मैं बना बलविंदर की पत्नी

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बलविंदर ने मुझे सहलाया व समझाया, "होन्दा है, कोई गल नई, अगली वार नई होगा, मज्जे तो आई सी ना, तू परेशान ना हो" ये कहता हुआ वो स्नानगृह मे चला गया| मेरी गुदा अभी भी अपने वास्तविक रूप मे नही आई थी, धरातल पर पहले से पड़े वीर्य व पसीने की झील मे मेरे पैरो से बहता वीर्य किसी नदी की भाँति उस नदी मे सम्मिलित हो रहा था| गुदा की पीड़ा व बुदबुदाहट से मैं ग्लानि, पश्चाताप, संकोच व हीन भावना से ग्रसित वहीं बिछोने पर लेट कर बलविंदर के स्नानगृह से लौटने की प्रतीक्ष करने लगा| मेरे अनुमान से भोर हो गई की क्योकि बाहर से जिस तरह के स्वर आ रहे थे प्रतीत हो रहा था की कुछ ही समय मे सूर्य निकल आएगा इसी उधेड़बुन मे पता नही कब मुझे निंद्रा आ गई और मैं वहीं बिछोने पर सो गया|

निंद्रा तब टूटी जब बलविंदर ने मुझे उठाया गर्म दूध पीने के लिए, अपने आप को नग्न पा के मुझे असहज लग रहा था, तुरंत मैने अपनी गुदा को छू कर जाँच किया तो पाया की अब वो अपने वास्तविक रूप मे है परंतु उसपर बलविंदर के वीर्य की सुखी परत बन गई है जो मेरी जांघों पर भी थी, उठ कर वस्त्र पहने का प्रयास किया तो पाया की मेरा शरीर ज्वर से तप रहा है| उठने का साहस नही हो रहा था, बलविंदर से दूध ले कर पी लिया बहुत भूख भी लग रही थी| बलविंदर ने कहा, "तू आराम कर, तेरे को बुखार है, पढ़ाई शाम को कर लेना"| यह कहता हुआ वो दूसरे कक्ष मे चला गया व मेरे कपड़े ला कर मुझे पहना दिए| थकान व भूख से मुझे पुन: नींद आ गई केवल इतना सुनाई दिया "तू सो जा मैं भोजन का कुछ प्रबंध करता हूँ"|

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