक्सर मौके आने पर भी बंद कर देता था । तब वनमाला की उदास आंखें प्रियहरि को देखती जैसे समझाया करती थीं कि मजबूरियों को समझा करो, नाराज क्यों होते हो ?
दो ही दिन बाद वनमाला को फिर न जाने क्या हुआ कि सामने होकर भी मुंह फुलाए उसने अपनी कुर्सी इस तरह मोड़ ली कि न प्रियहरि उसके चेहरे को देख सके और न वनमाला की नजरों के प्रियहरि की नजरों से मिलने की गुंजाइश हो । प्रियहरि और वनमाला के बीच यह एक अनिवार्य हादसा था, जो घटता ही रहता था ।
भले ही व्यक्तित्वों के अंतर, प्रियहरि की काबिलियत,वरिष्ठता और गंभीर स्वभाव के कारण कोई कहता उससे न हो, स्टॉफ में नीचे से ऊपर सब को इस बात का एहसास था कि वनमाला और प्रियहरि के बीच कुछ-कुछ है । औरतों में ही प्रियहरि के निकट की कुछ ललनाएं अपवाद थीं जो प्रियहरि से नजदीकी के कारण कभी-कभी चुपचाप चुहल से उसे छेड़ जाती थीं । इसे विचित्र संयोग कहा जाए कि पुरुषों से प्रियहरि का ताल्लुक ज्ञान-विज्ञान और गरिमा की गुरु-गंभीर चर्चाओं तक सीमित था, लेकिन ललनाएं लगभग सबकी सब प्रियहरि के निकट आकर, बातें करके उसे प्रभावित करतीं गर्व का अनुभव करती थीं । सांवली, गंभीर, एकांतिक स्वभाव की वनमाला इन सब की निगाह में नकचढ़ी और बदतमीज थी । अक्सर वनमाला से प्रियहरि की संगत पर वे सब संकेतों ही संकेतों में मलाल जाहिर करतीं और वनमाला को कोसती थीं । औरतों से प्रियहरि की बातें आत्मीय, निजी और छेड़छाड़ भरी होती थीं । उनमें अभद्रता नहीं होती थी । केवल आंखों ही आंखों के बीच हुए संवादों और एक ऐसी निजता का स्पर्श होता था कि पल भर के लिए सामने वाला सम्मोहित हो यह महसूस करता कि प्रियहरि की आंखों में उसके लिए वह चाहत है जिसकी दरकार स्त्रियां मन ही मन किया करती हैं ।
परीक्षाओं का दौर पूरी गहमा-गहमी से चल रहा था। वनमाला को देखने उससे मिलने प्रियहरि का मन मसोस कर रह जाता था । ऐसे में परीक्षाओं के बीच ही उसे किसी काम से भोपाल जाना पड़ा था । कल ही वह लौटा था । शाम की परीक्षाएं तकरीबन तीन बजे शुरूहोती थीं, लेकिन उस खास दिन प्रियहरि दो बजे से पहले ही पहुँच गया था । उसे पता लगा कि अगले दो दिन अधिकतर महिलाएं छुट्‌टी पर रहेंगी । प्रियहरि के सहायक अधिकारी को भी संभवतः छुट्‌टी पर रहना था । ऐसी हालत में शाम को निरीक्षकों की कमी होती । प्रियहरि ने ड्‌यूटी का चार्ट देखा और गौर किया कि वनमाला उन दो दिनों में सुबह की परीक्षाएं न होने से बिल्कुल मुक्त है । उसे सुबह के लिए सहायक अधिकारी बनाया गया । प्रियहरि ने सुझाया कि क्यों न उन दिनों वनमाला को शाम को रख दिया जाए ।
सत्यजित और भोला दादा ने एक-दूसरे की तरह अर्थ भरी निगाहों से देखा और कहा कि- वनमाला तो नहीं आ सकती, क्योंकि सुबह की ड्‌यूटी के बाद वह चली जा चुकी है और उसे खबर भला कौन करेगा । वे दोनों दूसरे-दूसरे विकल्प सुझाने में लगे थे और प्रियहरि उनकी टाल-मटोल पर गौर कर रहा था । प्रियहरि को तब इसका बिल्कुल अंदेशा न था कि अब तक उपेक्षा में अलग-थलग पड़ी वनमाला की खूबियाँ और उसके प्रति प्रियहरि का खुद का चाहत भरा लगाव इन सज्जन दीखते लोगों की निगाहों में भी खटकने लगा है । उसे नहीं मालूम था कि ईर्ष्या इनमें से एक की निगाह में ऐसा लालच भर रही है, जो आगे चलकर वनमाला से उसे इस तरह जुदा कर देने वाला है, ऐसी दरार पैदा करने वाला हो रहा है, जो वनमाला के साथ प्रियहरि के संबंधों, प्रियहरि की चाहत को ही ग्रसने जा रहा था ।
उन दिनों प्रियहरि के साथी नलिन जी ही अफसर की खुर्सी पर थे । उनके आने पर प्रियहरि ने उन्हें राजी कर अगली दो शामों के लिए वनमाला की ड्‌यूटी अपने साथ शाम के लिए दर्ज करा ली और उसके करीबी मुहल्ले के एक सहायक के हाथों वनमाला को खबर भी भिजवा दी ।
वनमाला और प्रियहरि के ताल्लुकात गहरे थे लेकिन ऐसे कि प्रियहरि को वनमाला के मूड का खयाल ही अधिक रखना होता था। इसके विपरीत वनमाला प्रियहरि के तरफ से निश्चिन्त थी कि वह तो उसका हो ही चुका है। औरत-जात होने के कारण उसकी अनेक-विध समस्याएं थी। खासकर तब जबकि प्रियहरि से लगाव वनमाला की घरू और सामाजिक जिन्दगी के लिए भारी पड़ रहा था। प्रियहरि का मन आशंका-ग्रस्त था। वनमाला से मिलते उसकी धकड़नें तेज हो जातीं। उसका मन भयभीत होता कि न जाने वनमाला की स्थिति, परिस्थिति, मनःस्थिति क्या है और उसका मूड कैसा होगा। बाधाओं के कारण इस तरह कई दिन गुजर जाते और प्रियहरि को वनमाला से आमने-सामने की अंतरंगता के मौकों के लिए तरस जाना होता था।


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''बाइ गाड, मैने आप के बारे में उससे कभी कुछ नहीं कहा है ।
यहां आजकल औरतों की भी बड़ी राजनीति चल रही है ।''


पिछली रात से ही प्रियहरि को डर था कि कहीं उस तरह बुलावे की व्याख्या उल्टी न हो। वनमाला के मिजाज के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता था। प्रियहरि को आशंका हुई कि वनमाला उस पर अपना प्रभुत्व दर्शाने, नीचा दिखाने, और परेशान करने का आरोप लगाए और छुट्‌टी न ले ले । दोपहर दो पैंतालीस पर उसने वनमाला को देखा तो आश्चर्य से भरपूर उल्लास से उसका मन थिरक उठा ! वनमाला आई । बिल्कुल अच्छा मूड । बहुत दिनों के बाद मिलने की प्रच्छन्न खुशी । पहले-पहल वनमाला के संभावित मूड के बारे में प्रियहरि ने जो-जो सोच रखा था, उसे हॅंसते हुए उसने बताया ।
वनमाला ने हंसकर कहा- ''मुझे कोई परेशानी नहीं । एक बार आना था, सो अभी आ गई । लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि नलिनजी ने ये वीक्षण की सूचना भेजी कैसे ? क्योंकि आप की शाम की पाली में ही तो बतौर अधिकार मैं आप के साथ सहायक अधीक्षक हूँ। अब आप बताइए कि सहायक अधीक्षक अपनी ही ड्‌यूटी में क्या वीक्षण करेगा ? तय कीजिये ?''
अब चौंकने की बारी प्रियहरि की थी । उसे यह बात मालूम नहीं थी । न कभी वनमाला ने इस वक्त उसके साथ सहायक अधिकारी की ड्‌यूटी की थी ।
उसने कहा-'' अरे ! यह बात तो मुझे भी नहीं मालूम तब तो आप को यहीं रखना था । ये तो गलत बात है । आइ विल रेज़ दिस मैटर विद नलिन जी।''
प्रियहरि के शब्दों के पीछे छिपी मंशा को वनमाला ने भली-भॉंति समझ लिया । वह सुबह की जगह शाम प्रियहरि के साथ रहना ही रहना चाहती थी ।
वनमाला ने कहा- ''आप को मालूम नहीं ?'' हंसकर ताना देती हुई वह बोली –
'' मैंने तो समझा था कि आपने ही मुझे अपनी जगह से टालने के लिए कहकर सुबह की पाली में भिजवाया है । आप तीसरी पाली के अधीक्षक हैं और आपको यह बात मालूम होनी चाहिए थी । ''
'' अरे ठीक इसके उल्टे मैं समझता रहा कि तुमने मुझे अवाइड करने सुबह की पाली मांगी है। मैने तो समझा कि प्रशासन के निकट रहकर मुझे जलाने के लिए ही खासतौर पर तुमने सुबह के साथ दोपहर की पाली भी चुनी है '' - प्रियहरि ने जवाब दिया ।
'' मुझसे पूछा किसने ? बस लगा दिया । मेरी मजबूरी थी । मैं करती भी क्या ? ''
वनमाला ने प्रियहरि से कहा- '' अब आप कहिए उनसे कि शाम की पाली में मेरा नाम है, तो सुबह-सुबह वे मुझे क्यों बुला रहे हैं ? वैसे भी सुबह की पाली में परेशानी है । पॉंच-पॉंच, छः-छः लोग आते नहीं । कार्यालय का आदमी भी ड्‌यूटी पर चला जाता है । मुझ पर ताने कसे जाते हैं कि इन्हीं में बड़ी योग्यता है, जो दो-दो पालियों में सहायक परीक्षधिकारी बनी बैठी हैं, वगैरह । ये सब महिलाओं की राजनीति है । ''
'' वनमाला तुम क्यों नहीं कहती हो उनसे ? तुम कहो उनसे और मैं भी कहूंगा । ''
जवाब में वनमाला बोली -'' मेरे कहने से कुछ होता नहीं । उल्टे गलत अर्थ निकाला जाएगा । ''
सारा माजरा प्रियहरि की समझ में आ गया था। यह शरारत ईर्ष्या में ग्रस्त भोलाराम की थी । अवश्य उसी ने बड़े साहब के कान फूंकते वनमाला को प्रियहरि से जुदा रखने की तरकीब निकाली थी।
प्रियहरि ने वनमाला को उम्मीद दिलाई।
''ठीक है मैं ही कोशिश करूंगा ''- उसने कहा।
साथ बैठे प्रियहरि और वनमाला का सारा वक्त प्यार में एक दूसरे से बेरुखाई की शिकायतों और मनुहारों में कटा । वनमाला को अपने अनेक श त्रु होने की शिकायत थी। वनमाला की शिकायत थी कि प्रियहरि भी उसका ध्यान नहीं रखता है। वैसी ही शिकायतें विपरीत ध्रुव पर वनमाला से प्रियहरि की भी थीं । इस मिलन से दोनों के बीच की गलतफहमियॉं दूर हुईं । वे दोनों ही बहुत प्रसन्न थे । तीन घण्टे का समय कैसे गुजरा इसका पता ही उस दिन न चल पाया था। प्रियहरि के टिफिन की दो पूरियां आज वनमाला और नीलांजना सहित तीन ने खायी । नाश्ता हुआ, चाय चली । प्रच्छन्न आरोप-प्रत्यारोप, उपालंभ चले । आज तीसरी नीलांजन थी, जो प्रियहरि और वनमाला के एक हो जाने पर संकोच में सहमी, सकुची रही और बाकायदा प्रियहरि की सहायक अधिकारी होने के बावजूद इन दोनों को वहां छोड़ निरीक्षण में भी जाती रही । आज अपनी-अपनी जगह से न प्रियहरि हिला और न वनमाला हिली । शाम होते-होते भोलाबाबू सौंपा गया अपना सरकारी काम पूरा कर लौटते हुए आ पहुंचे थे। वनमाला और भोलाबाबू एक ही इलाके के बासिन्दा थे। सुविधा की दृष्टिसे मैने वनमाला को समय से कुछ पहले ही भोला के साथ भेज दिया ।

कल से ही प्रियहरि को कुछ अंदेशा होने लगा था । अनुभव बताता है कि वनमाला के साथ संबंधों में एक दिन की उड़ान दूसरे दिन खाई बन जाती है । वही हुआ । सुबह फोन पर प्रियहरि ने भोलाबाबू से अनुरोध किया था कि परीक्षा-ड्‌यूटी संबंधी व्यक्तिगत बात प्राचार्य से करके वे आदेश ठीक कराएं और वनमाला को शाम उसके साथ रखें । बात बहुत औपचारिक ही थी । दोपहर पता लगा कि मौजूदा स्थिति को यथावत पुष्ट करके फिर उन्हें आदेश सौंप दिया जाएगा। बदकिस्मती कि प्रियहरि और वनमाला को वैसी ही दूरी पर रहना था ।
दूसरे दिन फिर साथ होने पर प्रियहरि ने वनमाला को सुझाया कि नलिनजी से अपने सुबह के झगड़ों की बात बताकर तुम्हीं प्रधानजी से आग्रह करो कि वे तुम्हें उनकी जगह मेरे साथ रखें।
वनमाला ने उदास भाव से कहा- '' मैं नहीं कह सकती । मुझे मालूम है कि होना-जाना कुछ नहीं है । फिर पारिवारिक सुविधा की दृष्टि से तो सुबह ही ठीक है । रहने दीजिये ।''

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