साथी हाथ बढ़ाना Ch. 03

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अच्छी तरह चिकनाहट लगा कर साले साहब ने धीरे से अपना लण्ड सुषमा की गाँड़ पर टिकाया और एक हाथ से उसे पकड़ कर अपने पेंडू से हलका सा धक्का मार कर अपने लण्ड को सुषमा की गाँड़ में थोड़ा सा घुसेड़ा। सुषमा के पुरे बदन में साले साहब के लण्ड के घुसने से सिहरन फ़ैल गयी। मैंने भी सुषमा की चूतमें और उसके बदन में फैलती हुई सिहरन को महसूस किया।

साले साहब ने जब अपना लण्ड थोड़ा और घुसेड़ा तब सुषमा दर्द के मारे चीख पड़ी। शायद सुषमा दर्द से कम और दर्द के डरके कारण ज्यादा आतंकित थी। सुषमा की पहले कभी हिम्मत नहीं हुई थी की वह सेठी साहब को गाँड़ मारने दे। पर हमारे लण्ड कम भयावह लगने के कारण सुषमा ने यह हिम्मत की। साले साहब का और मेरा लण्ड कुछ छोटा जरूर था पर वह इतने भी ज्यादा छोटे नहीं थे की सुषमा की गाँड़ में घुसे और उसे दर्द ना हो। साले साहब सुषमा के चीखने से कुछ देर रुक गए। शायद उन्हें सुषमा के चीखने का अंदेशा तो था ही। इस लिए वह सुषमा की चीख सुनकर घबराये नहीं। शायद उन्होंने पहले कुछ स्त्रियों की चीख निकलवाई होगी। जो भी हो। उन्होंने अपना लण्ड सुषमा की गाँड़ में से धीरे से निकाल दिया। वह कुछ देर थम गए फिर सुषमा की मुंदी हुई आँखों को देखते हुए उन्होंने एक धक्का और लगाया और इस बार अपना गाँड़ कुछ और सुषमा की गाँड़ में घुसेड़ा।

इस बार सुषमा ने दबी हुई आवाज में चीख लगाई, "हाय माँ.... रे! संजयजी मुझे पता नहीं था यह गाँड़ मरवाने से इतना ज्यादा दर्द होगा।"

"मैं इसे निकाल लूँ सुषमाजी?" साले साहब ने सुषमा से पूछा।

सुषमा आँखें खोल कर साले साहब की और मुस्कुराते हुए देख कर बोली, "तुम मर्द लोग, इतनी रसीली मजेदार चूत छोड़ कर गाँड़ को चोदने के पीछे क्यों लगे रहते हो यह बात समझमें नहीं आती।"

"पर हमने तो गाँड़ मारने की बात की ही नहीं आज?" साले साहब ने कुछ झिझकते हुए और कुछ उलझन भरी आवाज में कहा।

"तुम लोगों ने बात तो नहीं की पर मुझे मालुम है की यह हो ही नहीं सकता की तुम लोगों ने इसके बारे में सोचा ना हो। तुम्हारे दिमाग में यह बात जरूर रही होगी। मेरी सहेली रूपा कह रही थी की मर्द लोग औरत की गाँड़ के पीछे पागल रहते हैं। वह औरत के बूब्स और गाँड़ ही सबसे ज्यादा देखते रहते हैं। रूपा को इन मामलों का काफी अनुभव है। उसके पति बड़े ही रंगीन मिजाज हैं। रूपा कई बार अपने पति के साथ दो मर्दों से एम.एम.एफ. करवा चुकी है। वह कहती है की शुरू शुरू में गाँड़ मरवाने में काफी दर्द होता है, पर बाद में ना सिर्फ इसकी आदत हो जाती है बल्कि गाँड़ मरवाने में काफी मजा भी आने लगता है। बच्चा होने के बाद औरत की चूत का छिद्र बड़ा हो जाता है। तो मर्द लोगों को और शायद औरतों को भी चूत चुदवाने में उतना मजा नहीं आता। गाँड़ का छिद्र छोटा होने से अगर उसे अच्छी तरह चिकनाहट से लथपथ किया जाए तो गाँड़ मारने और मरवाने में दोनों को बहुत मजा आता है।"

मैं सुषमा की बात सुन कर सोच में पड़ गया। औरतें भी चुदाई के बारे में इतना ज्यादा सोचती हैं यह अक्सर हम मर्द लोग नहीं जानते। ज्यादातर औरतें घरके काम, बच्चे, भाई बहन पति को सम्हालना इत्यादि काम में ही व्यस्त रहतीं हैं। चुदाई का भूत तो मर्दों के दिमाग में ही छाया हुआ होता है यही हम मर्द लोग मानते हैं। पर यह बात सच नहीं है। औरतें भी चुदाई के मामले में काफी सजग होती हैं। वह भी चुदाई करवाने के लिए लालायित रहतीं हैं। बस वह अपने मन के भाव जाहिर नहीं करतीं। बल्कि जब चुदाई करवाने का मौक़ा होता है तो चुदाई के दरम्यान निकाले गए कपडे ठीक तरह तह लगा कर रखना, लण्ड और चूत को साफ़ करने के लिए कपडे तैयार रखना, चुदाई के बाद थक जाने पर पहले से ही कुछ खाने पिने की चीजों की व्यवस्था करना यह सब स्त्रियां चुदाई होने वाली है यह भनक लगते ही इंतजाम करके रखतीं हैं। वह मर्दों की तरह चुदाई का मौक़ा पाते ही आधी पागल या बाँवरी नहीं हो जातीं।

अब चुदाई का सबसे रोमांचक वक्त शुरू हुआ था। मुझे भी उस रात तक अंदाजा नहीं था की एम.एम.एफ. चुदाई इतनी मजेदार होती होगी। दो लण्डों के एक साथ चोदने से सुषमा का पूरा बदन रोमांच से मचल रहा था। सुषमा बार बार "है राम! मर गयी रे! ओह.... आह... हूँ.... ओहो..... उफ़...." इत्यादि सिसकारियां और कराहटें निकाल रही थी। मैंने यह बखूबी महसूस किया की शायद उस रात की सुषमा की मेरे और साले साहब के लण्ड से हुई चुदाई सुषमा जिंदगी भर भूल नहीं पाएगी। जिस तरह सुषमा हम दोनों के बिच चिपकी हुई थी और जिस तरह वह बार बार हमें अपने बाहु पाश में जकड कर अपना प्यार जता रही थी, यह साफ़ जहीर होता था की वह उन्माद के चरम को छू रही थी।

सुषमा की इस तरह की दुगुनी चुदाई उतनी तेज़ रफ़्तार वाली नहीं थी। रफ़्तार बढ़ाने पर अक्सर दोनों में से एक लण्ड चूत या गाँड़ में से निकल पड़ता था। उसे फिर से अंदर डालना पड़ता था, जिससे रफ़्तार धीमी हो जाती थी। पर वह धीमी रफ्तार में भी सुषमा उतनी ज्यादा उत्तेजित हो रही थी की चुदाई के दरम्यान मैंने किसी भी औरत को इतना ज्यादा उत्तेजक और उन्मादक हाल में नहीं देखा था। वह कभी काँपने लगती थी तो कभी कराहने लगती थी तो कभी सिसकारियां मारने लगती थी। मेरे ख्याल से सुषमा की कराहटें पूरी दुगुनी चुदाई के दरम्यान एक या दूसरे रूप में बगैर थमें चालु ही रही थीं।

यह तो हमें अंदाज था की एम.एम.एफ. चुदाई रोमांचक और उत्तेजना भरी होगी। पर इतनी उत्तेजक और रोमांचक होगी वह हम तीनों में से किसी ने भी सोचा नहीं था। हालांकि पहले की चुदाई के मुकाबले एम.एम.एफ. चुदाई उतनी तेज रफ़्तार वाली नहीं थी। पर फिर भी मेरे लण्ड में मेरा वीर्य इस कदर फनफना रहा था और मेरा पूरा बदन ख़ास कर मेरा दिमाग भी उत्तेजना से इतने जोश में था जैसा मैंने पहले किसी चुदाई में महसूस नहीं किया था। मैं जल्द ही झड़ने के कगार पहुँच रहा था। मैंने महसूस किया की वही हाल साले साहब और सुषमा का भी था। साले साहब का बदन सख्त हो गया था और सुषमा मारे उत्तेजना से इतनी ज्यादा मचल रही थी की मुझे लगा की वह बार बार झड़ रही थी।

धीरे धीरे सुषमा की चुदाई एक और झटके साथ धीमी पड़गयी। सुषमा का पूरा बदन कंपकपाने लगा। वह अपने चरम पर पहुँच चुकी थी। वह मुझे अपने बाहु पाश में जकड कर बोलने लगी, "राज चोदो मुझे और जोर से चोदो। मैं झड़ने वाली हूँ। संजू और जोर से गाँड़ मारो मेरी। गाँड़ में और जोर से डालो यार! आजकी रात मेरे लिए नहीं भूलने वाली रात बन जाएगी। आज तुम दोनों ने मुझे ऐसा बढ़िया तरीके से चोदा है की मैं इसे भूल नहीं पाउंगी।" यह कह कर सुषमा झड़ने लगी। साथ ही साथ में मेरे लण्ड में से फर्राटे मारता हुआ मेरा वीर्य सुषमा की चूत की नाली में गरमा गरम उष्मा देता हुआ जोरशोर से मौजों के उफान की तरह बहने लगा। मेरा सारा वीर्य खाली होते ही सुषमा शिथिल हो कर लुढ़क पड़ी। सुषमा के खिसक ने से मेरा ढीला हो चुका लण्ड अपने आप ही बाहर फिसल कर निकल पड़ा। साले साहब ने कब अपना वीर्य सुषमा की गाँड़ में खाली कर दिया और कब अपना लण्ड निकाल लिया और वह एक तरफ जा कर खड़े हो गए यह मुझे पता ही नहीं चला।

करीब पंद्रह मिनट तक हम तीनों थके हुए ऐसे ही लेटे रहे। मुझे लगा की मैं तो सो ही गया होऊंगा। शायद हम तीनों कुछ देर के लिए या तो सो गए थे या फिर तंद्रा में थे। कुछ देर के बाद जब मैंने आँखें खोलीं तब रसोई घर में से बर्तनों की खटखटाहट सुनाई दी। सुषमा शायद हमारे लिए कुछ बना रही थी। कुछ ही देर में सुषमा हमारे लिए कॉफ़ी और बिस्किट्स ले कर हाजिर हुई। सुषमा ने नाइटी पहन ली थी। ढीलीढाली नाइटी सुषमा के नंगे बदन की सारी रूपरेखा उस ढीले कपडे में बयाँ कर रही थी। सुषमा की चूँचियाँ, और उसके सिरमौर दो निप्पलेँ मनमोहक लग रही थीं। सुषमा की गाँड़ पर एक मनहर आकार बनाती हुई नाइटी सुषमा के नंगे बदन से भी ज्यादा कामुकता के दर्शन करा रही थी।

सुषमा ने मेरी लोलुप नज़रों को देखा और कुछ सहमते हुए मेरी और देख कर बोली, "ऐ मिस्टर रोमियो, अब कुछ देर के लिए रूमानी अंदाज और चुदाई बंद। अब आपके साले साहब हमें यह बताएँगे की अंजू को बच्चा कैसे और किसने दिया।" फिर संजू की और घूम कर सुषमा ने पूछा, "संजू, अब समय हो गया है की तुम उस राज़ पर से पर्दा उठाओ।"

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सुषमा का सवाल सुन कर साले साहब हलके से मुस्कुराये और फिर काफी गंभीरता से बोले, "चूँकि हम लोगों में कोई भी ऐसा गंभीर गोपनीय रहस्य नहीं होना चाहिए जिसके कारण हम में से किसीके मन में भी कुछ शंका कुशंका हो। सिर्फ इसी के कारण मैं इस रहस्य पर से पर्दा खोलना चाहता हूँ। मेरे इस रहस्य को उजागर करने से कुछ मानसिक असुविधा हो सकती है, ख़ास कर मेरी बहन टीना को। पर चूँकि हम छह साथीदारों ने एक दूसरे से सपूर्ण खुलेपन का संकल्प लिया है, मैं आशा करता हूँ की टीना भी इस पेचीदा मसले को समझेगी और स्वीकार करेगी।"

मैंने सुषमा और साले साहब की और देखा और अपना सर हिला कर उनको भरोसा दिलाया की टीना जरूर इस बात को समझेगी। साले साहब ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए जो उसके बाद कहा वह मं उन्हींके शब्दों में पेश कर रहा हूँ।

संजयजी की कहानी उन्हीं की जुबानी

मैं आगे की जो भी रोमांचक दास्ताँ हैं उसे आप सब से सांझा करूँ उसके पहले आप सब को हमारे परिवार का कुछ इतिहास जानना और समझना होगा। हमारे परिवार में मेरे माता पिता, मेरे बड़े भाई जिनका नाम सुदर्शन है, टीना मैं और अंजू हैं। मरे पिताजी उनकी शादी के कुछ सालों बाद युवावस्था में ही बीमार रहने लगे। उसकी वजह से उनकी नौकरी छूट गयी। हमारे घर में आमदनी की समस्या हो गयी। उस समय मैं शायद पाँचवी क्लास में पढता था और टीना शायद तीसरी क्लास में। मेरे बड़े भैया उस समय ग्यारहवीं क्लास में थे।

जब घरमें पैसों के लाले पड़ने लगे तब मेरे बड़े भाई सुदर्शनजी ने पिताजी से कहा की वह पढ़ाई को छोड़ कोई नौकरी कर लेंगे। वह पढ़ाई में काफी होनहार थे। पिताजी ने उन्हें पढ़ाई छोड़ ने से मना किया तब बड़े भैया ने अपनी पढ़ाई के साथ साथ दोपहर दो बजे से रात के ग्यारह बजे तक एक दूकान में अकाउंटेंट की नौकरी करना शुरू किया। रात को ग्यारह बजे घर आकर खाना खा कर वह दो घंटे पढ़ाई.करते थे। उनकी तनख्वाह कोई ख़ास ज्यादा नहीं थी, पर उसमें से उनकी कॉलेज की फीस, मेरी और टीना की स्कूल और बाद में कॉलेज की फीस जमा हो जाती थी और हमारी किताबें, कपडे बगैरह का इंतजाम हो जाता था। जब हम कॉलेज में पहुंचे तब भैया को अच्छी जॉब मिल गयी थी। पर फिर भी उनकी कमाई सारी हमारी पढ़ाई के खर्चे में ही लग जाती थी।

जब उनकी उम्र शादी के लायक हुई तब हम अभी भी पढ़ाई में लगे हुए थे। सब के काफी आग्रह करने पर भी उन्होंने शादी करने से मना कर दिया क्यूंकि वह कहते थे की अगर घर में उनकी पत्नी आयी तो खर्चा तो बढेगा ही पर साथ साथ माँ, बाप और भाई बहन को सम्हालने में दिक्क्त हो सकती है। मेरे और टीना के साथ सौतेला सा व्यवहार हो सकता है। टीना की जीजू से शादी का सारा खर्चा भाई साहब ने ही उठाया था। वक्त गुजरते मैं अच्छा खासा कमाने लगा था। पर तब बड़े भाई साहब की उम्र शादी के लायक नहीं रही थी। बड़े भाई साहब फिर भी काफी स्वस्थ और मजबूत थे। अब घर में हमें पैसों की किल्लत नहीं थी।

हमारे एक पडोसी युवक थे। उनके मातापिता नहीं थे। बड़े भाई साहब के साथ उनकी काफी उठक बैठक थी। कई बार जरुरत पड़ने पर भाई साहब ने उसकी काफी पैसा दे कर मदद की थी। शादी के बाद उनकी पत्नी जिसका नाम माया था, शायद भाई साहब से लिया कर्जा उतारने के लिए हमारे घर में काम करने लगी। माया देखने में काफी सुन्दर थी। वह मेरे माता पिता की सेवा करती और घर का खाना बनाती और बड़े भाई साहब का ख़ास ध्यान रखती। विधाता की चाल भी अजीब होती है। शादी के दो साल बाद पडोसी युवक की एक एक्सीडेंट में मृत्यु हो गयी। उनकी पत्नी अनाथ हो गयी तब भाई साहब ने उसकी तनख्वाह तय की और हमारे घर के पीछले हिस्से में ही दो कमरे, बाथरूम, टॉयलेट के साथ उसे दे दिए। वह दिन भर हमारे घर में काम करती और रात अपने कमरे पर चली जाती।

उसी समय मेरी शादी अंजू से हो गयी। अब घर का खाना बनाने की और बाकी की सारी जिम्मेदारी अंजू ने अपने सर पर ले ली। माया के पास कोई काम नहीं बचा। भाई साहब ने फिर भी माया को काम से नहीं निकाला और उसकी तनख्वाह में भी कोई कटौती नहीं की। माया रोज आती और अंजू का हाथ बटाती। अंजू और माया की अच्छी खासी दोस्ती हो गयी। शादी के बाद कुछ ही दिनों में अंजू को धीरे धीरे पता लगा की हमारे बड़े भाई साहब ने हमारे लिए कितना बड़ा बलिदान दिया था। उन्होंने अपना सारा जीवन हमारे लिए कुर्बान कर दिया था, यहां तक की उन्होंने ने अपना घर भी नहीं बसाया।

अब यहां जा कर अंजू का मेरे जीवन में जो बड़ा ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है उसका अध्याय शुरू होता है। आगे की कहानी में मेरी अंजू ने एक बड़ी ही अनोखी भूमिका निभायी है और मैं चाहूँगा की मैं उसे अंजू के ही शब्दों में बयान करूँ। हालांकि यह मैं बोलूंगा पर शब्द अंजू के हैं जो उसने मुझे जैसी जैसे घटनाएं होती गयीं वैसे वैसे वह मुझे बताती रही।

आगे की कहानी अंजू के शब्दों में:

जब मैं संजू जी से शादी कर नयी नवेली दुल्हन बन कर मेरे ससुराल आयी तब मुझे पता चला की मेरे पति, ननद सा, मेरी सांस, ससुर सबके जीवन में मेरे जेठजी और संजयजी के बड़े भाई साहब का कितना बड़ा योगदान था। संजयजी मुझे यहां तक कहते थे की अगर वह अपनी चमड़ी उधेड़ कर उससे जूते बनाकर भाई साहब को पहनाएंगे तो भी वह उनका ऋण चुकता नहीं कर सकते। कई बार संजयजी बड़े भैया की बात करते हुए इतने भावुक हो जाते की उनकी आँखों में आंसू थमने का नाम नहीं लेते।

मुझसे माया कई बार बड़े भैया के बारे में बड़े चाव से बात करती थी। मैंने महसूस किया की माया कुछ हद तक बड़े भैया से प्यार करने लगी थी। हालांकि प्यार कहना शायद जायज नहीं होगा क्यूंकि ऐसा कोई इज़हार माया ने मुझसे नहीं किया था। पर पुरुष और स्त्री का एक दूसरे को कुछ ज्यादा ही निजी तरीके से पसंद करना शायद प्यार ही कहलाता है। मुझे भी कई बार ऐसे लगा जैसे जेठजी के जीवन में वह शायद औरत के प्यार की कमी महसूस करते रहते थे।

मैंने देखा की माया को पुरुष के संग की आवश्यकता थी और जेठजी को स्त्री के सहवास की। तब मैं माया के और करीब जाकर उसकी राजदार बनने की कोशिश करने लगी। मैं माया को उकसाती और उसे वक्त बे वक्त काम हो या ना हो; कुछ ना कुछ बहाना बना कर जेठजी के कमरे में भेज देती। ऐसे ही मैंने एक बार जब जेठजी की तबियत ठीक नहीं थी तब कुछ देर रात में माया से जेठजी का हाल पूछने के बहाने जेठजी के कमरे में भेज दिया।

माया जा कर दौड़ती हुई हांफती हुई फौरन वापस आ गयी। उसका हाल देखने वाला था। वह काफी घबराई हुई लग रही थी। जब मैंने उसे जेठजी का हाल पूछा तो वह रोनी सी सूरत बना कर कहने लगी, "दीदी मैं क्या बताऊँ? मैंने बड़े भैया को ऐसे कभी नहीं देखा। अरे बापरे मैं तो डर ही गयी जब भैया ने मुझे भी देख लिया।"

मैंने जब दुबारा माया को झकझोरते हुए पूछ की "क्या हुआ, बताओ तो सही? क्या देखा तूने? तुझे डर क्यों लग रहा है?"

तो वह बोली, "दीदी, मैं नहीं बताउंगी। मुझे शर्म आ रही है।"

मैं माया की बात सुनकर कुछ झुंझलाती हुई बोली, "अरे तुझे डर लग रहा है की शर्म आ रही है? अगर शर्म आ रही है तो मुझसे शर्म किस बात की? बोल क्या देखा तूने?"

जब मैं बार बार माया को बोलने के लिए कहने लगी तब झिझकते हुए तुतलाती हुई माया बोल पड़ी, "बड़े भैया बिस्तरे में पड़े हुए अपने उसको अपने हाथ से हिला रहे थे।"

अब मेरे दिमाग का पारा सातवे आसमान पर चढ़ गया। मैंने माया को हिलाते हुए पूछा, "तू क्या बक बक कर रही है? किसको बड़े भैया अपने हाथ से हिला रहे थे?"

माया ने अपनी नजरें नीची कर कहा, "वही जो मर्दों का होता हैं ना दीदी। बड़े भैया उसे अपने हाथ में पकड़ कर हिला रहे थे।'

तब मेरी समझ में आया की जेठजी अपने लण्ड को अपने हाथ में पकड़ कर हिला रहे थे। मैंने फ़ौरन माया से पूछा, "और जेठजी ने तुझे उस हाल में देख लिया? जेठजी ने तुझे कुछ कहा नहीं?"

माया ने अपनी नजरें नीची रख कर कहा, "जी उन्होंने मुझे देख लिया। पर जी नहीं उन्होंने मुझे कुछ नहीं कहा क्यूंकि मैं उनकी नजर पड़ते ही भाग कर वापस आ गयी।"

जब माया ने मुझे यह कहानी सुनाई तब मुझे यकीन हो गया की हालांकि जेठजी ने हमारे लिए इतना बड़ा बलिदान किया था, पर उनके बदन में काम की आग तब भी उतनी ही जल रही थी। अब हमारा कर्तव्य था की उनके बदन की उस काम ज्वाला का शमन करने में हम जो कुछ हम से हो सके हम करें। तब मैंने तय किया की मैं कोशिश करुँगी की माया और जेठजी की जोड़ी बन जाए। इससे उन दोनोंके बदन की काम की भूख तृप्त हो सकती थी और उन दोनों के जीवन को एक नयी दिशा मिल सकेगी।

मैंने माया से कहा, "देख तु कहती है ना की मेरे जेठजी ने तुझ पर इतने एहसान किये हैं की तू मेरे जेठजी के लिए अपनी जिंदगी भी दे सकती है? तो फिर तू एक काम कर। अभी की अभी जेठजी के कमरे में चाय लेकर चली जा और कहना आपकी तबियत देखने आयी थी। फिर टेबल पर चाय राख कर उनके पास बैठ जाना। बोल तू कर सकती है यह?"

मया ने मेरी और देख कर अपने दांतों में ऊँगली दबा कर बोली, "दैया रे दैया! यह क्या कह रहे हो बीबीजी? जब भैया इस हालत में हों तो मैं कमरे में कैसे जाऊं?"

मैंने अपना धीरज ना गँवाते हुए कहा, "देख माया, हमें कैसे भी कर के जेठजी का घर बसाना है। मैं चाहती हूँ की तू जेठजी का घर बसाये। क्या तू जेठजी को चाहती है? सच सच बताना।"

मेरी बात सुन कर माया चक्कर में पड़ गयी। वह हाँ भी नहीं कह सकती थी और चाहती तो थी वह जेठजी को। मना कैसे कर सकती थी? माया ने मेरी और देख कर कहा, "दीदी, तुम मुझे बड़ी ही उलझन में डाल रही हो। मैं क्या कहूं? जो आप कहोगे मैं करुँगी। बोलो, मुझे क्या करना होगा?"

मैंने कहा, "मेरे जेठजी बड़े ही जिद्दी हैं। वैसे वह शादी करने के लिए मानेंगे नहीं। अगर तू अभी जायेगी और उन्हें अपना लण्ड हिलाते देख कर पूछना की भैया यह क्या कर रहे हो? और फिर जेठजी का लण्ड अपने हाथ में पकड़ लेना और कहना की लाइए मैं इसे हिला दूंगी। यह ड्रामा करेगी और अभी चली जायेगी तो कुछ ना कुछ हो सकता है। अगर कुछ हुआ तब हम उन्हें ब्लैकमेल कर सकते हैं। फिर वह शायद शादी करने के लिए राजी हो जाएँ। अभी वह रोमांटिक मूड में है। तुझे बिकुल घबराना नहीं है। बोल करेगी?"

माया ने उलझन में मेरी और देखा और कुछ झिझकते हुए बोली, "दीदी, काम तो मुश्किल है, पर उनके लिए मैं कुछ भी कर सकती हूँ।"

मैंने माया की पीठ थपथपाते हुए कहा, "अरे वाह रे मेरी होने वाली जेठानी! अभी से तू तो मेरे जेठजी को भैया कहने से ही कतराने लगी? ठीक है, तू जा अब और मेरे जेठजी को अपने वश में कर ले। जा। जेठजी को वश में कर लिया तो मैं तुझे मेरी जेठानी मान लुंगी।"

मैंने माया को लगभग धक्के मारते हुए ऊपर भैया के कमरे में भेजा और मैं निचे क्या होता है उसका इंतजार करने लगी।

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